सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की लघु कथाएँ
1. आजादी
आजादी के अवसर पर पापा के ऑफिस में स्वतंत्रता–पर्व के साथ एक पारिवारिक मिलन का भी आयोजन किया गया था।
पत्नी स्कूल–टीचर होने के कारण अपने स्कूल में व्यस्त थी। इसलिए पापा के साथ आयोजन में कार्तिक को जाना पड़ा।
ऑफिस में प्रवेश करते ही एक कोने में, जहाँ से जीना शुरू होता था, वहां की कुछ दीवारें पान की पीकों से लाल हुई पड़ी थीं।
कार्तिक को थोड़ी–सी तीखी गंध भी आई।उसकी नाजुक नाक में सुरसुरी होने लगी।
“पापा, ये क्या है ? आपके ऑफिस की कुछ दीवारें इतनी गंदी क्यों है?” कार्तिक से पूछे बिना रहा नहीं गया।
पापा ने उसकी बात को अनसुना करते हुआ कहा, “कार्तिक सम्भल कर, प्रोग्राम पहली मंजिल पर है। हमें जीना चढ़कर ऊपर जाना है।”
“पापा! बताइये ना ये दीवारें इतनी गंदी क्यों हैं?” कार्तिक ने जिद पकड़ ली।
इसके पहले कि पापा कुछ उत्तर देते, एक अंकलनुमा व्यक्ति आए और अपने मुंह में भरा सारा कचरा वहीं पिच्च से उड़ेल दिया।
दीवार और भी ज्यादा गंदी हो गई। कार्तिक ने मुंह बनाया। उसे उबकाई होने लगी। वह इतना ही कह पाया, “ये कितने गंदे अंकल हैं। अपने ही ऑफिस को गंदा कर रहे हैं। इन्हें इतना तो पता ही होगा कि गंदगी से बीमारियां फैलती हैं।“
“चुप करो, कार्तिक! ऐसा नहीं कहते।“
“पापा इन अंकल को आपके ऑफिस से निकाल दिया जाना चाहिए। टीचर ने बताया है कि गंदगी और कहीं भी बिकने वाला खाने का मिलावटी सामान हर बीमारी की जड़ होती है।“
“कार्तिक बेटा! अब चुप भी करो,” पापा ने फिर से कहा, “जल्दी ऊपर चलो, तुम्हें आजादी वाली पोयम भी सुनानी है।“
“नहीं पापा! पहले तो इन अंकल को आजादी का मतलब बताना पड़ेगा।“
इतना कहकर पापा की बात पर ध्यान दिए बिना, कार्तिक ने उन अंकल के करीब जाकर कहा, “अंकल ये कैसी आजादी है कि आप अपने ही ऑफिस की दीवार को गंदा कर रहे हैं जबकि इसी ऑफिस में आपको सारा दिन बिताना होता है। ऐसे तो आपके साथ और लोग भी बीमार पड़ सकते हैं। सॉरी बोलिये और वादा कीजिये कि अब से आप इस तरह अपने ऑफिस में ही नहीं, कहीं भी गंदगी नहीं फैलाएंगे। अगर फैलाएंगे तो आपको पनिशमेंट मिलनी चाहिए।“
पास खड़े दूसरे सभी लोग कार्तिक को शाबाशी की नजरों से देखने लगे। तभी एक दीदी ने आगे आकर कार्तिक को चॉकलेट के साथ एक तिरंगा भी दिया।
पापा ने भी गर्व से कार्तिक की ओर देखा और उन सीढ़ियां पर चढ़कर ऊपर आ गए, जहाँ आजादी का उत्सव मनाना तय हुआ था।
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2. शैंपेन
“रवि बाबू! जरा रुककर जाइएगा। कर्मवीर की फ़ाइल पर फिर से विचार करना पड़ेगा,” छुट्टी के वक्त साहब ने आवाज लगाई।
पांच बजने के बाद मोहन बाबू को लगता है कि उनकी कुर्सी में कांटें उग आए हैं जो उन्हें चुभने को तैयार हैं।वे किसी भी हाल में पांचबजे के बाद उस पर बैठना नहीं चाहते।“
“क्यों सर?” रवि बाबू ने सिन्हा साहब के केबिन में दाखिल होकर सवाल किया।
“आपको भी ध्यान नहीं रहा। ये केस उस कर्मवीर का है जो बहुत समय से अपना ख़ास बंदा है!”
