युक्रैनी हिंदी-शिक्षण में कला-प्रेम का योगदान

-डॉ. यूरी बोत्वींकिन, युक्रैन

प्रत्येक देश का इतिहास कितना भी जाटिल और दुख-भरा क्यों न हो उससे राष्ट्रीय चेतना का एक गहरा जुड़ाव अवश्य रह जाता है… इतिहास के उन्हीं पीड़ादायक मोड़ों पर भविष्य के सुधारों और प्रगति के नींव स्थापित किए जाते हैं। भारत तथा युक्रैन दोनों के इतिहासों में एक लंबा औपनिवेषिक काल रहा है जिस से मुक्त होने के पश्चात हमारी राष्ट्रीय चेतनाओं में स्वतंत्रता-दिवस जैसे उत्सवों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इतिहास की उन्हीं कष्टदायक अवधियों का एक अपना सांस्कृतिक धरोहर भी बना रहता है जो कि हर प्रकार के यथार्थ को सकारात्मक और रचनात्मक ढंग से प्रेरणा तथा आत्मविकास के स्रोत में बदलकर आगे बढ़ने की मानव की यह दिव्य योग्यता दरशाता है।

युक्रैन में भारतीय सांस्कृतिक उपस्थिति की पहली झलकियाँ सोवियत काल में ही प्रकट होने लगी थीं जब भारत का सोवियत संघ से मैत्रिपूर्ण संबंध स्थापित हो गया था। तभी बड़े पैमाने पर औद्योगिक सहयोग और सांस्कृतिक आदान-प्रदान आरांभ हुआ था। मुझें याद है कि मेरे बचपन के समय सिनेमा-हॉलों में रूसी भाषा में डब्ड हिंदी चलचित्र ख़ूब चलती थीं और अत्यंत लोकप्रिय भी हुआ करती थीं।

जहाँ तक शैक्षिक स्तर पर हिंदी तथा भारत-विद्या के अध्ययन की बात है तो वह सब सर्वप्रथम सोवियत संघ की राजधानी मास्को, लेनिनग्राद (आज के संत-पिटर्बर्ग) और मध्य एशिया में स्थित उज़्बेकिस्तान की राजधानी तशकंत में होने लगा था। बाद में स्वतंत्र युक्रैन में भारत-विद्या तथा हिंदी की पढ़ाई का विभाग स्थापित करनेवाले उन्हीं सोवियत संस्थाओं में पढ़े युक्रैनी स्नातक थे जो मेरे अध्यापक भी रहे हैं। उन में थे स्वर्गीय डॉ. स्तेपान नलिवायको, जिन्होंने तशकंत और फिर लखनाउ विश्वविद्योलयों में पढ़ाई की थी, डॉ. कतेरीना दोव्ब्न्या (संत-पिटर्बर्ग विश्वविद्यालय तथा आगरा केंद्रीय हिंदी संस्थान), डॉ. व्लादा बेसेदिना (मास्को विश्वविद्यालय)। सन् 1995 में स्वतंत्र युक्रैन के तरास शेव्चेंको कीव राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में प्रथम हिंदी विभाग इन्हीं लोगों के सहयोग से खुला जिसके सर्वप्रथम विद्यारथी-दल में मैं भी था… अपने विभाग के सिवा दिल्ली केंद्रीय हिंदी संस्थान तथा ग्वालियर जीवाजी विश्वविद्यालय में पढ़ाई करके पिछले 20 वर्षों से युक्रैन में भारत-विद्या के प्रचार-प्रसार में लगा रहा हूँ उसी विभाग में पढ़ाते हुए जो कि 2007 में भारतीय दूतावास के सहगोग से “हिंदी भाषा एवं भारतीय साहित्य केंद्र” बन गया था। पिछले कई सालों से इसी संस्था का अध्यक्ष भी हूँ।

जहाँ तक आजकल हिंदी पढ़ने में युक्रैनी लोगों की रुचि का प्रश्न है तो मैं यह कह सकता हूँ कि रुचि बहुत है। फिर भी कुछ कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। यह नहीं कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा का प्रयोग-क्षेत्र बड़ा नहीं है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी लोकप्रियता कम है। फिर भी उन लोगों के लिए जो अपने मूल रूप से भारत या भारतीयों से जुड़े नहीं हैं हिंदी सीखने में अधिक व्यवहारिक अर्थ देख पाना काफ़ी कठिन होता है। इसलिए अधिकतर जो सीखते हैं तो भारतीय संस्कृति, कला या दर्शन के शौक से ही सीखते हैं। ऐसा नहीं है कि भारत के बाहर हिंदी बोलने वाला माहौल कम जगहों में मिलता है, उलटा आजकल भारतीय प्रवासी संसार के हर कोने में अपने अस्तित्व को बड़े शालीन और शांतिपूर्ण ढंग से घोषित कर रहे हैं और जहाँ भी बसें अपने साथ अपना संस्कार, परंपराएँ और धर्म लाने की उनकी क्षमता माननीय अवश्य है। लेकिन फिर भी औपचारिक संप्रेषण और सोशल मीडिया की मुख्य भाषा का दर्जा हिंदी को और देवनागरी लिपी को शायद ही दिया जाता है… कम से कम पिछले कई दशकों में तो यही स्थिति थी। आजकल तो उलटा लग रहा है कि हिंदी की स्थिति मज़बूत होती जानेवाली है जो कि हमारे छात्रों के लिए और हमारे लिए एक अतिरिक्त प्रेरणा बन गई है।

