
जापानी राग-मिरवा
वेदप्रकाश सिंह (ओसाका विश्वविद्यालय, जापान)
इस समय जापान में बरसात का मौसम है। जून और जुलाई का महीना बरसात के ही नाम होता है। वैसे बारिश तो जापान में साल में कभी भी हो जाती है। और अक्टूबर से लेकर मई तक ठण्ड रहती है। उसके बाद गर्मी शुरू हो जाती है। लेकिन इस मौसम को वर्षा ऋतु माना जाता है। उसके बाद गर्मी की ऋतु आती है। यानी जून और जुलाई बरसात के ही महीने माने जाते हैं। अगस्त और सितम्बर गर्मी के महीने माने जाते हैं। पहले बरसात और फिर गर्मी। भारत से बिल्कुल अलग। भारत में पहले खूब तेज गर्मी और फिर राहत देने वाली बरसात होती है। लेकिन गर्मी तो तब भी बनी ही रहती है। उमस से निकलने वाला असूख पसीना आता ही रहता है। जापान में भी उमस का भयानक हाल है।
गर्मी और बरसात से बात इसलिए शुरू की क्योंकि गर्मी और बरसात में ही जापान में राग-मिरवा सुनाई देता है। गर्मी के आगमन की सूचना एक कीड़े से मिलती है। बिना इस कीड़े के जापान की गर्मियां अधूरी मानी जाती हैं। जापानियों के अनुसार इन महीनों में यह कीड़ा पूरे जापान की शांति भंग किये रहता है। जापान इतना शांत देश है कि गाड़ी का हॉर्न भी यहाँ कभी भूले-भटके ही सुनने को मिलता है। बसों और ट्रेनों में बोलना या हँसना मानो मना है। कहीं से कोई शोर सुनाई देता ही नहीं। घरों में भी ज्यादा शोर किया तो पुलिस को फोन करके पड़ोसी के खिलाफ शिकायत कर देते हैं। तेज आवाज में टीवी चलाना भी मानो पूरी तरह से मना है। यह समाज अपनी स्वच्छता और शांति के लिए तो जाना ही जाता है।
ऐसे में इन दिनों सुबह होते ही कॉक्रोच-जैसा लेकिन उससे थोड़ा बड़ा दिखने वाला एक कीड़ा पूरे जापान को गुंजायमान कर डालता है। वह दोपहर तक यूँही इतना तेज शोर करता है कि कई शांतिप्रिय लोगों को बड़ी तकलीफ होती है। अनेक जापानियों को बच्चे के रोने की प्यारी आवाज़ भी अप्रिय लगती है। ऐसे में आप खुद समझ सकते हैं कि कीड़े की तेज आवाज वाले दिन शांति पसंद करने वाले जापानियों के लिए कितने मुश्किल से गुजरते होंगे।
जिस कीड़े की बात हो रही है उसको जापान में ‘सेमी’ कहते हैं। अंग्रेजी में सिकाडा कहते हैं। जापान में इनकी लगभग तीस प्रजातियाँ मिलती हैं। दुनिया भर में सिकाडा पाए जाते हैं। भारत में भी इनकी दो सौ से ज्यादा प्रजातियाँ मिलती हैं। लेकिन जापानी समाज पर इस कीड़े का असर इतना है कि गर्मी से सम्बन्धित कोई भी बड़ी फिल्म, उपन्यास या कहानी इस कीड़े की आवाज के बिना अधूरी मानी जाती है। जापान में क्लासिक मानी जाने वाली मुरासाकी शिकिबू नामक लेखिका की प्रसिद्ध रचना ‘द टेल ऑफ़ गेंजी’ में भी इस कीड़े का जिक्र है। लेकिन भारत में शायद ही गोवा और कर्णाटक में पाए जाने वाले इस कीड़े का कहीं कोई जिक्र आया हो। जापान ही नहीं दुनिया में सबसे तेज आवाज निकालने वाले कीड़े का ख़िताब इसे मिला हुआ है। हिंदी में उसके लिए कोई नाम नहीं है। लेकिन मेरी पत्नी ने बताया कि कानपुर के पास उनके गाँव की बोली में इस कीड़े को मिरवा कहते हैं। और वह भी इसी तरह की तेज आवाज वहां रात में करता है। लेकिन जापान की शांति में मिरवा की तेज आवाज दिन में अलग से सुनाई देती है। और भारत की अनेक आवाजों में उसकी आवाज प्राय: ओझल रहती है।