खड़ूस सिन्हा सॉरी ख़ास फाइलें पांच बजे के बाद ही खोलता है।भले ही कमीना है; पर, इसकी खास बात यह है कि कोई भी सीक्रेट उनसे छिपाता नहीं है!”
“ठीक है, सर! कल इस फ़ाइल को फिर से देख लेते हैं।” रवि बाबू ने चेहरे पर किलचती हुई मुस्कान लाकर कहा। उनकी नजरें कलाई से लिपटी घड़ी पर जमीं थीं।“
“अरे नही, मेरे पास बैठो। इसे अभी निपटाना है। आज रात को तो मैंने उसे अपने घर पर ही बुला लिया है। नोट–शीट अभी तैयार नहीं हुई है। मामला कल पर गया तो डाइरेक्टर इस पर कुछ और लिख देगा। तब न कुछ तुम्हारे हाथ लगेगा और न ही मेरे।“
सिन्हा के इस रहस्योद्घाटन से रवि बाबू की किलचन थोड़ी कम हो गई। वे सिन्हा की इस बात के कायल थे कि जब कभी शेम्पेन के पैग की बात होती हैं तो उनमें उनका गिलास भी जरूर होता है।
“सबसे पहले तो पहले वाली नोटिंग–शीट निकालकर फाड़ दीजिये और नई कोरी शीट लगा लीजिये।“
“जी सर!”
“उस पर नोटिंग कर दीजिये कि पुलिया टूटने और उसके नीचे दो बच्चों के दबने का दोषी ठेकेदार कर्मवीर नहीं है क्योंकि पुलिया निर्माण के सुपरवीजन की जिम्मेदारी जे.ई. किशोर की थी। किशोर नशे का आदी है। उसने अपनी जिम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभाया। जांच में पाया गया है कि इस कारण ठेकेदार बेलगाम होकर घटिया सामग्री का इस्तमाल करवाता रहा, बनती हुई पुलिया की सही–सही तराई भी नहीं हुई। पुलिया कच्ची रह गई। जल्दी के चककर में कच्ची पुलिया पर पब्लिक ने जबरदस्ती ट्रैफिक खोल दिया जो टेम्पू के बोझ–तले भरभराकर गिर गई। दुर्भाग्य से उसी वक्त दो बच्चे भी अंडरपास के नीचे से गुजर रहे थे कि तभी यह दु:खद घटना घट गई। “
“पर इस बात पर यकीन कौन करेगा, सर?”
“रवि बाबू, बाल की खाल मत निकालो; अंतिम आदेश के लिए फ़ाइल डाइरेक्टर साहब के पास जाएगी। कर्मवीर उनका बरसों पुराना मुँह–लगा ठेकेदार ही नहींहै, अपितु अगले चुनावों के टिकट का दावेदार भी है। इसलिए सब ठीक ही होगा। आप वो करो जो समझाया गया है और कल की शैंपेन पक्की समझो।“
“जी सा’ब जी” कहकर रवि बाबू अपने काम में लग गए।
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3. फेवर
“तुमसे एक फेवर चाहता हूँ। बोलो कर सकोगी?”
“हाँ, कहो।“
“आज के बाद तुम मुझसे सम्पर्क करने की कोशिश नहीं करोगी।“
“ये क्या मांग रहे हो?”
“वही जो बरसों पहले मांग लेना चाहिए था।“
“क्या किया है मैंने! वो मांग रहे हो, जिसे दे भी दूँ तो क्या पता निभा भी पाऊंगीं या नहीं और अगर न निभा पाई तो तुम मुझ पर फिर से झूठ बोलने का दोष मढ़ दोगे।“
“क्या मैं जड़हूँ, पत्थर हूँ कि जब चाहे अपने अंतस्तल की मजबूरियों में तुम मुझे स्वीकार कर लो और अगले ही पल अपनी किन्हीं और मजबूरियों का हवाला देकर दुत्कार दो। चेतनारहित हूँ क्या, जो मुझ पर तुम्हारी किसी बात का कोई असर नहीं होता?”
