चंदा मामा दूर के
-रेखा राजवंशी
आज मेरा जन्मदिन है।
बर्थडे नहीं बल्कि वह दिन, जिस दिन मैं अपनी माँ की कोख से जन्म लूंगा। माँ और पापा बहुत खुश हैं, घर में दादा दादी मेरे जन्म की प्रतीक्षा कर रहे हैं। कुछ महीने पहले माँ ने अल्ट्रासाउंड करा लिया था। तो उन्हें मालूम है कि उनके बेटा होने वाला है। उनको ही नहीं घर के सभी सदस्यों को यह पता है कि आज मैं यानि कि उनका इकलौता बेटा, खानदान की संपत्ति का वारिस पैदा होने वाला हूँ। मैं भी तो पैदा होना चाहता हूँ न। माँ के गर्भ में नौ महीने से बंद पड़ा हूँ, एक पिंजरे में कैद पंछी की तरह। और इतने दिन इस बंधन में रहकर मैं भी आजाद होने के लिए छटपटा रहा छटपटा रहा हूँ। आखिर मैं भी तो दुनिया देखना चाहता हूँ। हंसना चाहता हूँ खुलकर, रोना चाहता हूँ चिल्ला कर और मैं गुस्सा भी तो होना चाहता हूँ, और गुस्से में वह सब चीजें फेंकना चाहता हूँ जो मुझे पसंद नहीं है।
यूं तो मेरे पैदा होने की ड्यू डेट कल थी, लेकिन पता नहीं क्यों मां को दर्द ही नहीं हुए। डॉक्टर आज का इंतजार कर रहा है। एक दिन और प्रतीक्षा करके माँ को अस्पताल जाना पड़ेगा। डॉक्टर कहता है कि दर्द पैदा करने के लिए वह कुछ गोलियां देंगे और अगर फिर भी दर्द नहीं हुआ, तो ऑपरेशन करके मुझे बाहर निकाला जाएगा। ठीक है किसी भी तरह से पैदा होऊं पर मुझे इस अंधे कुंए से मुक्ति तो मिलेगी। अभी तक तो इतनी मजबूरी है कि माँ जो खाती है वही मुझे खाना पड़ता है, जो पीती है, वही मुझे पीना पड़ता है। मेरी इच्छा होती है कि मैं कुछ ठंडा और मीठा खाऊं जैसे आइसक्रीम। लेकिन माँ है न, उसे चाय ही पसंद है। यही हाल फलों का है, मुझे अंगूर बहुत पसंद हैं और माँ को अंगूरों से बड़ी नफरत है। सिर्फ यही नहीं हमारी संगीत की पसंद भी सर्वथा अलग है। माँ रोने वाली ग़ज़लें सुनती है जबकि मेरा मन नाचने का होता है। पर भला ग़ज़लों पर कोई कैसे नाच सकता है? दादी तो बिलकुल पुरातन पंथी हैं। जाने कहाँ-कहाँ के भजन गाने की कोशिश करती हैं, न सुर, न राग, न धुन। मन करता है कि किसी तरह ये बेसुरा राग बंद कर दूँ। पर मेरी फ़िक्र किसको है? कभी-कभी गुस्सा आ जाता है कि जब हमारी पसंद बिलकुल अलग है, तो मैं यहाँ पैदा ही क्यों हो रहा हूँ? ऐसे घर में जहाँ मेरी पसंद का कुछ होगा ही नहीं, वहां जन्म लेने का क्या फायदा? ऐसे प्रश्न मेरे मन को मथते रहते हैं।
गुस्से में मैं अपने छोटे छोटे मुक्के हवा में फेंकता हूँ, या अपनी लातें मारने की कोशिश करता हूँ। माँ तब ज़ोर से चिल्लाती है, कम से कम संगीत तो बंद हो ही जाता है। दादी भी दौड़ कर आतीं हैं। माँ प्यार से मेरे ऊपर हाथ फेरती है, या कभी कहती है – ‘दुष्ट। इतनी लातें मत चला। माँ मर जाएगी तो तुझे पालेगा कौन?’
