Version 1.0.0

साहित्य की प्रभाव क्षमता और हिन्दी समाज

डॉ० वरुण कुमार

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से आए,
एक हिलोर उधर से आए
हाहाकार महा छा जाए।

(बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’)

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।

(दुष्यंत)

पहला कवि विश्वास से लबालब है अपनी वाणी की प्रभाव-क्षमता के बारे में। उसे यकीन है कि कविता या साहित्य बाहरी जगत में उथल-पुथल मचा सकता है। इसलिए वह आह्वान करता है ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ…’। दूसरे कवि की पीड़ा और जद्दोजहद है कि कैसे वह अपने कहने में वो असर लाए कि पत्थर भी पिघल जाए। अपनी वाणी की प्रभाव क्षमता पर उसे भी संशय नहीं है। अगर संशय होता तो वह असर लाने की कोशिश ही नहीं करता। उसे शिकायत है तो सुननेवालों की संवेदनहीनता से, और चुनौती है तो उनसे जो उसके कहने के बेअसर होने के बारे में निश्चिंत हैं।

कवि-कलाकार की वाणी समाज को कितना आन्दोलित और परिवर्तित करती है इसपर तटस्थ और डिस्पैशनेट नजर डालने की जरूरत है। हिन्दी साहित्य का एक बड़ा तबका सामाजिक पक्षधरता का आग्रही रहा है। लेखक कवि अपने समाज के प्रति उत्तरदायी है और उसे उसके दुख-दर्दों की परवाह करनी चाहिए, ऐसा उसका दृढ़ विश्वास रहा है। किंतु वह समाज, वह वर्ग, वह मनुष्य जिसकी पीड़ा को वह वाणी देता रहा है वह स्वयं उसके प्रति कितना सजग और संपृक्त है यह देखना भी दिलचस्प होगा। आखिर साहित्य उन्हीं को तो ‘प्रभावित’ कर सकता है जो उसके पास जाते हैं, उसे पढ़ते-समझते हैं। मीडिया या समूह माध्यम की तरह वह जबरदस्ती अपनी घुसपैठ नहीं कर सकता। वह समाज जिसमें परिवर्तन लाने, क्रांति लाने के प्रयास कवियों-लेखकों द्वारा किए जा रहे हैं वह समाज स्वयं इन आवाजों को कितना सुनता और गुनता है, उसका उनके प्रति क्या रवैया रखता है, इसपर पर भी निगाह डालना आवश्यक है।

क्या साहित्य सामाजिक परिवर्तन ला सकने में समर्थ हो सकता है? इसका उत्तर हाँ में देना अत्यंत कठिन है। नाटक सबसे अधिक सामाजिक विधा है। रामगोपाल बजाज ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था कि मैं नाटक दर्शकों के मनोरंजन के लिए करता हूँ। मुझे इस बात का जरा भी मुगालता नहीं है कि नाटक खेलकर कोई सामाजिक बदलाव लाया जा सकता है। समाज कितना बड़ा है, और कितने कम लोग नाटक देखते हैं। और जो देखते हैं उनमें कितने और कितना उससे प्रभावित होते हैं वह इतना कम है कि उसके बल पर सामाजिक परिवर्तन की महत्वाकांक्षा करना दिवास्वप्न के बराबर है। यह स्थिति तो नाटक की है जिसमें पात्रों का दर्शकों से सीधा और सामूहिक रूप से संपर्क होता है। नाटक की अपेक्षा मुद्रित रूप में पहुँचनेवाली विधाओं, जैसे कविता, कथा निबंध आदि अधिक संख्या में पाठकों तक पहुँच पाती हैं। वहाँ भी स्थिति अधिक सुखद नहीं।

हिन्दी समाज साहित्य से सबसे कम संपर्क रखनेवाला समाजों में से है। विडम्बना की बात तो यह है कि जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार बढ़ता गया है वैसे वैसे यह समाज अपने साहित्य से कटता गया है। पुराने जमाने का अशिक्षित व्यक्ति भी अपने प्रतीक पुरुषों, तुलसी-सूर-कबीर-मीरा आदि से जुड़ा रहता था और बातचीत के दौरान उनकी पंक्तियाँ उध्दृत करता था। लेकिन जैसे जैसे अंग्रेजी चाल की पढ़ाई बढ़ती गई है वैसे वैसे उसकी भाषा से ‘देसी’ तत्व कम होते गए हैं और लोक तत्व भी क्षीण होता गया है और पुराने नए कवि-लेखक सभी से संपर्क टूटता गया है।