“मत कहो ये सब। मुझे खुद ही नहीं पता लगता कि मैं क्या कर रही हूँ और क्या नहीं। तुम्हें अपना भी नहीं सकती और तुम्हारे बिना रह भी नहीं पाती। भले ही जानती हूँ कि मैं तुम्हें वो कुछ नहीं दे सकती जो तुम्हें मिलना चाहिए और तुम जब किसी गहरे अवसाद में खो जाते हो तो वह भी मुझसे सहन नहीं होता। यह सच है कि मैं तुम्हें कुछ भी कह लूँ; पर, मैं ही तुम्हें भूल नहीं पाती।“
“जो गलतियां अनजाने में हो जाती हैं, उनके परिणाम से बचने का उपाय तो ढूंढा जा सकता है, पर जो भूल पूरे होशोहवास में जानबूझ कर की जाती है, उसके दुष्परिणाम तो हमें भुगतने ही पड़ते हैं। अपनी टूटन को, मैं अब और अधिक नहीं सह सकता। अच्छा होगा कि हम दोनों एक–दूसरे से दूर हो जाएँ। लगातार कष्ट से अच्छा है, थोड़े समय का कष्ट सह लिया जाए। समय की धूल सारे रिक्त स्थान भर देती है। इसलिए, सिर्फ एक एहसान कर दो कि अबसे मुझसे सम्पर्क करने की कोई भी कोशिश नहीं करोगी।“
“चुप हो जाओ और अधिक परीक्षा मत लो मेरी! मेरे अंदर जितनी जगह तुम्हें मिली है, उसे ही स्वीकार लो; इससे मुझे मेरी जिंदगी के बाकी दिन नसीब हो जाएंगे। मेरा न सही मेरी बेटी संगीता का ही ख्याल कर लो। मुझे उसे भी बड़ा करना है। अगर इस दुनिया से असमय चली गई तो उसके जन्म का जिम्मेदार उसका बाप मेरे बाद उसका क्या ख्याल रखेगा, उस अनुमान से ही कांप जाती हूँ। जो व्यक्ति घर में सिर्फ होटल वाली सुविधाएँ पाने के लिए कदम रखता हो, उससे क्या उम्मीद करूँ?”
“इस तरह की बातें करके मुझे कब तक निरुत्तर करती रहोगी?”
“कुछ भी दोष दे लो पर यही मेरा सच है कि मैं तुमसे दूर भी नहीं जा सकती और तुम्हें वो भी नहीं दे सकती जो तुम्हें, मुझसे मिलना चाहिए। पर, तुमसे मन की बात भी करूँगी और जरुरत होगी तो सुनूंगी भी। तुम भी तो जानते हो कि तुमसे बात न करने की ठान भी लूँ तो तुम्हें भी कहाँ सुकून मिलेगा।“
उसके शब्द, उसके अंदर ही सिमट कर रह गए। वह अपनी जगह से एक इंच भी नहीं खिसक पाया।
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4. मार्गदर्शन
पिता की सारी आशाएं अपने पुत्र पर टिकी थीं। वे चाहते थे कि वह पोस्ट ग्रेजुएशन करे और फिर किसी अच्छी सरकारी नौकरी पर काबिज हो। क्योंकि सरकारी नौकरी सुरक्षितहोती है और समय के साथ वेतन भी बढ़ता रहता है।
उसने एमए कर ली।
पिता के मार्गदर्शन पर उसे पूरा भरोसा था, क्योंकि पिता स्कूल में शिक्षक थे और उनके मार्गदर्शन में बहुत से किशोरों ने जो भी व्यवसाय चुने, उसमें उन्हें सफलता ही मिली।
पोस्ट ग्रेजुएशन कर लेने के बाद पिता के कहे अनुसार, उसने सरकारी नौकरी के लिए आवेदन–पत्र भेजने शुरू कर दिए।
उसे जहाँ भी साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता, वह पूरी तैयारी के साथ जाता। पर, भाग्य उसका साथ नहीं दे रहा था।
धीरे–धीरे सरकारी नौकरी उसे एक सपना–सा लगने लगी। उसे निराशा ने घेर लिया। उसने पिता से कहा, “आजकल के जमाने में सरकारी नौकरी पाना बड़ा मुश्किल काम है, इसके लिए प्रार्थना–पत्र देते–देते मैं अब थक चुका हूँ। मैं किसी और काम की कोशिश कर लेता हूँ।“
