सुबह तेज़ बारिश हो रही थी, हवा भी तेज़ थी। आभास था कि दिन सुस्त और बादलों से घिरा रहेगा। फिर पता चला कि शहर के केंद्र में उसकी कुछ गलियों की सैर के लिए जाया जा सकता है। हम जैसे ही तैयार हुए, मॉस्को का मौसम भी सुस्ती छोड़ खुल गया, खिलखिला उठा।
यह एक नियोजित पैदल टूर था, इसका गाइड अलेक्सान्दर इवानोव था। अपनी क़िस्सागोई शैली और ज्ञान के कारण इस गाइड ने ख़ासा नाम कमा लिया है; इसलिए लोग बड़ी तादाद में जुड़े थे। सैर को दिन के एक बजे शुरू होना था, सभी सैलानी समय पर पहुँच गए। क्यू० आर० कोड के माध्यम से टेलीग्राम-चैनल पर टूर गाइड के साथ राब्ता बना। मिलने की जगह सुख़ारेव्स्काया प्लोषद (चौराहा) थी। यह स्थान शहर की दो बड़ी सड़कों स्रेत्येंका मार्ग और प्रॉस्पेक्ट मीरा के बीच है। १७वीं शताब्दी में इन दो सड़कों के चौराहे पर एक ऊँची मीनार होती थी, जिसका नाम भी सुखारेव्सकाया ही था। सुख़रयोव की रेजिमेंट इस इलाक़े की रक्षा के लिए बरसों तैनात रही थी, उन्हीं के सम्मान में इस स्थान को नाम मिला है। इस मीनार के भी कई क़िस्से हैं, यह गणित का प्रतिष्ठित स्कूल रही, शस्त्रागार संग्रहालय रही, याकव ब्रूस ने वहाँ पहली वेधशाला बनायी, इलाक़े को पानी की आपूर्ति भी इस मीनार से कराई गयी, कुल मिलाकर १८वीं सदी के शुरूआती सालों से वर्ष १९३४ तक इसका समृद्ध इतिहास रहा। बाद में शहर बढ़ा, उसकी ज़रूरतें बदलीं, सड़कों को चौड़ा और बहुपथीय बनाने के लिए इसे गिरा दिया गया, इसके पुनर्स्थापन की फिर बात चल रही है। अगर १७वीं-१८वीं शताब्दियों की दुनिया में पहुँचना है तो यहाँ पर लगने वाले इसी नाम के उस बाज़ार की कल्पना भी करनी होगी, जहाँ हर तरह की चीज़ों की (चोरी की गयीं की भी) ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी। बहरहाल सोवियत सरकार बनने के बाद लेनिन के आदेश पर साल १९२४ में बाज़ार आधिकारिक तौर पर बंद कर दिया गया। यहाँ यह याद रखना होगा, देश क्रांति से गुज़रा था, साम्राज्यवादी व्यवस्था की जगह सोवियत राज्य ने ली थी। इतना बड़ा परिवर्तन बिना किसी लूट-खसोट या अवैधानिक कार्यों के नहीं होता। बाज़ार की गतिविधियाँ ख़ुफ़िया तौर पर इस मुख्यमार्ग के पीछे बनी गलियों में पनपती रहीं, लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया बनी रहीं। हमारा रुख़ स्रेत्येंका मार्ग और उसकी गलियों की तरफ़ ही था। इस सैर में इतिहास की ओर हमें समय-समय पर मुड़ना ही पड़ेगा, क्योंकि मॉस्को के केंद्रीय हिस्सों की नींव में कई दौर की ईंटें लगी हैं।
‘स्रेत्येंका मार्ग’ के नाम के क़िस्से को भी जान लीजिए। उज़्बेक योद्धा तैमूरलंग १४ वीं सदी में बहुत तेज़ी से रूस के हिस्सों पर क़ब्ज़ा करता जा रहा था। उसकी सेना की संख्या और क्षमता मॉस्को में तैनात रक्षकों से कहीं अधिक थी। रूसी मानस तब बुरी तरह से धर्मान्धता की चपेट में होता था; उनका सारा भरोसा इस बात पर था कि जल्दी ही व्लादिमिर शहर से चमत्कारिक देव प्रतिमा मॉस्को पहुँच कर शहर की रक्षा कर लेगी। यह प्रतिमा मॉस्को के नवाब के निवेदन पर ही व्लादिमिर से भेजी गयी थी। कहते हैं कि तैमूर लम्बी कूच के कारण बुरी तरह से थक चुका था, उसे वतन की याद सपनों तक में सताने लगी थी। उसने लगभग उसी दिन अपनी सेनाओं को वापिस लौटने का हुक्म दिया, जिस दिन उस देव प्रतिमा का स्वागत मॉस्को में हुआ था, उससे शहरवासियों की मुलाक़ात हुई थी। मुलाक़ात का पुराना रूसी शब्द ‘स्रेतेनिये’ होता है, इसी शब्द से मार्ग को अपना नाम मिला। लोगों को लगा था कि देव प्रतिमा के प्रताप से तैमूरलंग रूस छोड़ कर जा रहा है।