ऐसा पहले नहीं था। तुलसी का अपने समाज पर व्यापक प्रभाव है। कहा जाता है उनके समन्वयवाद ने शैवों-शाक्तों, रामभक्तों-कृष्णभक्तों, सगुण-निर्गुण का झगड़ा खतम कर दिया। कबीर-सूर-तुलसी-मीरा-नानक सभी अपने अपने समाजों को दिखने लायक हद तक प्रभावित करते हैं। और पीछे जाएँ तो संस्कृत या उसके पूर्व वैदिक काल में लिखी गई कृतियाँ अपने युग को न केवल प्रतिबिम्बित करती हैं, बल्कि उनका अपने समाजों पर व्यापक प्रभाव है। वे अपने युग की रुचि, संस्कार, प्रवृत्तियों आदि सबको दिशा व संस्कार भी देती हैं। उनकी वाणी की ऐसी प्रामाणिकता है कि लोग बातों में उसका हवाला देते हैं।

तब लेखक और उसके भाषाभाषी समुदाय में एक तादात्म्य था। आज वैसा समाज नहीं रहा। तब समाज एकात्म था – एक जैसा मूल्य-बोध, एक जैसी सबों को जोड़ती मिथक चेतना। भाषा के शब्द एक पवित्रता रखते थे। उसके अर्थ और अभिप्राय वक्ता और श्रोता के बीच पारदर्शी हुआ करते थे। अब वैसा समाज दुर्लभ है। अब लेखक और पाठक के बीच भी गहरी फाँक है। संप्रेषण का एक संकट उठ खड़ा हुआ है। भाषा दूषित हुई है। शब्दों के पीछे प्रयोक्ता के अभिप्राय बदल गए हैं। उदारण के लिए दलित शब्द केवल, जो शोषित-दलित के लिए आता था, आज वह एक वर्गविशेष का द्योतक बन गया है चाहे उस वर्ग का कोई सदस्य आर्थिक रूप से समृद्ध और सशक्त क्यों न हो। बाजार, राजनीति आदि ने भी भाषा के शब्दों के अर्थ को स्खलित किया है । आज लेखक और पाठक के बीच पहले की-सी पारदर्शिता संभव नहीं।

किंतु यह संकट आधुनिक युग में भाषा मात्र के साथ है और इससे विश्व की सभी आधुनिक भाषाएं ग्रस्त हैं – अंग्रेजी सहित। साहित्य, जिसमें शब्दों का रचनात्मक प्रयोग होता है, उसमें यह संकट और बड़ा रूप लेता है। लेकिन यह संकट साहित्य से समाज को विलग नहीं करता। अंग्रेजी हो या फ्रेंच या जर्मन या तुर्की – इनके साहित्य के प्रति अपने समाजों में स्वाभाविक आकर्षण है, वे व्यापक रूप से उन समाजों में से पढ़े-गुने जाते हैं। इनके लेखकों को अपने समाज की ऐसी विमुखता का सामना नहीं करना पड़ता जैसा कि हिन्दी के लेखक को करना पड़ता है। हिन्दी और हिन्दी समाज की समस्या कुछ और है। लेकिन इस प्रश्न में गहरे जाने से पहले यही देख लेना दिलचस्प होगा कि स्वयं हिन्दी लेखकों में ही अपनी भाषा के प्रति कैसा रवैया है।

