जोगिन्द्र सिंह कंवल के उपन्यास ‘करवट’ की समीक्षा

-सुभाषिनी लता कुमार

सामाजिक-राजनैतिक जागृति और 20 वीं सदी के नागरिक होने के नाते अपने अधिकारों को लेकर भारतीयों के संघर्ष को जोगिन्द्र सिंह कंवल ने अपने उपन्यास ‘करवट’ में प्रस्तुत किया है। यह भारतीयों की दूसरी पीढ़ी का अध्याय है जो अन्याय, शोषण के विरुध विद्रोह करते हुए समाज में अपने अधिकारों के लिए जागरूकता लाने का प्रयास करते हैं। वहीं शोषक वर्ग भारतीय मजदूरों के संगठन को कुचलना चाहते हैं। लेकिन यूवा मन में विद्रोह की आग भड़क उठती है और अवसर पाकर चिंगारियाँ बाहर निकलने लगती है तब समाज एक “करवट” लेता है।

         ‘करवट’ जिसका सरल शब्दों में अर्थ है पलटा खाना, एक मोड़ से दूसरे मोड़ में परिवर्तित हो जाना। लेखक ने करवट को इस प्रकार परिभाषित किया है- “एक अप्रिय स्थिति में परिवर्तन लाने और दमघोंटू वातावरण में जीने की लालसा से किया गया आन्दोलन ही करवट है।”  इस उपन्यास की कथा का संबंध फीजी में घटित वर्ष 1920 की ऐतिहासिक हड़ताल से है। यह हड़ताल महँगाई, कम वेतन, और मजदूरों के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ एक आंदोलन था। इस हड़ताल के दौरान पुलिस और भारतीय मजदूरों के बीच भारी तनाव था और सेना तथा गोरे स्वयं सेवकों ने बन्दूक की नोक पर हड़ताल बन्द करवाई थी। भले ही किताब में कुछ विषय काल्पनिक है पर इसमें ज्यादातर लिखित घटनाओं का सही उल्लेख लेखक ने किया है।

          उन दिनों फीजी में अंग्रेज सरकारी वकील थे जो भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ने की बजाए अंग्रेज सरकार के हितैसी थे। इसलिए फीजी के भारतीय समाज को पढ़े-लिखे विश्वसनीय भारतीय लोगों की आवश्यकता थी जो मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ सके और उन्हें सही मार्ग दिखला सकें। फीजी के भारतीयों ने पं. तोताराम सन्नाढ्य के सहयोग से महात्मा गाँधी जी को पत्र लिखकर सहायता माँगी। इस कार्य के लिए देश भक्त डॉ. मनीलाल को चुना गया। डॉ. मनीलाल पेशे से एक वकील थे, उन्होंने मॉरिशस में भी प्रवासी भारतीयों के अधिकारों के लिए आंदोलन चलाया था। फीजी के भारतवंशियों ने डॉ. मनीलाल के रहने, आने-जाने और खर्चे के लिए 172 पॉउस इकट्ठे किये। सन् 1912 को डॉ. मनीलाल महात्मा गाँधी और पं. तोताराम सन्नाढ्य के अनुरोध पर मॉरिशस से फीजी आए। डॉ. मनीलाल ‘करवट’ उपन्यास के एक ऐतिहासिक पात्र हैं जिन्होंने फीजी के हिन्दुस्तानी समाज के अधिकारों के लिए कई आंदोलन चलाए थे।      

                            जोगिन्द्र सिंह कंवल ने ‘करवट’ में सामाजिक-राजनैतिक जागृति और अपने अधिकारों को लेकर भारतीयों के संघर्ष को प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में लेखक की प्रगतिवादी विचारधारा दृष्टिगोचर होती है। प्रगतिवादी साहित्य वह है जिसकी रचना मार्क्सवादी अथवा साम्यवादी विचारधारा को दृष्टिपथ में रखकर की गई हो। प्रगतिवाद वर्ग-वैषम्य को दूर कर, श्रमिकों तथा कृषकों की मंगल भावना से प्रेरित होकर पूँजीपतियों तथा शोषकों के विरुद्ध क्रांति का आह्वान करता है। ‘करवट’ फीजी के प्रवासी भारतीयों द्वारा अन्याय, शोषण के विरुद्ध विद्रोह तथा समाज में अपने अधिकारों के लिए जागरूकता लाने का आह्वान हैं। वहीं शोषक वर्ग भारतीय मजदूरों के इस संगठन को कुचलना चाहते हैं। लेकिन, युवा मन में विद्रोह की आग भड़क उठती है और अवसर पाकर जब चिंगारियाँ बाहर निकलने लगती है तब समाज एक करवट लेता है।

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