गलियों से हमारी रहगुज़र त्रिदेव-गिरजाघर से शुरू हुई। १७ वीं सदी में इस इलाक़े के इर्द-गिर्द लोग काग़ज़ पर पेंटिंग्स बना कर बेचा करते थे, यहाँ पर जब गिरजाघर बनाया गया तो उसे जो नाम दिया गया, उसका अनुवाद होगा ‘पन्नों पर त्रिदेव’; बढ़िया बात यह है कि यह मंदिर उसी समय की वास्तुकला की नुमाइंदगी आज तक करता है। वह बदलते समय और प्रचलनों की मार से बचा रह सका है। उस ज़माने में सममिति (सुडौलपन, संतुलन) पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता था, चर्च में यह स्पष्ट रूप से दीखता है। यहाँ से बढ़ते ही हम जिस नुक्कड़ पर पहुँचे, वह सबसे अच्छी तम्बाकू के लिए मशहूर होता था, लेकिन अब उसका उससे कोई नाता नहीं रहा। कुछ पेचीदा गलियों से निकल हम एक ऐसी इमारत के सामने खड़े थे, जो पूरी तरह से मुख्यमार्ग योग्य थी; तो वह इन अन्दरूनियों में कैसे फँसी? बात दरअसल यह है कि स्तालिन के बहुव्यापी विकास कार्यक्रम के तहत इन सब छोटी गलियों को तोड़कर बहुगामी सड़कें बनाने की योजना थी, जिन पर उस दौर के भव्य भवनों को होना था। यहाँ गंगा थोड़ी उलटी बह गयी। भवन तो बन गया, लेकिन द्वितीय युद्ध की मार ने उस विकास कार्यक्रम को रोक दिया, जिसके तहत सड़क बननी थी।
‘स्रेत्येंका मार्ग’ के पीछे की गलियाँ आमतौर पर एक दूसरे के समानांतर हैं। इसकी भी एक वजह है। यानी यह इलाक़ा अमीरों का कभी नहीं रहा। जिन क्षेत्रों में बड़े रईस रहा करते थे, उनमें वे कई गलियाँ ख़रीद लिया करते थे और अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ वहाँ अपनी जागीरें बनाया करते थे। किसी बड़े रईस ने इन गलियों में दिलचस्पी नहीं दिखाई, यानी वे जस की तस रह गयीं।
अब थोड़ा उन दिनों के मॉस्को के भूगोल के बारे में। क्रेमलिन (दुर्ग) निर्माण से रूस में शहरों का बसना शुरू होता था। क्रेमलिन की दीवारों के भीतर राजे-रजवाड़े और उनके क़रीबी रहा करते थे। क्रेमलिन से आज के बुलवार्ड रिंग तक शहर के अधिकारी, सेनाकर्मी आदि रहा करते थे। यानी हरे-भरे बुलवार्ड रिंग की जगह ऊँची दीवार होती थी। इस दीवार के परे कारीगरों, दस्तकारों, मज़दूरों वगैरह की बस्तियाँ होती थीं। गलियों के नाम भी उसमें होने वाले कामों के आधार पर होते थे। जहाँ घंटियाँ बनती थीं, उसे घंटी वाली गली का नाम मिला (इसी गली में क्रेमलिन के अंदर मौजूद ‘शाही घंटे’ को ढाला गया था), जहाँ छपाई होती थी, छापने वालों की गली का, वग़ैरह-वग़ैरह। वैसे सबसे बाहरी गली को आख़िरी गली का नाम प्राप्त है; हालाँकि उसके बाद अब एक गली और भी बन गयी है।
हर जगह का इतिहास उतना ही रोचक होता है जितने वहाँ के बाशिंदे। चूँकि सभी गलियों में आम जनता का वास था, जो रोज़मर्रा के कामों और ज़िन्दगी में इतनी व्यस्त होती थी कि रंगीनियों के लिए न ही उसके पास संसाधन थे और न ही समय। पर कहते हैं न कि वेश्यावृत्ति वह पेशा है जो सबसे पहले शुरू हुआ और सबसे आखिर में ख़त्म होगा, और उससे यह इलाक़ा भी अछूता न रहा। हमारे क़दम उस गली में भी पड़े जो रेड लाइट एरिया की नुमाइंदगी करती थी। उस वक़्त वह सड़क ‘ग्राचोव्का’ कहलाती थी। खुद को सभ्य कहने वाले यह दावा किया करते थे कि उससे उनका कोई रिश्ता नहीं; फिर वह पनपती कैसे थी? गली की दो तिहाई इमारतों से अधिक में आधिकारिक रूप से चकले थे, कहते हैं अनधिकृत तौर पर लगभग सभी में। चूँकि यह गली बदनाम हो गयी थी, यहाँ पर मकानों का किराया अपेक्षाकृत कम होता था। अंतोन चेख़व ने भी जब मॉस्को में अपने पाँव जमाने चाहे, तो आर्थिक स्थिति के कारण उनकी पहली रिहाइश ऐसी ही एक इमारत के तहख़ाने में थी।