स्वयं हिन्दी लेखक हिन्दी साहित्य से कितना ग्रहण करते हैं और उससे प्रभावित होते हैं? निर्मल वर्मा से एक बार उनकी मनपसंद पुस्तकों की सूची पूछी गई तो उन्होंने जो दस नाम गिनाए उनमें से केवल चार भारतीय थे और उन चार में एक भी हिन्दी का लेखक नहीं था। अकेले निर्मल वर्मा का नहीं हिन्दी के सामान्य लेखकों का भी यही हाल है। अत्यंत प्रतिष्ठित और ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत कुँवर नारायण भी, जिनकी हाल में मृत्यु हुई, अपने लेखों में हिन्दी के लेखकों-विचारकों को नहीं के बराबर उद्धृत करते हैं। यह हिन्दी लेखकों- में हर तरफ दिखता है कि उन्हें स्वयं अपनी भाषा के लेखक प्रेरित या प्रभावित नहीं करते। आज हिन्दी के अधिकांश लेखकों-आलोचकों में कहीं न कहीं अपनी सोच और विचारों को अंग्रेजी स्रोतों से जोड़कर वैध ठहराने कोशिश दिखाई देती है। यद्यपि इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज ‘चिंतन’ और ‘विचार’ के अधिकांश स्रोत पश्चिम से आते हैं लेकिन हिन्दी लेखकों में अंग्रेजी का एक अतिरिक्त आकर्षण, अंग्रेजी-ज्ञान के प्रदर्शन का एक अलग आग्रह भी दिखाई देता है। आखिरकार हिन्दी लेखक भी तो अपने समाज का ही हिस्सा है। 

सिर्फ भाषायी स्तर पर भी, भाषा के चयन, स्रोत, शब्दावली आदि के संबंध में हिन्दी की स्थिति देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से अधिक विकट है। साहित्य और समाज के बीच संवादहीनता के दूसरे पहलू – अर्थ और अंतर्वस्तु पर – हम आगे और गहराई से विचार करेंगे। हिन्दीतर भाषी समाजों की ओर नजर डालें तो बांग्ला, ओड़िया, असमिया आदि तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के भाषी अपनी भाषाओं से लगाव रखते हैं, अपनी बोलचाल में अपनी भाषा के शब्दों के प्रयोग के आग्रही, अपने रचनाकारों के प्रति ममत्व से भरे, अपनी परम्परा और स्मृति को संजोने के लिए चेष्टाशील होते हैं। हिन्दी में यह सबसे कम है। हिन्दी समाज अपनी भाषा के प्रति सबसे निर्मोही है। जब अपनी भाषा, स्मृति, परम्परा आदि के प्रति ही उदासीनता और उपेक्षा का माहौल हो तो साहित्य के प्रति लगाव या रुचि कहाँ से आएंगे।

वैश्वीकरण और उससे उपजे अवसरों, उसकी आवश्यकताओं से शिक्षा में आए परिवर्तनों ने सभी भारतीय भाषाओं पर, खासकर हिन्दी पर सबसे अधिक, दबाव उत्पन्न किया है। इसने अंगरेजी को अपने देश में ज्ञान, विधि और राजकाज में ही नहीं, समस्त कार्य-व्यवहार की भाषा बनाने की जिद को वैधता प्रदान की है। आज अंग्रेजी हिन्दी ही नहीं, तमाम क्षेत्रीय भाषाओं को तेजी से बेदखल करती जा रही है। परिवार और विद्यालय दोनों में बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी मिश्रित क्षेत्रीय भाषा सिखाई जा रही है। अब, अंग्रेजी-मिश्रित खिचड़ी भाषा के प्रयोक्ता से साहित्य के आस्वाद के लिए आवश्यक गहराई की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती। साहित्य भाषा का गंभीर और मूल-संश्लिष्ट कार्य-व्यापार है। जब भाषा ही अपनी बुनियादों से कट रही हो तो साहित्य का आस्वादन तो और दूर की बात है।

