विज्ञान व्रत की ग़ज़लें
-एक-
मैं था तनहा एक तरफ़
और ज़माना एक तरफ़
तू जो मेरा हो जाता
मैं हो जाता एक तरफ़
अब तू मेरा हिस्सा बन
मिलना-जुलना एक तरफ़
यों मै एक हक़ीक़त हूँ
मेरा सपना एक तरफ़
फिर उससे सौ बार मिला
पहला लमहा एक तरफ़
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-दो-
वो मेरा चेहरा न हुआ
मैं भी शर्मिन्दा न हुआ
मैं उसका हिस्सा न हुआ
मुझको यह धोखा न हुआ
उसने जो सोचा न हुआ
वो मेरा रस्ता न हुआ
मैं उसकी भाषा न हुआ
तो मेरा चर्चा न हुआ
होने को क्या-क्या न हुआ
मैं ही बस अपना न हुआ
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-तीन-
वो सितमगर है तो है
अब मेरा सर है तो है
आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है
जो हमारे दिल में था
अब ज़बाँ पर है तो है
दुश्मनों की राह में
है मेरा घर है तो है
एक सच है मौत भी
वो सिकन्दर है तो है
पूजता हूँ बस उसे
अब वो पत्थर है तो है
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-चार-
मुझ पर कर दो जादू-टोना
एक नज़र ऐसे देखो ना !
इतने दिन में घर आये हो
घर जैसे कुछ देर रहो ना !
बादल हो तुम या ख़ुशबू हो
बरसो खुलकर या बिखरो ना !
ढूँढ़ न पाया ख़ुद को घर में
छान फिरा हूँ कोना-कोना
तुमसे ख़ुद को वापस क्या लूँ
रक्खो अब तुम ही रख लो ना !
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-पाँच-
जुगनू ही दीवाने निकले
अँधियारा झुठलाने निकले
ऊँचे लोग सयाने निकले
महलों में तहख़ाने निकले
वो तो सबकी ही ज़द में था
किसके ठीक निशाने निकले
आहों का अंदाज़ नया था
लेकिन ज़ख़्म पुराने निकले
जिनको पकड़ा हाथ समझ कर
वो केवल दस्ताने निकले
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-छ:-
ख़ामुशी मेरी ज़बाँ है
वो मगर सुनता कहाँ है
सामने हैं आप लेकिन
आप तक रस्ता कहाँ है
जानता हूँ दुश्मनों को
फिर मुझे ख़तरा कहाँ है
छोड़िए भी मुस्कुराना
दर्द चेहरे से अयाँ है
ढूँढ़ना क्या है तुझे अब
मैं जहाँ हूँ तू वहाँ है
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-सात-
या तो मुझसे यारी रख
या फिर दुनियादारी रख
ख़ुद पर पहरेदारी रख
अपनी दावेदारी रख
जीने की तैयारी रख
मौत से लड़ना जारी रख
लहजे में गुलबारी रख
लफ़्ज़ों में चिंगारी रख
जिससे तू लाचार न हो
इक ऐसी लाचारी रख
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-आठ-
मर मिटोगे
तो रहोगे
सच कहूँ तो
मान लोगे
भ्रम तुम्हें है
तुम बचोगे
मौन मेरा
कब सुनोगे
मुझमें देखो
तुम दिखोगे
अब बताओ
कब मिलोगे
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-नौ-
जब तू मिला
मैं खो गया
मैं जब रहा
तब तू न था
कुछ भी नहीं
तेरे बिना
अपने लिए
तू खुद बचा
सब तो मिले
बस तू न था
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-दस-
क्यों उनका मेयार जिऊँ
मैं अपना किरदार जिऊँ
मैं अपना किरदार जिऊँ
जीने के आसार जिऊँ
जीने के आसार जिऊँ
जब तक हूँ ख़ुद्दार जिऊँ
जब तक हूँ ख़ुद्दार जिऊँ
ख़ुद से इक तकरार जिऊँ
ख़ुद से इक तकरार जिऊँ
दोधारी तलवार जिऊँ
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-ग्यारह-
क्यों उनका मेयार जिऊँ
मैं अपना किरदार जिऊँ
मैं अपना किरदार जिऊँ
जीने के आसार जिऊँ
जीने के आसार जिऊँ
जब तक हूँ ख़ुद्दार जिऊँ
जब तक हूँ ख़ुद्दार जिऊँ
ख़ुद से इक तकरार जिऊँ
ख़ुद से इक तकरार जिऊँ
दोधारी तलवार जिऊँ
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-बारह-
मिटा सके जो रौशनी
बनी नहीं वो तीरगी
करूँ मैं क्या ये ज़िंदगी
मुझे न रास आ सकी
मिलो नहीं कि तुम कभी
ये शर्त तो कभी न थी
वो ख़ुशबुओं की बानगी
न फिर कभी मुझे मिली
हॅंसी तुम्हारी दूधिया
है याद मुझको आज भी
वो बात जो कि ख़ास थी
कभी बयाँ न हो सकी
न मैं रहा हूँ आज वो
बदल चुके हैं आप भी
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-तेरह-
मुझको अपने पास बुलाकर
तू भी अपने साथ रहा कर
अपनी ही तस्वीर बना कर
देख न पाया आँख उठा कर
बे-उन्वान रहेंगी वर्ना
तहरीरों पर नाम लिखा कर
सिर्फ़ ढलूँगा औज़ारों में
मुझको देखो तो पिघला कर
सूरज बनकर देख लिया ना
अब सूरज-सा रोज़ जला कर
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-चौदह-
मैं कुछ बेहतर ढूँढ़ रहा हूँ
घर में हूँ घर ढूँढ़ रहा हूँ
घर की दीवारों के नीचे
नींव का पत्थर ढूँढ़ रहा हूँ
जाने किसकी गर्दन पर है
मैं अपना सर ढूँढ़ रहा हूँ
हाथों में पैराहन थामे
अपना पैकर ढूँढ़ रहा हूँ
मेरे क़द के साथ बढ़े जो
ऐसी चादर ढूँढ़ रहा हूँ
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-पंद्रह-
आप कब किसके नहीं हैं
हम पता रखते नहीं हैं
जो पता तुम जानते हो
हम वहाँ रहते नहीं हैं
जानते हैं आपको हम
हाँ मगर कहते नहीं हैं
जो तसव्वुर था हमारा
आप तो वैसे नहीं हैं
बात करते हैं हमारी
जो हमें समझे नहीं हैं
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-सोलह-
गाँवों में जो घर होता है
शहरों में नम्बर होता है
जिसका अपना सर होता है
वो ही क़द्दावर होता है
पैर अगर धरती पर हों तो
बाँहों में अम्बर होता है
तुम जिसके भी हो दुनिया में
वो ही दुनिया – भर होता है
रहने दो ये परिभाषाएँ
घर का मतलब घर होता है
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-सत्रह-
वो मेरा हो जाए तो
इक ऐसा दिन आए तो
उसका जी बहलाने में
मेरा जी भर आए तो
जिससे नफ़रत करता हूँ
वो मेरा कहलाए तो
घर का मालिक अपने घर
मेहमाँ होकर आए तो
लम्हे-भर का क़र्ज़ कोई
जीवन-भर लौटाए तो
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-अठारह-
तपेगा जो
गलेगा वो
गलेगा जो
ढलेगा वो
ढलेगा जो
बनेगा वो
बनेगा जो
मिटेगा वो
मिटेगा जो
रहेगा वो
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-विज्ञान व्रत