एक प्रवासी की उलझनें

अब नहीं रहा
पहले जैसा असहनीय प्रवास
कुछ लोगों के लिए
न रहे पहले जैसे प्रवासी
प्रवास अब बन चुका है
एक जीवन स्थिति
जिसे कभी चाहकर
तो कभी मजबूरन
स्वीकार करते हैं असंख्य लोग
अपने घर-परिवार को छोड़
नए घरों और मुहल्लों में
बस जाते हैं असंख्य लोग
उनमें से सच में कुछ लोग
होते हैं हर पल त्रस्त अपने प्रवास से
बाकी अन्य रहते हैं मस्त अपने प्रवासी जीवन में
त्रस्त लोगों की मजबूरियाँ पहले जैसी भले न हों
मस्त लोगों के जीवन में कुछ भी नहीं ऐसा
जिस पर वे दुखी हो सकें
ऐसे में आती हैं कुछ उलझनें
कुछ परेशानियाँ
बहुत छोटी-छोटी
मामूली-सी
प्रवास में रहते हुए अपने देश-समाज की याद
और
अपने देश आने पर प्रवास के देश की याद
इन दो यादों के बीच झूलता
प्रवासी मन।

*****

-वेदप्रकाश सिंह

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