पुत्र भले ही थक गया था; परन्तु, पिता के चेहरे पर थकान के कोई लक्षण नहीं थे। उन्होंने अपनी रणनीति बदल दी। उन्होंने बेटे को सलाह दी कि वह सरकारी विभागों के चपरासी के पद के लिए भी आवेदन शुरू कर दे। अनमने भाव से ही सही, बेटे ने वह भी शुरू कर दिया, साथ ही, उसने यह प्रस्ताव भी रखा कि पिता की तरह उसे भी सरकारी स्कूल का मास्टर बनने में भी कोई एतराज नहीं है।
पिता ने हामी भर दी।
अब उसके आवेदन सरकारी दफ्तरों के चपरासी और स्कूल की मास्टरी, दोनों के लिए जाने लगे।
भाग्य ने करवट बदली और प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हो गयीं।
उसे एक साथ दो नियुक्ति–पत्र प्राप्त हुए। पहला स्कूल के अध्यापक के पद का और दूसरा कचहरी में चपरासी का।
अध्यापक का पद पाकर उसकी ख़ुशी सातवें आसमान पर थी। उसने पिता से कहा, “कचहरी का चपरासी नहीं, स्कूल का अध्यापक बनकर मैं भी आपकी तरह समाज में बच्चों को बहुत कुछ नया दूंगा।“
पिता गम्भीरतापूर्वक बेटे की बात को सुनते रहे और जब बेटे का उत्साह शांत हो गया तो उन्होंने अपना निर्णय सुनाया, “बेटे हमारे ज़माने और अब के जमाने में बहुत फर्क है। अध्यापक के रूप में तुम भी आम आदमी की तरह हमेशा उपलब्धि और समृद्धि के आखिरी छोर पर खड़े मिलोगे। कचहरी के चपरासी का पद स्वीकार करो, वहां एक समृद्ध दिनचर्या तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है।“
उसने, हमेशा की तरह पिता की बात मानी और आज उसके पास वो सबकुछ है जिसका सपना पिता देखा करते थे।
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5. ससुराल
“हाँ मम्मी, जल्दी से बताओ! घर आने वाला है।” चलती कार में फोन की घंटी फिर से बज उठी।
“एक बात रह गई थी पर कोई बात नहीं, गाड़ी चलाते समय वैसे भी लम्बी बात नहीं करनी चाहिए। कल बता दूंगीं।“
“नहीं–नहीं मम्मी! फोन किया है तो बता ही दो, मैं गाड़ी साइड में लगा लेती हूँ।“
“बेटा! वैसे ही इतनी देर हो चुकी है, तुम्हारी सासू माँ क्या कहेंगीं कि ऑफिस से आने में इतनी देर कहाँ हो गई!”
“जाने दो ना, मम्मी। उनको देखूँगी तो हो चुका। अव्वल तो पूछेंगी नहीं, पूछा तो कह दूंगी कि ट्रैफिक जाम था, मम्मी जी!“
“फिर भी बिटिया! तुम्हें तो पता ही है कि लगभग रोज ही छुट्टी के दो घंटे बाद घर पहुंच रही हो। सुबह की तो मजबूरी है क्योंकि तुम्हे नौ बजे घर से निकलना होता है; पर, वे बुजुर्ग हैं बिटिया और सुबह के साथ–साथ रात के चूल्हे–चौके की भी सारी जिम्मेदारी उन्हीं के जिम्मे छोड़ना ठीक नहीं है।“
“मम्मी, क्या इसीलिए दुबारा फोन किया है। अगर यह बात है तो मैं फोन रखती हूँ और घर पहुंचकर आपकी समधन का चौका संभाल लेती हूँ। दिन भर ऑफिस में कम्प्यूटर में सर फोड़ो और रात को चूल्हे में अंगुलियां जलाओ। क्या इसीलिए आपने मुझे कम्प्यूटर इंजीनियर बनाया है?”
“सॉरी बिटिया! तू तो नाराज हो गई।मैं भी कभी–कभी बावली हो जाती हूँ। मैं तो ये कह रही थी कि तू मेरी बिटिया नहीं, मेरे लिए ईश्वर की ओर से दिया हुआ सबसे बड़ा तोहफा है। तेरे कारण मैं सेफ फील करती हूँ।“
“मैं जानती हूँ माँ! तुम्हारा बस चलता तो तुम मेरी शादी ही न करती। हमेशा अपने पास ही रखती।“
“बिट्टो! अपने पास रखने की सोचती तो मेरी जान को आदित्य जी के रूप में एक नगीना कैसे मिलता?”