मैं सच बताऊँ, मैं मां के पेट के अंदर बंद रह कर इतना थक चुका हूँ कि मुझ पर माँ की इन बातों का कोई असर नहीं होता। भला बताइये यह जीना भी क्या जीना है? नौ महीने से बंद हूँ आखिर मैं। और यहां सिर्फ अंधेरा है या तरह तरह के शारीरिक यंत्रों की आवाज आती है। जो कभी खाने को पचाकर खून में बदलते हैं या फेफड़े में ऑक्सीजन लेने और कार्बन डाईऑक्साइड निकालते हैं। पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, कंकाल तंत्र आदि न जाने कितने तंत्रों के बीच घिरा बैठा हूँ मैं। और बैठ भी कहाँ सकता हूँ? सारा शरीर तोड़ मरोड़ कर इतनी छोटी सी जगह फिट होना पड़ रहा है मुझे। पिता को देखता हूँ, वे लम्बे चौड़े बलिष्ठ से लगते हैं। काश माँ की जगह उनके शरीर में पलता। थोड़ी बैठने, उठने की जगह तो मिलती। पर ये पापा हैं न, सारे दिन दुकान पर रहते हैं। वो मेरा ख्याल क्या रखते? मैंने देखा है पार्टियों में सिगरेट और शराब खूब चलती है। धुंए से मेरा दम घुटने लगता है। शराब की बदबू असह्य हो जाती है। शुक्र है माँ मुझे लेकर बाहर आ जाती हैं। फिर लगता है माँ के अंदर रहना ही बेहतर है। पिता तो कई बार नशे में ‘टल्ली’ हो जाते हैं। ‘टल्ली’ कैसा विचित्र शब्द है न? अरे मुझे कैसे पता लगता। दादी गुस्से में कह देती है ‘क्यों इतना पीते हो? पार्टी में ‘टल्ली’ होना ज़रूरी नहीं है।’ अब जाने क्यों ये शब्द मुझे बहुत अच्छा लगा और मेरे दिमाग में बैठ गया। माँ जो भी कहती है, पिता जब भी चिल्लाते हैं, तो सबकी बातें सुनता हूँ मैं। चिल्लाना मैंने पिता से ही सीखा है। पर मेरी आवाज़ कोई सुन नहीं सकता।
शायद गाली देना मैंने दादा से सीख लिया है। वो रिटायर्ड पुलिस इंस्पेक्टर हैं। रिटायर होने के पहले ही रिश्वत के पैसों से उन्होंने मेरे निकम्मे पर सुन्दर पिता के लिए एक बिज़नेस खरीद लिया था। जब वे अपने कर्मचारियों या घर के नौकरों से गुस्सा होते हैं, तो छाँट छाँट कर मोटी मोटी गालियां देते हैं। कभी-कभी तो मुझे कान बंद करने पड़ते हैं। पर सच बताऊँ मैं ये सब अपने दिमाग में संभाल के रख रहा हूँ। एक दिन मुझे भी तो चिल्लाना पड़ेगा न। मैं ही तो दादा के जमाए और पिता को विरासत में मिले बिज़नेस का वारिस होने वाला हूँ। न जाने मेरा सीना गर्व से क्यों चौड़ा होने लगता है। मैं क्या किसी से कम हूँ? मैं ज़रूर किसी दिन अपने दादा और पिता को पीछे छोड़ दूंगा। फिर सोचता हूँ मुझे काम करने की क्या ज़रुरत है? जब ये सब मेरे लिए ही है तो काफी है। मैं तो बस बैठकर खाऊंगा।
न जाने क्यों मुझे बिना किसी बात हंसी आ जाती है, और जाने कैसे रोकते – रोकते मेरी पॉटी निकल जाती है। मेरी पॉटी मेरे शरीर से चिपक गई है। अब मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ। मुझ पर बेहोशी तारी होने लगती है। न जाने क्यों मैं निष्क्रिय सा होने लगता हूँ।
तभी माँ चौक कर उठ जाती है। मेरे ऊपर हाथ फेर कर देखती है। फिर घबरा के पिता को हिला के उठाती है – ‘उठो जल्दी। गाड़ी निकालो। मुझे अस्पताल जाना होगा। मुझे हमारे बेटे के दिल की धड़कन सुनाई नहीं दे रही।’
आनन-फानन हम अस्पताल पहुँचते हैं। माँ बदहवास हो रही है। पिता चिंतित हैं। दादी माला जप रही है, और दादा डॉक्टर के सामने गिड़गिड़ा रहे हैं – ‘किसी तरह बचा लो बच्चे को। जितने पैसे लगें ले लो।’
डॉक्टर कह रहे हैं – ‘तुरंत ऑपरेशन करना होगा। नहीं तो बच्चा नहीं बच पाएगा। माँ को भी खतरा है।’
सच कहूं तो मुझे भी डर लग रहा है। डॉक्टर माँ का पेट काटेगा और मुझे बाहर निकाल लेगा। पर कहीं मैं मर गया तो? मेरी तो सारी हसरतें मिट्टी में मिल जाएँगी। क्या होगा मेरे सपनों का? मैं अपने ऊपर शर्मिंदा होने लगता हूँ। आखिर इतनी ज़ोर से हंसने की भी आवश्यकता ही क्या थी? एक बार पैदा हो जाता तो खूब ठहाके लगा कर हँसता। अपने पिता पर, दादा पर, दादी पर और पूरी दुनिया पर। कितने पागल हैं जब पैसे होते हैं तो स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते। जब बीमार होते हैं तो कहते हैं ‘मेरे सारे पैस ले लो बस मेरी जान बचा दो।’ क्या ज़रुरत थी इस तरह पॉटी कर देने की? पेट में ज़हर फैला देने की? मैं तो अभी पैदा ही नहीं हुआ पर मेरी माँ की जान का तो खतरा हो गया न। अभी तो मैंने दुनिया में देखा ही क्या है?
नहीं …नहीं… मैं इस तरह मरना नहीं चाहता। डॉक्टर ने माँ को ऑपरेशन टेबल पर लिटा दिया है। उनको एनेस्थीसिया देकर बेहोश कर दिया गया है। वे उनका पेट काटने की तैयारी कर रहे। मुझे जाने क्यों, रोना आने लगता है। वे अपना हाथ माँ के पेट की तरफ बढ़ाते हैं। उनके हाथ में छुरी है। मैं डर जाता हूँ – ‘अरे नहीं, ऐसा मत करो दुष्टों। मुझे मार डालोगे क्या?’
मन तो करता है डॉक्टर को दादा से सुनी भद्दी भद्दी गलियां दे डालूं, पर चुप रह जाता हूँ ।
पर कोई मेरी बात सुन नहीं पा रहा है। मैं किसी तरह जगे रहने की कोशिश करता हूँ। माँ बेहोश है, अब डॉक्टर उसके ऊपर मशीन चला रहे हैं। लगता है माँ का पेट काट दिया गया है। मैं घबरा रहा हूँ। अचानक मुझ पर हवा आने लगती है, बाहर बहुत तेज रौशनी भी दिखाई देती है। मैं … मैं … डर के मारे और भीतर छिप जाना चाहता हूँ। पर वे मुझे खींच रहे हैं, बड़ी निर्दयता से। सीनियर डॉक्टर कह रही हैं ‘फोरसेप लाओ’ वे मुझे सर से खींचने की कोशिश कर रहे हैं और और अचानक मुझे जोर से सर पर चोट लग जाती है। सीनियर डॉक्टर चिल्ला रही है – ‘संभाल के निकालो। उसके दिमाग में चोट लग सकती है।’ मैं डर जाता हूँ, मुझे कुछ बात समझ आती है, कुछ नहीं आती, पर मैं बाहर निकलना ही बेहतर समझता हूँ। अब वो मुझे मुलायम से कपडे में लपेट के साफ कर रहे हैं। मेरी पीठ पर कोई जोर जोर से मार रहा है मैं घबराकर रोने लगता हूँ। मेरे सिर की चोट पर ड्रेसिंग कर दी जाती। उधर माँ के पेट की सिलाई कर दी गई है। उसे ऑक्सीजन लगा दी गई है।
नवजात शिशुओं की इंटेंसिव केयर यूनिट में शीशे के छोटे से बक्से में मुझे बहुत ध्यान से रख दिया जाता है। मैं चारों तरफ देखता हूँ, मेरी तरह के ढेर सारे बच्चे दिखाई देते हैं। इनमें से कुछ प्रीमच्योर पैदा हुए हैं, कुछ बहुत कमज़ोर हैं। वहां की गरमाई में मैं थोड़ा बेहतर महसूस करता हूँ।
कुछ दिनों बाद मुझे और माँ को घर ले आया जाता है। डॉक्टर कह रहा है
‘बच्चे का ध्यान रखो, कोशिश करो गिरे नहीं। बच्चे और तुम्हारी जान बच गई यही क्या कम है। पर सर पर चोट लगी है। यदि कोई भी असामान्यता दिखाई दे, तो डॉक्टर को दिखाना।‘
पापा के साथ कार से हम घर आते हैं, पूरे घर को दादी ने साफ किया है, द्वार पर आरती उतारकर मेरा स्वागत किया जाता है। दादी मेरी नज़र उतार रही है। सब खुश हैं। मेरे स्वागत में हिंजड़े भी ताली बजा बजा कर नाच रहे हैं। पापा ने उन्हें बहुत पैसे दिए हैं। बुआ भी आईं हैं, सब मुझे देखना चाहते हैं। मैं एक बार तो अपने आप को वी आई पी समझने लगता हूँ। मेरे पैदा होने के डेढ़ महीने बाद घर में हवन पूजन किया जाता है। पूरे घर की शुद्धि हो जाने के बाद अब मैं अक्सर माँ के आंचल में बैठा सब कुछ टुकुर-टुकुर देखता हूँ। अब मैं जाने क्यों पहले की तरह सारी बातें समझ नहीं पाता। भूख लगती है तो रोता हूँ, सु सु, पॉटी आने पर भी रो – रो के माँ को बुलाता हूँ।
लो अब देखते देखते मैं एक साल का भी हो गया। मैं अभी तक चलना तो दूर खड़ा भी नहीं हो पाता। माँ की बातें समझ नहीं पाता, कुछ बोल नहीं पाता, मेरा दिमाग पता नहीं कहाँ रहता है? माँ मेरे लिए चिंतित रहती है। पिता को अक्सर कहते सुना है – ‘यह मेरी तरफ देखता क्यों नहीं? मुझे देख कर हंसता क्यों नहीं? यह कैसा बच्चा पैदा किया है तुमने?’
माँ उन्हें तसल्ली देती है बड़ा होकर ठीक हो जाएगा। पर मैं कैसे ठीक होता? मेरे दिमाग में जाने क्या क्या चलता। थोड़ा और बड़ा हुआ तो सबको समझ आ गया कि मुझमे कुछ असामान्यता है। माँ मुझे लेकर डॉक्टर के पास जाती। कभी स्पेशलिस्टों के चक्कर लगाती। तीन साल के होते न होते दादा और दादी को भी पता लग गया कि उनके खानदान का वारिस नार्मल नहीं है। डॉक्टर ने माँ को बताया कि मुझे बौद्धिक अक्षमता (इंटेलेक्चुअल डिसाबिलिटी)।
‘देखो, कैसा पागल बच्चा पैदा किया है इसने’ एक बार माँ के पीछे दादी को कहते सुना तो विश्वास ही नहीं हुआ। यूँ ही माँ पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया और उसकी गोदी में जाके छिप गया।
जाने क्यों एक दिन अपनी दादी को परेशान देख मुझे हंसी आ गई। उसने मुझे मुड़कर देखा तो उसका पैर मुड़ गया और वो गिर गई। मुझे तो मज़ा आ गया। मैं खूब हँसा और बस्स … हँसता चला गया। उन्होंने चौंक कर मुझे देखा और पूछा-
‘मुझ पर क्या हंस रहा है रे ! मैं तो तेरी वजह से हंसी का पात्र पहले से ही बन गई हूँ।‘
मैंने उनकी बात सुनी तो मुझे और भी ज़ोर से हंसी आने लगी। मैं सच में अजीब था। जब लोग घर में बैठते तो मुझे बाहर जाना होता। जब वे खाना खाने बैठते तो मुझे टॉयलेट की ज़रुरत हो जाती। जब वो टी वी देखना चाहते तो मुझे कार्टून देखने होते। अब मैं पांच साल का था पर उम्र बढ़ते-बढ़ते मैं शायद सबके ऊपर बोझ बनने लगा था। सब मुझसे बचते सिवा माँ के।
पर मैं तो बहुत खुश था। बारिश में देर तक भीगते रहना और झूले पर झूलते रहना मुझे पसंद था। घंटों कुर्सी या मेज के ऊपर नीचे कूदते रहने में जो मज़ा था, वो क्लासरूम में बैठकर पढ़ाई करने में कहाँ था। स्कूल जाता भी तो यूँ ही बैठा रहता। पर हाँ अपनी टीचर से डरता था मैं।
मेरी पसंद का खेल था छोटी सी रस्सी या धागे को पकड़ कर घंटों खेलना । कभी उसके सहारे मैं चाँद पर चला जाता, कभी लगता वो मेरे घोड़े की लगाम है और मैं उसे सरपट भगा रहा हूँ। कभी वो मेरी कार बन जाता, कभी मेरे कुत्ते की रस्सी। मैं जितना उन्मुक्त था, खुश था उतना ही घर वाले परेशान थे। सब मेरी मर्ज़ी पर था, जब जी चाहे हँसता, जब मन करता गाने लगता, जब जी चाहे चिल्लाता, खिलौने उठाकर फेंकता, और कभी-कभी जब मेरी बात कोई नहीं समझता तो रोने लगता।
अब मैं सात साल का हो गया हूँ। रात को मैं माँ के पास ही अपने छोटे से बिस्तर पर सोता हूँ। जाने क्यों रात को जब माँ पापा से बात करतीं या पिता माँ के बाल सहलाते तो मेरी आँख खुल जाती। एक रात जब मेरी नींद खुली तो कुछ आवाज़ें आ रहीं थीं। मैं घबरा गया, मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की कि क्या पापा माँ को मार रहे हैं? या क्या माँ रो रहीं हैं? पर माँ का इस तरह का स्वर पहले मैंने कभी नहीं सुना था। बाकी तो कुछ देख नहीं पाया पर पापा माँ के गले में बाँहें डाले थे। मैं जाने क्यों अपनी आँखें ज़ोर से बंद कर लेता हूँ और सोने का बहाना करता हूँ।
अक्सर अगले दिन तक मैं सब कुछ भूल जाता हूँ और अपनी दुनिया में खो जाता हूँ । कभी घर के बाहर चीटियों को जाते आते देखता हूँ, कभी किसी गड्ढे से कोई कीड़ा निकाल के उसे देखता रहता हूँ । उसे अपने डिब्बे में बंद कर लेता हूँ । कभी किसी डंडी से बारिश से नर्म पड़ी ज़मीन कुरेद के किसी केंचुए को निकल लेता हूँ।
मेरी टीचर चाहती है कि माँ मुझे डॉक्टर को दिखाए। डॉक्टर ने मुझे कुछ दवा दे दी है। उसे खाते ही मैं शांत हो जाता हूँ । कभी-कभी तो कुछ काम करने लायक भी नहीं रहता। मेरी दुनिया रेत के किले की तरह भरभरा के गिर जाती है। पर घर में सब खुश लगते हैं । माँ भी अब अधिक मुस्कुराने लगी है। माँ मेरे पास मेरा खाना लेकर आ रही हैं, मुझे गोदी में बिठा के प्यार से कह रही हैं, ‘अनु तुझे पता है, तेरा छोटा भाई आने वाला है।
मैं कुछ समझ पाता हूँ, कुछ समझ नहीं पाता हूँ । पर अचानक जाने क्यों मुझे लगता है, माँ मुझसे छिन जाएगी। मैं रोने लगता हूँ उसका हाथ छुड़ाकर भागने की कोशिश करता हूँ।
माँ ने मुझे प्यार से सहलाती हैं, वो जैसे खुद को ही समझा रही हों – ‘बहुत फ़िक्र थी कि मेरे बाद तुझे कौन संभालेगा? कौन रखेगा तेरा ख्याल? अब तेरा भाई होगा, तेरा अपना भाई। वो हमारे बाद तेरे फ़िक्र करेगा। तेरी ज़रूरतें पूरी करेगा। कम से कम कोई तो तेरा अपना होगा न दुनिया में।’
कहके माँ ने मेरे माथे पर चुम्मी देती हैं। मेरे गाल को सहलाती हैं। जाने कैसे उन्हें खुश देख मुझे अच्छा लगता है और शायद इसीलिए एक बार फिर मैं माँ को देख फिर ज़ोर से हंस पड़ता हूँ । माँ अपनी धुन में वही लोरी गा रही हैं जो मेरे जन्म के पहले गाती थी – चंदा मामा दूर के, पुए पकाए बूर के’ और मेरी ऑंखें कई दिन बाद नींद से बंद होने लगीं हैं, और मैं जैसे चंदा मामा की सैर को निकल जाता हूँ मीठे पुओं की तलाश में। और उनकी गोदी में लेटे-लेटे ही जाने कब सो जाता हूँ।
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