ये गलियाँ पुरहयात होती थीं, ज़िन्दगी के हर रंग से सराबोर। उभरते कहानीकार के लिए यह माहौल काफ़ी कारगर सिद्ध हुआ, उन्हें अफ़सानों के लिए विषयवस्तु हर तरफ़ बिखरी मिल जाती थी। कहानी ‘A Nervous Breakdown’ का केंद्र यही इलाक़ा है। चेख़व को जल्दी ही अपनी कहानियों से शोहरत मिली, आर्थिक स्थिति सुधरी और वे तहख़ाने का मकान छोड़कर पास की एक बेहतर बिल्डिंग की दूसरी मंज़िल के घर में रहने लगे।
ये गलियाँ लकड़ी के मकानों से आधुनिक इमारतों तक की गवाह रही हैं। इन्होने वास्तुकला के बदलते प्रचलनों को आते-जाते देखा है। इस इलाक़े को कभी समृद्ध कहलाने (आज का दिन इस तथ्य का अपवाद है) का अवसर नहीं मिला। यहाँ हमेशा आमजन की बस्तियाँ रहीं, इसलिए इमारतें भी कभी भव्य नहीं रहीं। १७-१८ वीं सदी के लकड़ी के मकानों की जगह १९वीं सदी में ईंट-गारे के भवनों ने ले लीं। यूरोपीय वास्तुकला की सभी शैलियों की उपस्थिति दर्ज कराती इमारतें अभी भी गलियों और प्रांगणों से गुज़रते दिख जाती हैं। यहाँ के कुछ घर तो वास्तुकला का नमूना थे और आज भी उनका अग्रभाग ज्यों का त्यों रखा गया है। इलाक़े को वेश्यावृत्ति के नाम से छुटकारा दिलाने के लिए सभी कोशिशें की गयीं, यहाँ तक कि कुछ सड़कों के नाम भी बदले गए।
जब तक इंसान है, व्यापार रहेगा। व्यापार रहेगा तो बाज़ार रहेगा। जिस बाज़ार को लेनिन के आदेशानुसार हटा दिया गया था और जो चोरी-छिपे नुक्कड़ों और अँधेरे कोनों में लगा करता था, उसे आख़िरकार जगह मिली। १९वीं-२०वीं सदी के महान वास्तुशिल्पी कंस्तांतिन मेलिंकव की शुरुआती परियोजनाओं में नए-सुख़ारेवस्की बाज़ार की बिल्डिंग थी। ये आर्किटेक्ट नव-प्रयोगों (avant-gradism) के लिए जाने जाते हैं। नए बाज़ार की इमारत जहाज़ के आकार की है। इसने इलाक़े को आधुनिकता के रंग में रंग दिया था। आज यह इमारत अपने पुराने गौरव को तरस रही है, एक वीरान-से कोने में अपने नवीनीकरण की गुहार लगा रही है। इसकी तरफ प्रशासन का ध्यान पहुँच भी गया था, कायाकल्प की योजनाएँ बन भी रही थीं। लेकिन उक्रैन के साथ युद्ध की स्थिति ने प्रशासन के सभी समीकरण बदल दिए हैं। मेलिंकव की गुम होती इस निशानी को भी अब हम सब की तरह शांति के दिनों का इंतज़ार है।
हमारे आख़िरी पड़ाव में वह बिल्डिंग थी, जो अपनी भव्यता के साथ इसलिए भी प्रसिद्ध है कि उसे लेनिन का प्रथम स्मारक होने का गौरव प्राप्त है। इस भवन के लकड़ी के विशाल भव्य द्वार के दाहिनी तरफ लेनिन का सुनहरे रंग का लगभग ५० सेमी व्यास का सुनहरा मेडल-सा लगा है। इस भवन के निवासियों ने २१ जनवरी १९२४ को लेनिन की मृत्यु की ख़बर मिलने पर इसे ढालना शुरू कर दिया था और लगभग एक महीने में यह मेडल-सी प्रतिमा तैयार हो गयी थी। आधिकारिक तौर पर कोई स्मारक उसके काफ़ी बाद ही बना होगा क्योंकि देश क्रांति के बाद की उथल-पुथल से गुज़र रहा था और उसके सामने अब नए नेता के चयन का सवाल खड़ा था।
यह सैर थी तीन घंटे की, जिसमें साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी तय हुई और सैलानियों के सामने इतिहास के लगभग साढ़े तीन सदियों के पन्ने खुले। पिचातनिकव गली की ऊँचाई से नेगलींका नदी के पार बसी बस्ती और उसमें स्थित गिरजाघरों के गुम्बदों का सुन्दर दृश्य दिखलाई देता था, जो आधुनिक फ़ैशन की बनी काँच की ऊँची इमारतों ने छिपा दिया है। आधुनिकता और विकास की क़ीमत कई बार अतीत के उत्कृष्ट नमूनों को गँवा कर चुकानी पड़ती है। इतिहास के पन्ने पाठ तो पढ़ाते रहते हैं, हम उससे कितना सीखते हैं यह हम पर निर्भर करता है।
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–प्रगति टिपणीस