“बस–बस माँ, आदित्य इतने भी अच्छे नहीं है कि तुम उन्हें अमूल्य घोषित कर दो।“
“इतनी जल्दी भूल गई; तू ही तो कहती थी कि या तो मेरी शादी आदित्य से कर दो नहीं तो मेरी शादी का सपना देखना भूल जाओ। मेरे पास आदित्य है तो मैं हूँ, नहीं तो मैं कुछ भी नहीं।“
“हाँ–हाँ याद है, माँ! पर, तुम जो भूल गई थी, वह बताओ।“
“बिट्टो! कल ऑफिस के बाद आदित्य जी के साथ कुछ देर के लिए आ जाओ।“
“मम्मी ! अभी परसों ही तो आए थे ? फिर से इतनी जल्दी?”
“बिट्टो, घर है तेरा! मन नहीं लगा, इसलिए कह दिया। नहीं आना चाहती तो न सही, जो तुझे ठीक लगे, वही करना।“
“ठीक है, देखती हूँ, माँ!”
“देखती हूँ मतलब?”
“मतलब कुछ खास नहीं, आदित्य से कहूंगी तो मम्मी जी को तो वे सेट कर लेंगे, पर उस घर में वो जो पापा नाम के जीव हैं ना, वे जरूर नाक–भौंह सिकोड़ेंगे।“
“बिटिया! मन में जो आया, सो कह दिया! आगे तेरी मर्जी।“
“ठीक है। करती हूँ कुछ। अब फोन रखती हूँ। आदित्य भी घर पहुंचते होंगें। भूख भी लग रही है मम्मी।“
उसने कार स्टार्ट की और घर की ओर चल पड़ी।
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6. दृष्टिकोण
दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि से लेकर शिक्षा–दीक्षा और अब नौकरी भी लगभग एक समान थी। अब तक के समान नक्षत्रों के स्वामी दोनों मित्रों ने आगे के रास्ते अलग कर लिए थे। जीवन के प्रति प्रतिबद्धता में दोनों के विचार जुदा–जुदा थे। ये बात अलग है कि दोनों को भगवान ने समान बौद्धिक स्तर दिया था.
पहला देश की सामाजिक और राजनीतिक दुर्दशा को लेकर देश के भविष्य के प्रति सशंकित था, वहीं दूसरे को देश प्रगति की ओर अग्रसर, एक शक्तिशाली राष्ट्र दिखाई देता था। वह देश के उज्ज्वल भविष्य के प्रति पूरी तरह आश्वस्त था।
पहला देश के लिए बढ़ती हुई आबादी को गंभीर चुनौती मानता था , वहीं दूसरा इसमें भी देश का चौतरफा विकास देखता था। जितने सिर, उतने पेट और उतनी ही हर चीज की मांग। मांग होगी तो सप्लाई भी होगी। बाजार फलेगा–फूलेगा।
पहले ने अपनी सोच के अनुरूप दो कन्याओं के पश्चात ही अपने बच्चों की संख्या पर अंकुश लगा दिया तो दूसरे ने पुत्र–प्राप्ति के लिए चार कन्याओं को जन्म देने वाली अपनी पत्नी को इस नश्वर संसार से सदा के लिए विदा कर दिया।
पहले का निराशावाद जहां चार इकाइओं के परिवार की नैया को पार लगाने को ही भारी मान रहा था, वहीं दूसरा अपने भरे पेट के साथ सकारात्मक दृष्टिकोण के आलोक में पुत्र–रत्न की प्राप्ति के लिए एक और पत्नी को ले आया।
समय की धारा के साथ, पहले ने गृहस्थी की अपनी नाव को किसी तरह पार लगाया, परन्तु दूसरा तो किसी जहाज पर सवार था और वह अपनी चार बेटियों को ऊँचें घरों में ब्याह करने के साथ–साथ पुत्र–रत्न प्राप्त करने भी सफल हो चुका था।
पहला उसकी सफलता के रहस्य को जीवनभर नहीं समझ पाया।
दूसरे ने अपनी सफलता का राज अपने अंत समय में खोलते हुए बताया, “अरे यह और कुछ नहीं, सिर्फ उसकी व्यवहारकुशलता का परिणाम था जो वह यह सबकुछ इतनी आसानी से कर पाया। जिंदगी में जिस तरह का वातावरण मिले, उसी के अनुसार ढल जाओ। यही सफलता की गारंटी होती है। कोई ले रहा है तो उसे लेने दो और जब तुम्हें मौका मिले तो चूको मत।“
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7. बेगैरत
“रूबी! कल कुछ जल्दी आ जाना।“
“दीदी! जल्दी मतलब?”