यह विरोधाभासी ही है कि जहाँ एक तरफ उत्तर-आधुनिकता साहित्य के क्षेत्र में स्थानीय समुदायों, क्षेत्रों की पहचान पर आधारित साहित्य सामने ला रही है वहीं दूसरी तरफ वैश्वीकरण जीवन-शैली के क्षेत्र में स्थानीयता के तत्वों से रहित एक प्रकार की रंगहीन ‘सार्वदेशिकता’ को जन्म दे रहा है, जिसमें स्थानीय रंगों का अलग-अलग ‘एप्रिसिएशन’ कठिन हो जाता है। हालाँकि आवश्यक नहीं कि एक आदिवासी साहित्य एक महानगरीय पाठक की सौन्दर्यात्मक ग्रहण-क्षमता से बाहर हो, लेकिन रचना और पाठक के बीच समान सांस्कृतिक संदर्भों का अभाव रचना के आस्वाद में बाधक अवश्य होता है। ‘मुर्दहिया’ का रचनात्मक ग्रहण उनके लिए कठिन है जिन्होंने कॉन्वेन्ट में पढ़ाई की हो या महानगर के फ्लैटों में बंद जीवन जिया हो, या जिसने अछूत समुदाय के जीवन को देखा भी न हो। उसी तरह, निर्मल वर्मा हिन्दी के अधिकांश ग्रामीण और कस्बाई पाठकों के लिए ‘बाहरी’ जैसे हैं। यह तो मानना ही पड़ेगा कि हमारी जीवन शैली जैसे जैसे शहरी होती जा रही है, लोक तत्वों से भरा साहित्य भी हमारे लिए अगम्य होता जा रहा है।

उपर्युक्त अंग्रेजी और तज्जन्य भाषाई विलगाव और शहरीकरण के कारण लोकविमुख जीवनानुभव की समस्या तो फिर भी नई – पिछले तीन-चार दशकों की – देन है, जब से अर्थव्यवस्था का उदारीकरण शुरू हुआ। हिन्दी में एक दूसरे कारक ने भी साहित्य से पाठक के विलगाव में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है – एक प्रकार की अंध सामाजिकता पर जोर। हिन्दी साहित्य में सामाजिक यथार्थ पर जोर देने की शुरुआत प्रगतिवाद के दौर से होती है। प्रगतिवाद ने  छायावाद की अतिशय कल्पना-प्रवणता, सौंदर्यात्मकता, वायवीयता से विद्रोह करते हुए हिन्दी समाज में व्याप्त गरीबी, विषमता, शोषण आदि के यथार्थ को काव्य का विषय बनाने का आग्रह किया था। व्यक्ति और समाज के दुःख-दर्द, विडम्बनाएँ, कमियाँ आदि हमेशा से रचनाकार के करुणा और आक्रोश (जो मूलतः करुणा से ही उत्पन्न है) के विषय रहे हैं और छायावाद से इसकी मांग स्वाभाविक थी। इस प्रवृत्ति ने हिन्दी साहित्य को समाज के प्रति दायित्व-बोध से सम्पन्न किया और उत्कृष्ट कृतियों से हिन्दी साहित्य को समृद्ध भी किया। किंतु इस प्रवृत्ति की अतिशयता ने एक दूसरी समस्या खड़ी की। इससे वैयक्तिकता या व्यक्ति-मन को केन्द्र में ऱखनेवाले साहित्य की उपेक्षा हुई।  सामाजिकता का आग्रही आधुनिक साहित्य और आलोचना मनुष्य को एक आर्थिक इकाई या उसे एक खास वर्ग और समुदाय के सदस्य के रूप में देखे जाने पर अतिशय जोर देते हैं। मनुष्य का आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक-लैंगिक दृष्टि से शोषित-वंचित रूप यही उनकी चिन्ता का स्थायी विषय रहता है। वर्तमान में चल रहे तरह-तरह के विमर्श भी – स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक – सभी अपने पात्रों को उसके एक वर्ग की इकाई के रूप में देखते हैं और उनके विविध प्रकार शोषण और अन्याय की कहानियाँ कहते हैं। वहाँ व्यक्ति का मन – ऐसा व्यक्ति जो किसी आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक-लैंगिक वर्ग का प्रतिनिधि न हो, जो व्यापक मानवता का प्रतिनिधि बनकर आए – कमोबेश अनुपस्थित है। 

साथ ही, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज के लेखक की प्रगतिशीलता देखने और विषय-चयन के स्तर पर अधिक है, आंतरिक बोध के स्तर पर  कम। इसके पीछे अधिकांश के व्यक्तिगत स्वार्थ, दलीय निष्ठा, वैचारिक मताग्रह सक्रिय हैं। ऐसा नहीं कि ईमानदार और ‘आंतरिक बोध’ से उत्पन्न साहित्य आज नहीं लिखा जा रहा, लेकिन आज हिन्दी साहित्य की प्रतिनिधि तस्वीर इसी मताग्रही साहित्य की है। ऐसा नहीं कि विचारधारा से किसी रचना की मूल्यवत्ता का कोई वैर है। प्रगतिशीलता हो या जनपक्षधरता – वह जीवन-दृष्टि में होती है। लेखक को बिल्कुल इस बात की स्वतंत्रता है कि अपनी रचनाओं में वह मानव और समाज की आलोचना में या उसके लिए नए मूल्य तय करने में जैसी चाहे दृष्टि अपनाए। प्रश्न ईमानदारी, रचनात्मकता और नैतिक साहस का है। हिन्दी में, दुर्भाग्य से, मौजूदा समय में ये चीजें कम देखने को मिल रही हैं।

