1. समंदर : एक प्रेमकथा

उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं…”

दादी सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उसकी ओर देखती रहीएकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।

लम्बे कदम बढ़ाते, करीबकरीब भागतेसे, हम एकदूसरे की ओर बढ़ते…  बड़ा रोमांच होता था।

यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ  गयीं।

बच्ची ने पूछा—“फिर?”

फिर क्या! बीच में समंदर होता थागहरा और काला…!”

समंदर!”

हाँदिल ठाठें मारता था , उसी को कह रही हूँ।

दिल था, तो गहरा और काला क्यों ?”

चोर रहता था दिल मेंघरवालों से छिपकर निकलते थे!”

आप भी?”

“…और तेरे दादा भी।

फिर?”

फिर, इधर से मैं समंदर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समंदर सोख जाते थे हम; और एक जगह जा मिलते थे।

सारा समंदर!! कैसे?”

कैसे क्याजवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”

मतलब क्या हुआ इसका?”

हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।

दादी ने हलकीसी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।

***

2. नदी को बचाना है

इस समय हम जहाँ से गुजर रहे हैं, किसी समय वहाँ नदी बहा करती थी।

सच में?”

और यह रास्ता जिस बड़े रेनगसतान में जाकर मिलता है, जानती हो वह क्या था?”

क्या?”

समुद्र।

…!”

हम उन दिनों साइबेरिया से आया करते थे यहाँ। चहलकदमी किया करते थे नदी के किनारेकिनारे दूर तक। पास के खेतों और जंगलों में रात बिताते थे और…”

खेत और जंगल भी थे यहाँ!!!”

बहुतकुछ था जो अब नहीं है। आँखों में भर लो इस दृश्य को; अगली बार आओगी तो उँगलियों में उँगलियाँ फँसाकर घूम नहीं पाओगी इस तरह। धरती की सतह को लील चुके होंगे जहरीले रसायन।

तब?”

स्पेस सिटी में रह रहे होंगे लोग, जीवजंतु, सब। छोटेछोटे कैप्सूल्स में बंद होकर तैरा करेंगे अकेले। बिना उसके, धरती के वायुमंडल में प्रवेश करते ही गल जाया करेगी काया।

ओह, नहीं।

सुनो प्रिया! लोग अगर गर्भ में ही मारते रहेंगे नदियों को। बहने नहीं देंगे उनमुक्त। तो सोचोबचाखुचा सागर भी जिएगा किसके लिए? वह नहीं बचेगा तो बादलों से वंचित रह जाएगा आकाशजहरीली हवाएँ कर लेंगी उस पर कब्जा। नदियों को बचाना होगा गर्भ में नष्ट होने से, बचाना है अगर धरती को जैविक युद्ध से।

***

3. मुर्दों के महारथी

गड़े मुर्दे उखाड़ने की प्रेक्टिस हमारे दल के हर शख्स को होनी चाहिए। बड़ा मजा आता है।

सिर्फ प्रेक्टिस? शऊर भी तो होना चाहिए।

शऊर की फिक्र की, तो उखाड़ लिया मुर्दा बाल भी नहीं उखड़ पाएगा उसका।

शऊर की फिक्र नहीं की, तो जनाब…  मुर्दा समूचे शहर को खा जाएगा कब्र से निकलकर।

यहीयही तो मजा है इस धंधे का। कीर्तन थोड़े ही कराना है उससे।

***

4. बुधुआ

आइए, खाना खाइए बाबू साहब।

खाओखाओ, लंच टाइम का मजा लो। मैं तो भाई कोठी के भीतर बैठूँगा थोड़ी देर। लू के थपेड़े अपन से बर्दाश्त नहीं होते।

“…!”

अच्छा, एक बात बता बुधुआ…”

दो पूछिए बाबू साहब!”

भाई, ये ईंटें ही ढोयी हैं उम्रभर या प्यार भी किया है कभी?”

किया तो नहीं; लेकिन…”

लेकिन क्या?”

हो गया था लड़कपन में…!”

जिससे हुआ, उसे जताया भी कभी, या…?”

जताया भी और बताया भी; लेकिन…”

लेकिन क्या?”

प्यार था बाबू साहब, शादी में तब्दील नहीं हो पाया कमबख्त।यह बरगद देख रहे हैं?”

हाँ!”

बस इसी की तरह बढ़ताफैलता रहा बालबच्चेदार हो ग्या हूँ, लेकिन रहता उसी के साये में हूँ। लू का दूरदूर तक नामोनिशान नहीं। इतनी ठंडी ब्यार देता है किआत्मा हरी रहती है। 

***

5. रुका हुआ पंखा

पापा बड़े उद्विग्न दिखाई दे रहे थे कुछ दिनों से। कमरे में झाँककर देखते और चले जाते। उस उद्विग्नता में ही एक दिन पास खड़े हुए; पूछा, “बेटी, ये पंखा क्यों बंद किया हुआ है?”

ठंड के मौसम कौन पंखा चलाता है पापा!” मैंने जवाब दिया।

हाँ, लेकिन मच्छर वगैरा से तो बचाव करता ही है।वह बोले, “ऐसा कर, दो नम्बर पर चला लिया कर।

उन्हीं की वजह से पूरी बाँहों की कमीज, टखनों तक सलवार और पैरों में मौजे पहनकर पढ़ने बैठती हूँ।समझदारी जताते हुए कहा, “ये देखो।

फिर भी…” पंखा ऑन कर रेग्युलेटर को दो नम्बर पर घुमाकर बोले, “मंदामंदा चलते रहना चाहिए।

उस दिन से कंधों पर शॉल भी डालकर बैठने लगी।

आज आए तो बड़े खुश थे। बोले, “तेरे कमरे के लिए स्पिलिट . सी. खरीद लिया है। कुछ ही देर में फिट कर जाएगा मैकेनिक। पंखे से छुट्टी।

ऑफ सीजन रिबेट मिल गयी क्या?” मैंने मुस्कुराकर सवाल किया।

जरूरत हो तो क्या ऑफ सीजन और क्या रिबेट बेटी।उन्होंने कहा, “खरीद लाया, बस।

उसी समय . सी. की डिलीवरी गयी और साथ में मैकेनिक भी।

दोतीन घंटे की कवायद के बाद कमरे की दीवार पर . सी. फिट हो गया।

एक काम और कर दे मकबूल!” पापा मैकेनिक से बोले, “सीलिंग फैन को उतारकर बाहर रख दे।

उसे लगा रहने दो साब।मकबूल ने कहा, “. सी. के बावजूद इसकी जरूरत पड़ जाती है।

जरूरत को मार गोली यार!” पापा उससे बोले, “इसे हटाने के लिए ही तो . सी. खरीदा है।

क्यों?”

आजकल के बच्चों का कुछ भरोसा नहीं हैपता नहीं किस बात पर…!” कहतेकहते उनकी नजर मेरी नजर से टकरा गयी।

तो यह बात थी!!! एकाएक ही मेरी आँखें उन्हें देखते हुए डबडबा आईं।

जिगर का टुकड़ा है तू।तुरंत ही खींचकर मुझे सीने से लगा वह एकदम सुबकसे पड़े, “चारों ओर से आने वाली गरम हवाओं ने भीतर तक झुलसाकर रख दिया है बेटी। रुका हुआ पंखा बहुत डराने लगा था…”

मकबूल ने उनसे अब कुछ भी पूछनेकहने की जरूरत नहीं समझी। अपने औजार समेटे और बाहर निकल गया।     

***

6. मजहब

तू अंधा।

तू महाअंधा।

तेरा पूरा खानदान अंधा।

तेरा आसपड़ोस, गाँव, शहर, पूरा प्रांत अंधा।

तेरी पार्टी अंधी, पार्टी का नेता अंधा।

तेरा धर्म अंधा, धर्म की पैरवी करने वाला अंधा।

धर्म को अंधा बताता है कमीने? तेरी तो… ”

तेरी तो… ” 

***

7. चशमदीद

कत्ल के समय तुम कहाँ थे?”

वहीं था।

वहीं! मतलब, कत्ल की जगह?”

जी।

तुमने क्या देखा?”

वह छुरा लेकर आया और फच्से मेरे सीने में घोंप दिया!”

फिर?”

उसकी इस हरकत पर मुझे हँसी गयी और अगले ही पल…!”

डरो मत। क्या हुआ अगले ही पल? खुलकर बताओ।

हुजूर, अगले ही पल वह जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर तड़पा और ठंडा पड़ गया! सच कहता हूँमैं तो सिर्फ हँसा था…!

***

8. अकेला कब  गिरता है पेड़

अब से कुछ साल पहले की बात है।

छोटीछोटी बदरियों के साथ मझोले आकार का एक बादल आसमान से गुजर रहा था। जमीन पर अपने कुनबे के साथ खड़े पेड़ ने उसका हालचाल पूछना तो दूर, ऊपर को निहारा तक नहीं। पत्तियों और टहनियों समेत नीचे ही देखता रहा।

पेड़ इतना भी बेलगाव हो सकता है! उसने सोचा नहीं था।

अभी, कुछ ही समय पहले, खासी चहलपहल थी यहाँ। पत्तियाँ हवा से खेल रही थीं या हवा पत्तियों से, अनुमान लगाना कठिन था। चिकनी पत्तियों और कोंपलों के बीच से निकलकर चंचल और चपल बच्ची बनी हवा ऐसे भाग रही थी कि रोमांचित हो वे किलकारियाँ भर उठतीं। जब तक सामान्य होतीं, हवा फिर निकलती। पेड़ की टहनीटहनी बच्चियों के इस खेल से खुश थी।

और तभी

दादा कहते थे—‘मुसीबतें कहकर नहीं आतीं।और हम उनसे पूछते थे—‘दादा, तब तो खुशियाँ भी कहकर नहीं आती होंगी।लेकिन, दादा हमारे सवाल पर ध्यान देकर, अपनी ही बात दोहराते रहते थे। पोतों की बात सुनना ही उन्होंने अपने दादा से सीखा था। दूसरे, हमारेजैसा सवाल उन्होंने उनसे कभी किया भी नहीं होगा। हिम्मत नहीं जुटा पाये या दिमाग नहीं दौड़ा पाये, पता नहीं।

और तभी, खेलती हवा एकदमसे ठिठक गयी। पत्तियों का किलकना रुक गया। टहनियाँ जड़वत् हो गयीं।

नीचे, छोटेबड़े सभी पेड़ों के तनों पर निशान लगाने वाले जुटे थे।

आरियाँ और कुल्हाड़ियाँ गाड़ी से उतारी जाने लगी थीं।

यहाँ मल्टी यूटिलिटी स्पोर्ट कॉम्लेक्स बनाने को मंजूरी मिली है’—पेड़ की टहनियों ने, पत्तियों ने, हवा के झोकों ने, सबने सुना। ऊपर से गुजर रहे बादल का तो रंग ही काला पड़ गया।

आखिरी बार अपनी सहेलियों से मिल आओ मेरी बच्चियो! अगले साल तो कंकरीट का जंगल ही यहाँ मिलेगा।भरे गले से वह बदरियों से बोला।

यकीन मानो, उस दिन पानी नहीं बरसा था; लेकिन पेड़ जब धराशायी हुआ, उसकी पत्तीपत्ती, टहनीटहनीकोरकोर भीगी थी। हवा, पत्ती, बदरीसब उसी के साथ मर गये थे।     

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-बलराम अग्रवाल

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