अभी तो सच यह है कि हमारे हिंदी विभाग के ऐसे केवल कई चुने हुए स्नातक छात्र हैं जिनको हिंदी की डिग्री प्राप्त होने के बाद इस भाषा का ज्ञान व्यवहारिक रूप से काम आया है। किंतु यह भी सच है कि हिंदी और भारत-विद्या पढ़ने के साथ हमें भारतीय संतुलित चेतना तथा उस सहज सनातन अध्यात्मिकता एवं रस-प्रियता की महक महसूस करने को मिलती है जो शायद हमारी अपनी संस्कृति में इतने विद्यमान रूप में नहीं बची है। और वैसे भी किस ने कहा कि हर शिक्षा के पीछे कोई व्यवहारिक या आर्थिक कारण होना आवश्यक है? कुछ ऐसे दीवाने लोगों की भी शायद आवश्यकता है जो संसार को यह साबित करने पर तुले हों कि वैश्विकरण तथा मानव जाति का विकास स्थानीय भाषाओं और संस्कृतियों के धीरे-धीरे मरते जाने के बिना भी संभव है और कि भाषाओं एवं संस्कृतियों की विविधता ही मानवीय समाज की शान का आधार बनाए रखती है।

हिंदी पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में हर कदम पर सांस्कृतिक परिचय होता रहता है। सबसे पहले श्रवण के अभ्यास बहुत ज़रूरी होते हैं क्योंकि हिंदी बोलना शुरू करने से पहले हिंदी को सुनकर समझना आवश्यक होता है। शुरू करने वालों के साथ हम हिंदी कार्टून देखते हैं (उदाहरण के लिए बच्चों के लिए बनाए हुए पंचतंत्र, रामायण और महाभारत के किस्से)। आगे जाकर जब हिंदी समझने की छात्रों की क्षमता बढ़ती जाती है तब कार्टूनों की जगह इसी तरह सिनेमा देखा जाने लगता हैं जिसका ऐसे भी बहुत छात्रों को पहले से शौक होता है। श्रवण के साथ-साथ पढ़ने और बोलने के अभ्यास किए जाते रहते हैं और उसमें बहुत गतिविधियाँ हो सकती हैं। उदाहरण के लिए शुरू में छात्र हिंदी बाल साहित्य की कहानियाँ पढ़ते हैं और फिर उनको सुनाकर प्रस्तुत करते हैं। अधिक पढ़े हुए छात्र इसी तरह बाल साहित्य की जगह पत्रिकाओं के निबंधों तथा वयस्क लोगों के लिए साहित्यिक रचनाओं का प्रयोग करते हैं। कई छात्र फिर हिंदी साहित्य की कुछ रचनाओं पर शोध कार्य भी लिखते हैं। इस प्रकार हिंदी भाषा के हर तरह के अभ्यासों के साथ-साथ कला और साहित्य से भी काफ़ी गहरा परिचय हो पाता है। भाषा के माध्यम से एक पूरी संस्कृति की शिक्षा प्राप्त की जाती है। हिंदी में बात करने के अभ्यास के लिए छात्रों को युक्रैन में रहने वाले भारतीय लोगों से मिल-जुलने का मौका दिया जाता है। युक्रैन में भारतीय राजदूतावास से कुछ लोग भारतीय सरकार की ओर से पढ़ाने भी आते हैं। इस प्रकार के संप्रेषण से भारतीय संस्कारों और भारतीय स्वभाव का हिंदी छात्रों को और अच्छा अंदाज़ा हो जाता है।

और हाँ, अनेक अवसरों पर हमारे यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं जिन में छात्रों को अपनी प्रतिभाएँ प्रकट करने का अवसर दिया जाता हैं। इन्हीं कार्यक्रमों में शौकिन हिंदी काव्य-पाठ, गाना या भारतीय नृत्य भी आजमा लेते हैं। बहुत छात्रों को थियटर में रुचि होती है जिसका रचनात्मक तथा शैक्षिक लाभ उठाकर हम कई हिंदी नाटक भी कर चुके हैं मंच पर!

तो जहाँ एक ओर से हिंदी सीखने के व्यवहारिक या आर्थिक लाभ के प्रश्न का उत्तर देना हमारे लिए अभी भी आसान नहीं होता है वहीं दूसरी ओर से हमारे हिंदी विभाग में जो छात्र पढ़ने आते हैं उनमें भारत की संस्कृति के बहुत ऐसे सच्चे शौकीन होते हैं जो अपने ही आत्मविकास के लिए हिंदी और भारत विद्या पढ़ना चाहते हैं और उनको पढ़ने के लिए प्रेरित करने में कोई समस्या नहीं होती है। ऐसे छात्र भी होते हैं जो यह आशा लेकर आते हैं कि भारत जैसे जल्दी तरक्की करने वाले देश की राष्ट्रीय भाषा निकटतम भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में अधिक प्रचलित हो जाएगी। उनकी यह आशा भी हम जितना हो सके जीवित रखते हैं। और, जैसा मैंने पहले भी कहा है, भारत की आधुनिक तरक्की को देखकर यह भी अब उतना कठिन नही लग रहा है। आर्थिक दृष्टि से किसी भाषा का ज्ञान लाभदायक हो या न हो, भाषा को आत्मविकास और चेतना के विस्तार से अवश्य जोड़ा जा सकता है। जीवन में सुख और सत्य खोजने वाली जवान पीढ़ी को एक धनी संस्कृति को सीखकर अपना दृष्टिकोण विस्त्रित करने के लिए अवश्य प्रेरित किया जा सकता है। और इसका एक बेहतरीन उदाहरण है हिंदी जिससे जुड़े साहित्य, नाट्य-कला, संगीत और सिनेमा में हम अक्सर जीवन के मुख्य प्रश्नों के उत्तर ढूँढ पाते हैं…

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