यह कीड़ा जिसे हम मिरवा कह सकते हैं, वह ऐसी आवाज करता है जैसे किसी पेड़ में असंख्य चिड़ियाँ चहचहा रही हों। जिस साल मैं जापान आया तो मेरे जीवन में एक अनहोनी घटित हो गई। मुझे जून में भारत जाना पड़ा। और जब लौट कर जुलाई में वापस जापान आया तो राग-मिरवा शुरू हो चुका था। पहले मुझे यही लगा कि सुबह पक्षी चहचहा रहे हैं। थोड़ी देर में शांत हो जाएँगे। लेकिन यह आवाज ही सुनाई दे रही थी। पक्षी उड़ते या बैठे भी नहीं दिख रहे थे। उस दिन विश्वविद्यालय में हिंदी और उर्दू के अध्यापकों से इस अनाहत शोर के बारे में पूछा। उन्होंने इस कीड़े का नाम और विशेष परिचय दिया। उर्दू के एक बेहद खुशदिल, विनोदप्रिय और भारत में भी विख्यात प्रोफेसर सो यामाने जी ने कहा कि यह कीड़ा शांत जापानियों की नाक में दम किये रहता है। इस कीड़े को छोड़ और कोई जापान की शांति कम नहीं करता है। पाकिस्तान से आए उर्दू के प्रोफेसर मरगूब ताहिर हुसैन साहब ने एक मजेदार किस्सा सुनाया। ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी-उर्दू के साथ विश्व की अनेक भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं। जिस देश की भाषा पढ़ाई जाती है, वहां से एक प्रोफेसर भी ज़रूर बुलाया जाता है। उनके रहने के लिए जो घर दिए गए हैं, वहीँ पीछे एक छोटा-सा जंगल है। उस में भी मिरवा अपना राग बरसात में छेड़ते हैं। तो उन्होंने बताया कि किसी देश के प्रोफेसर इस शोर को पहली बार सुनकर इतना परेशान हुए कि घर के पीछे मौजूद पेड़ों के पास एक बड़ा डंडा लेकर पहुँच गए और सभी कीड़ों को चिड़ियाँ मानकर उन्हें उड़ाने की विफल और मनोरंजक कोशिश करने लगे। बाकी लोग उन्हें देख मुस्कुराते रहे।
हिंदी-जापानी भाषा का शब्दकोश बनाने वाले प्रो. अकीरा ताकाहाशी जी ने बताया कि यह कीड़ा जमीन के नीचे ही अपनी अधिकांश जिन्दगी गुजारता है। फिर मादा-मिरवा से प्रणय करने के लिए ही अनेक सालों के बाद दोनों ऊपर आते हैं। फिर जो आवाज हम लोग सुनते हैं, वह नर-मिरवा के रति-क्रिया के आमंत्रण की आवाज है। यानी राग-मिरवा प्रणय-राग ही है। मजेदार बात यह भी है कि इस तेज कान फोड़ने वाली आवाज़ को करते समय सभी नर-मिरवा अपने कान बंद कर लेते हैं। यह आवाज लगभग दो हफ्ते तक बदस्तूर चलती है। जापानी मानते हैं कि कोई माई का लाल इस राग-मिरवा को नहीं रोक सकता है। हम भारतीयों को यह आवाज़ इतनी तेज और परेशान करने वाली नहीं लगती है। इसलिए अपने लिए तो यह राग-मिरवा ही है।
मिलन के लिए की जाने वाली इस तेज आतुर-आवाज को करने और फिर अगली पीढ़ी को जन्म देने के बाद कुछ ही दिन तक मिरवा जीवित रहते हैं। अक्सर आवाज करते-करते ही फट कर मर जाते हैं। इनके फटने की आवाज को ‘सेमी-बम’ भी कहते हैं। मरे हुए मिरवों को मैंने सड़क पर, पेड़ों के नीचे फटे पड़े देखा है। यानी जीवन का सबसे ‘सार्थक’ समय जीने के बाद मृत्यु इनका इंतजार करती है। जीवन और मौत इतने पास-पास रहती हैं। नहीं तो जमीन में सुप्त अवस्था में ये कीड़े दस-पंद्रह साल तक जीवित पड़े रहते हैं।
जब ये शोर करते हैं तो लगता है जापान के पेड़-पौधों को आवाज़ मिल गई है। हम भारतीय संगीत और कुछ हद तक शोर पसंद माने जाते हैं। इसलिए मिरवों के शोर में मुझे संगीत ही सुनाई पड़ता है। जिसे मैं राग-मिरवा कहता हूँ। इसलिए कभी आप जापान घूमने आएँ तो गर्मी और बरसात में राग-मिरवा भी आकर सुनें।
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