हिन्दी साहित्य की विश्व में भारतीय संस्कृति को बढ़ाने में भूमिका
-परवीन लता
हमें ये जानना है कि संस्कृति का शब्दlर्थ क्या है? संस्कृति याने कि उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य संभवता प्रगतिशील प्राणी है, अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरंतर सुधारते रहता है। हर एक जीवन पद्धति, रीति-रिवाज़, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और अविष्कार जिसमें मनुष्य पशुओं के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, वही संस्कृति का अंग है।
संस्कृति से मनुष्य का मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके मनुष्य को संतुष्टि नहीं मिलती। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है लेकिन मन और आत्मा तो अतृप्त ही रह जाते हैं और इन्हें संतुष्ट करने के लिये मनुष्य की चेतना का विकास होता है, जो उन्नति करता है, वही संस्कृति है। संस्कृति का अंग, प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कलाएं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थानों और प्रथाओं का समावेश होता है। हम कह सकते हैं कि संस्कृति जीवन की विधि है जिस के आधार पर हम सोचते हैं और कार्य करते हैं। वे भाव व विचार जो हम एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। संस्कृति ही एक व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से, एक समूह को अन्य सभी समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से भी अलग करती है। आगे बढ़ते हुए अब हम देखेंगे कि किस प्रकार हिन्दी साहित्य, विश्व में भारतीय संस्कृति को बढ़ाने में भूमिका निभाती है।
हिंदी भारत से पनपती है लेकिन आज विश्व भर में बोली जाती है। इसी प्रकार हिंदी का आरंभिक साहित्य भी भारत के अवधी, ब्रजभाषा, मागघी, अर्ध मागधी, मारवाड़ी आदि भाषाओं के साहित्य से ही माना गया हैl हिंदी साहित्य की शुरुआत लोकभाषा कविता के माध्यम से हुई है जो अपभ्रंश में मिलता हैl हिंदी में तीन प्रकार के साहित्य मिलते हैं गद्य, पद्य और चम्पूl
गद्य, जो पढ़कर कही जाती हैl गद्य, जो गाकर कही जाती है, जैसे कविता; ये कलात्मक होती हैl तथा जो गद्य और पद्य दोनों में हो वो है चम्पू याने, मिश्रित काव्यl
हिंदी साहित्य के कई लेखक हैं जिनके लेख से भारतीय संस्कृति को पहचान मिली हैl अगर हम भागवत गीता की ओर देखें तो उपदेश यही है कि कर्म करो फल की इच्छा न करो, जितना भाग्य में होगा वही प्राप्त होगा, जो आज तुम्हारा है कल किसी और का होगाl तुम्हें सिर्फ कर्म करते रहना है और भारतीय संस्कृति में ये बहुत ही महत्व रखता है कि हमें किस प्रकार समाज में सभ्य तरीके से रहना चाहिएl
इसी प्रकार रामायण समाज को जीना सिखलाता है कि एक आदर्श राजा, एक आदर्श पुत्र, एक सभ्य पत्नी तथा एक आदर्शवादी समाज किस प्रकार सकारात्मक दृष्टि प्रदान करते हैंl परम्पराओं के संरक्षक महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों के माध्यम से बखूबी दिखाया गया है कि, प्राचीन मिथक और मूल्य, ऐतिहासिक और सामाजिक संरचनाओं के साथ-साथ, रीति-रिवाज और मान्यताओं में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैंl
फीजी में भी हिंदी साहित्य का निरंतर विकास हुआ हैl कुछ लेखको में शामिल हैं पंडित : सुखलेश बलि, प्रोफेसर बृजलाल, प्रोफेसर सुब्रमणि, प्रोफेसर सत्येंद्र नंदन तथा जे. एस. कंवलजी जिनकी लेख में भारतीय संस्कृति की झलक शामिल हैंl इन महान लेखको के कृतियां में भारत से फीजी आई गिरमिटियों की दशा यानी की उनका सफर, खान-पान, रहन-सहन, काम करने की दशा, उन पर हुए अत्याचार- यूं कहे जीवन संघर्ष झलकती हैl अपने धर्म से उनका लगाव जबकि गिरमिटिया पूर्वजों ने अपने साथ रामायण तथा अन्य ग्रन्थ लाए थेl भले ही वे अमानवीय परिस्थिति में अपनी मातृभूमि से बिछड़े थे लेकिन अपने धर्मग्रंथ साथ लेकर आए थे, जिनसे उन्हें जिंदगी जीते रहने की कलाएं सीखने को मिलती रहती थीl
एक गिरमिटिया श्री तोताराम सनाढय ने अपनी यात्रा वृतांत ‘फीजी में मेरे इकैस वर्ष’ में लिखा है, जिसमें एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, जीविकोपार्जन, शिक्षा तथा अन्य कई प्रासंगिक विषय के बारे में पढ़कर आज भी लोग अपनी संस्कृति को हृदय से लगाये रखे हैंl भाषाओं और बोलियों में विविधता प्रदर्शित करने के साथ-साथ साहित्य क्षेत्रीय पहचान भी प्रदान करती है।
स्थानीय कहावतें और लोकोक्तियों के उपयोग से संस्कृति सुलभ होती है। अन्य प्रभावशाली और आकर्षण तरीके जिनसे संस्कृति को बढ़ावा मिलता है और जो साहित्य के माध्यम से की जाती है वो हैं : पढ़ना और समझना- सांस्कृतिक विषयों, लोक कथाओं और इतिहास को उजागर करने वाले लेख की चर्चा करना।
अंत में भारतीय संस्कृति का मूल भाव है वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात् धरती ही परिवार है। भारतीय संस्कृति की अपनी अनूठी पहचान रही है, इसकी सबसे विशेष बात है- सदाचार, सच्चरित्र की शिक्षा।
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