“यही कोई सुबह आठ बजे के आसपास ! “
“सर्दी में इतनी जल्दी? आपको कहीं जाना है क्या? रोज तो आप दो–ढाई बजे निकलती हैं?”
“सवाल–जवाब मत कर। तू बस, ये बता कि आ जाएगी या नहीं? अगर नहीं तोमैं कोई और इंतजाम करती हूँ। मुझे नौ बजे निकलना है और पता नहीं कि शाम को कब लौटूं! इसलिए, आठ बजे के बाद मत आना।“
“आप नाराज मत होइए। ठीक है, आ जाऊंगीं। रेशमा आंटी और सरला दीदी का काम बाद में निपटा दूंगीं।“
“ठीक है, भूलियो मत।“
“दीदी! कह दिया तो कह दिया, भूलने का क्या मतलब है! पर, एक बात आपको भी बतानी पड़ेगी।“
“वो क्या?”
“यही कि आप कौन–से ऑफिस में जॉब करती हैं? ये कौन–सा ऑफिस है जो दोपहर बाद दिन में तीन बजे शुरू होता है और देर रात तक चलता है? दूसरे सब लोगों के ऑफिस तो दिन में ही अपना काम निपटाते हैं। रात तो आराम करने के लिए होती है, ना दीदी।“
“बहुत बोलती है। तू अपने काम से काम रख। हर ऑफिस की अपनी–अपनी जरूरतें होती हैं और उसी के हिसाब से टाइम तय होता हैं।“
“दीदी! मैं तो इसलिए पूछ रही थी कि मेरी बड़ी बेटी ने इंटर के बाद कालेज जाने लगी है और वो पढ़ाई के साथ–साथ कुछ काम भी करना चाहती है। मुझे दिनभर खटते देखकर बोलती है कि कालेज से आने के बाद कोई छोटी–मोटी जॉब कर ले तो मुझे भी दो पैसे का सहारा हो जायेगा। उसके बाप का तो आपको पता ही है कि अपनी सारी कमाई या तो शराब में उड़ा देता है या फिर रात के अँधेरे में न जाने किन बे–ग़ैरत औरतों को दे आता है।“
नाजिमा की हिम्मत नहीं हुई कि तेज चाल से बर्तन मांझते उसके हाथों को रोककर बताये कि मेरे काम या ऑफिस की सुध लेगी तो मुझे दीदी की जगह किसी बदजात का दर्जा देने में देर नहीं करेगी। वह इतना ही कह सकी, “रूबी! क्यों किसी को बे–ग़ैरत या ग़ैरत वाली कहकर अपनी जबान खराब करती है? क्या पता, वे औरतेंतेरे आदमी जैसों के बे–ग़ैरतपने की वजह से ही बे–ग़ैरत बनीं हों? फिर भी तू चिंता मत कर मैं अपने बॉस से तेरी बेटी के लिए किसी अच्छे काम की बात जरूर करूंगीं। अगर वहां बात न भी बनी तो भी बहुत से अधिकारी मुझे जानते हैं, सारे अपने पैर की जूती सरीखे हैं। किसी से भी कह दूंगी, कोई–न–कोई तो काम दिलवा ही देगा।“
रूबी ने अपने पल्लू से अपने सर को सलीके से ढका और हसरत–भरी निगाहों से उसकी ओर देखते हुए बोली, “दीदी! मेरी बेटी और मैं भी आपका ये एहसान जिंदगीभर नहीं भूलेंगी।“
“बातें मत बना, कल ठीक आठ बजे आ जाना। क्या पता, कल ही किसीग़ैरत वाले से तेरी बेटी के लिए काम की बात बन जाये?“
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– सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा