एक पतंग का आत्ममंथन
-अदिति आरोरा
एक महीन अदृश्य डोर से बंधी, दो पतली डंडियों का एक कंकाल और उस पर रंग-बिरंगी पोशाक, आकाश की ऊँचाइयों को छूने की महत्वाकाँक्षा लिए अपने स्वरूप पर इठलाती, बलखाती एक स्वछंद पतंग को मैं हवा के साथ खेलते देख रही थी। अचानक उसका संतुलन कुछ डगमगाने लगा, धीरे-धीरे वह नीचे उतारी जाने लगी परंतु कुछ ही समय में वापस अपने पीछे एक पुछल्ला लगवाकर फिर से आकाश को छूने लगी।
न जाने क्यों इस पतंग से मेरी कुछ आत्मीयता सी हो गई और मुझे इसके खेल को देखने में आनंद आने लगा। यह हवा को चीरती, मदमस्त उड़ती, फिर डगमगाती, नीचे उतरती और एक नया पुछल्ला अपने पीछे लगवा आती। कभी पोशाक में छिद्र हो जाता तो एक चिप्पी भी लगवा आती और पुनः अपनी लंबी पूँछ लिए गर्व से आकाश में इधर-उधर घूमने लगती।
अचानक ज़ोर से हवा चली और यह पतंग दूसरी पतंग से उलझ बैठी। दूसरी पतंग भी उसी की तरह लंबी पूँछ लिए थी। दोनों बहुत देर तक अपने को बचाने और दूसरे को काटने का प्रयास करती रहीं। मैं अपनी श्वास रोके उनके इस युद्ध को देख रही थी कि कौन विजयी होगा परंतु दोनों का ही भाग्य अच्छा था, हवा के प्रवाह से किसी तरह एक दूसरे से अलग हो गईं और अपनी-अपनी दिशा में आगे बढ़ गईं।
आकाश में ये दो ही नहीं बल्कि और भी बहुत सी पतंगे थीं। अचानक एक और पतंग आई और इस रंग-बिरंगी पतंग से उलझ बैठी परंतु यह फिर से बच कर निकल गई। अपने को आने वाले संकट से बचाती मेरी यह आत्मीय पतंग थोड़ी देर और उड़ती रही, परंतु अब जैसे उसके अंदर इतनी स्फूर्ति नहीं रही थी, पोशाक में भी कुछ बड़े छिद्र हो गए थे और शायद उसकी डोर भी अब कमज़ोर हो चुकी थी। उसकी यह स्थिति देख ही रही थी कि अचानक डोर टूट गई। वह अपना संतुलन खो, पृथ्वी की ओर जाने लगी और जहाँ से ऊपर उठी थी वहीं जाकर समाप्त हो गई।
उसकी पोशाक तार-तार हो चुकी थी, पुछल्ला उसकी देह से टूट अलग पड़ा था, तभी दो बच्चे आए कि शायद उसमें प्राण अभी शेष हों परंतु उसकी दशा देख उसे उठाकर पास में जलती हुई अग्नि में फेंक कर चले गए और हो गया एक पतंग का सारा खेल ख़त्म।
इतना सा ही तो जीवन है पतंग का, जन्म हुआ, सुंदर पोशाक पहनी, ऊँचाइयों को छुआ या छूने की कोशिश करती रही और फिर औरों से उलझते-सुलझते, हवा के थपेड़े सहते हुए वापस मिट्टी में जा गिरी।
उस पतंग को श्रद्धाँजलि देकर मैं घर जाने को वापस मुड़ी तो एक विचित्र सा अहसास हुआ कि अग्नि के मध्य यह पतंग नहीं जैसे मैं स्वयं जल रही हूँ। अभी तक जो क्षण भंगुर जीवन का खेल देख रही थी वह पतंग का नहीं स्वयं का ही देख रही थी।
मनुष्य का जीवन भी तो ऐसा ही है – शरीर को एक निश्चित आकृति प्रदान करने के लिए कुछ करीने से जुड़ी हुई अस्थियों का कंकाल, उस पर असंख्य कोशिकाओं से बनी मानव की पोशाक और पीछे नाम, रिश्तों, जाति, धर्म, देश, पद, प्रतिष्ठा और न जाने क्या-क्या लंबे पुछल्लों के साथ आकाश को छूने की महत्वाकाँक्षा, कभी गिरना, कभी उठना, कभी औरों से उलझना, कभी दूसरों को काट कर आगे जाना और कभी स्वयं कट जाना, कभी अपनी पोशाक की चिकित्सा करा चिप्पियाँ लगवाना और अंत में एक दिन कमजोर हुई श्वासों की अदृश्य डोर से कट वापस मिट्टी में मिल जाना। लोग आते हैं, दुःख प्रकट करते हैं, चिता तक ले जाते हैं और फिर श्रद्धाँजलि देकर वापस चले जाते हैं और हो जाता है एक पतंग की भाँति खेल ख़त्म।
मेरी चेतना वापस लौटी तो देखा पतंग जल कर राख हो चुकी थी और अग्नि भी समाप्त हो गई थी। मैंने पलटकर आकाश में देखा बहुत सी पतंगे अभी भी उड़ रही थीं, उस रंग-बिरंगी पतंग के स्थान पर भी एक नई रंग-बिरंगी पतंग आ चुकी थी। आकाश में कुछ भी नहीं बदला था सब खेल वैसे का वैसा चल रहा था।
मेरे मस्तिष्क में विचारों का मंथन चलता जा रहा था कि क्या वह पतंग मैं ही थी जिसका अंत होते हुए मैंने देखा, क्या मनुष्य और कागज़ की पतंग में कोई अंतर नहीं, मेरी मृत्यु के पश्चात भी कोई खेल नहीं रुकेगा, शायद किसी और के द्वारा मेरी रिक्तता भी भर जाएगी। क्या यह कंकाल, यह माँस-मज्जा की पोशाक, ये लंबे पुछल्ले ही मेरी वास्तविकता हैं या वह अदृश्य डोर ? और या कुछ और जो उस डोर को पकड़े हुए है?
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