दूसरी तरफ, इस समय जो अच्छा भी लिखा जा रहा है उससे हिन्दी का व्यापक समाज – शिक्षित भी – अलग-थलग है। कुछ अच्छा लिखा जाए या बुरा, उसको जैसे उससे मतलब ही नहीं। ऐसा नहीं कि यह शिक्षित समाज हिन्दी पढ़ता ही नहीं। हिन्दी अखबारों, सामान्य रुचि की पत्र-पत्रिकाओं की अच्छी खासी पाठक संख्या इसकी पुष्टि करती है। बस उसमें अभाव है उन संस्कारों का जो रचनात्मक स्वाद लेने, अनुभवों-विचारों में गहरे पैठने, समझने और विश्लेषण करने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करते हैं। साहित्येतर भी जो गंभीर वैचारिक सामग्री है वह हिन्दी पाठक की उपेक्षा का शिकार है।

जब समाज ही साहित्य के प्रति ‘विरक्त’-सा हो, भाषा ही व्यवहार में उपेक्षित हुई जा रही हो, वैचारिक दुराग्रह चेतना को आच्छादित किए हुए हों तो उस साहित्य समाज पर किसी तरह का असर डाल सकेगा, इसकी उम्मीद करना दुखद रूप से कठिन है। साहित्य वैसे भी कोई सामाजिक या राजनैतिक आंदोलन नहीं होता।

उदासीनता की यह स्थिति केवल साहित्य तक ही सीमित नहीं है। एक आलोचक के शब्दों में – “संयोग से, या सायास, हम अपने समाज को इस तरह गढ़ रहे हैं कि साहित्य, कलाएँ और चिंतन की तमाम पद्धतियाँ व्यापक सामाजिक उपक्रमों में अर्थहीन होती चली जा रही हैं। समाज को यह एहसास होना बंद हो गया है कि साहित्य और कलाएँ उसके लोकतांत्रिक जीवन के लिए अनिवार्य हैं। आधुनिक समाज यह लगभग भूल गया है कि साहित्य और कलाओं में न सिर्फ आपको सौंदर्य का अनुभव होता है बल्कि वह अनुभव फैलकर आपके रोजमर्रा जीवन में भी आ जाता है।” (उदयन वाजपेयी, समास, अंक-१९) 

शुरुआत हमने कविता की पंक्तियों से की थी जिनमें काव्य से कुछ कर डालने का आह्वान था या उससे कुछ कर सकने की तड़प थी। साहित्य आखिर भाषा और उसके समाज में ही निवास करता है। समापन हम समाज की उदासीनता के प्रति खिन्नता से भरी कवि की निम्न पंक्तियों से करेंगे –

यहाँ कौन देखता है यहाँ कौन सोचता है
कि ये बात क्या हुई है मैं जो शेर कह रहा हूँ।

(दुष्यंत)

 हमारी तमाम उदासीनता या विमुखता के बावजूद साहित्य की यह अपील हमसे रहेगी ही –

इस तरह उपेक्षा मेरी, क्यों करते हो मतवाले!
आशा के कितने ही अंकुर, मैंने उर में हैं पाले।

(सुभद्रा कुमारी चौहान)

*****

(नोट : यह लेख डॉ वरुण कुमार की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘समीक्षा के भाषिक आयाम’ पुस्तक से साभार लिया गया है।)

https://www.amazon.in/gp/product/8196995172/ref=cx_skuctr_share_ls_srb?smid=A2ZXCEXTVOQ71E&tag=ShopReferral_90673dc1-01a3-4ce5-9a45-51f10af5ef7e

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »