आधुनिक कविता में छंद और लय का अतिक्रमण

-डॉ० वरुण कुमार

एक पाठक की कविता की पहचान सामान्यतः जिस चीज से शुरू होती है वह है छंद। छंद में बंधी रचना कविता होती है ऐसी समझ हमें बचपन से ही प्राप्त होती है। किसी भी भाषा में पहले पद्य रचना छंद में ही होती है। गद्य के साथ उसके अंतर को प्रथमतया छंद के आधार पर ही परिभाषित किया जाता है। छंद से मुक्त कविता आधुनिक युग की देन है। इसका कारण है कि छंद से शब्द चयन की स्वतंत्रता बाधित होती है। अर्थ की अनुकूलता के ऊपर छंद की अनुकूलता को तरजीह देनी पड़ती है। छंद मूलतः संरचना है, पैटर्न है, ढाँचा है। छंदोबद्ध कविता में संरचना की मांग ही इतनी प्रबल हो जाती है कि कभी-कभी कवि को उसका मूल्य कथ्य की गुणवत्ता से चुकाना पड़ता है।


छंद की अपेक्षा लय कहीं बुनियादी चीज है। छंद के बिना भी संरचना में नियमितता और आवृत्ति के तत्व अभिव्यक्ति को लयात्मक बनाते हैं। छंद से मुक्ति का अर्थ लय से मुक्ति नहीं है। निराला की कविताएँ छंदमुक्त भले ही हों, लय से रहित नहीं हैं। उनमें पूर्वप्रचलित छंद भले नहीं हैं मगर नियमितता और सममिति पूरी तरह मौजूद है। निम्न पंक्तियों को देखें –


वह तोड़ती पत्थर
मैंने उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर


दूसरी पंक्ति पहली की अपेक्षा बहुत लम्बी होकर भी पहली के पैटर्न का ही विस्तार है। अगर इसे तबले के बोल से मिलाकर देखें तो यह तथ्य एकदम स्पष्ट हो जाता है –


व ह तो ड़ ती पत्थर
ता थेई तथेइ ता थेइ

मैंने उसे देखा इला हाबाद के पथ पर
ता थेइ तथेइ ता थेइ तथेइ ता थेइ तथेइ ता थेइ

रबड़ छंद या केंचुआ छंद कहकर तत्कालीन आलोचकों ने जो उसका मजाक उड़ाया था वह उनकी सममिति की कमजोर समझ का परिचायक था।


मुक्त छंद में होकर भी छायावादी दौर की कविताएँ लय से मुक्त नहीं थीं। लय के निर्वाह की प्रवृत्ति प्रयोगवादी दौर तक भी विद्यमान रही। किंतु आज की कविता में लय भी अत्यंत क्षीण, नहीं के बराबर हो गया है। एक उदाहरण से बाद स्पष्ट होगी –


शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में
उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर
अब भी चिपके दिखते हैं
जो कई बरस पहले दस ग्यारह साल की उम्र में
बिना बताए घरों से निकले थे
पोस्टरों के अनुसार उनका कद मँझोला है
रंग गोरा नहीं गेहुआँ या साँवला है
हवाई चप्पल पहने है
चेहरे पर किसी चोट का निशान है
और उनकी माँएँ उनके बगैर रोती रहती हैं
पोस्टरों के अंत में यह भी आश्वासन रहता है
कि लापता की खबर देनेवाले को दिया जाएगा
यथासंभव उचित इनाम। -(मंगलेश डबराल)

छंद की बात तो छोड़ ही दें, इसमें न लय है न संगीतात्मकता, न संक्षिप्तता, न ही किसी प्रकार की प्रतीकात्मकता। यह किसी कहानी या वर्णन का अंश प्रतीत होता है जिसमें ‘काव्यात्मक’ कहने लायक कुछ है तो सिर्फ अंतिम पंक्ति जिसका विपर्यय (inversion) सीधा करके अगर ‘खबर देनेवाले को उचित इनाम दिया जाएगा’ कर दिया जाए तो फिर इसके कविता होने की कोई प्रतीति नहीं रह जाती।


कविता में पंक्तिभंग का एक तर्क होता है, जो छंदबद्ध कविता में छंद की मांग से और छंदमुक्त कविता में लय एवं अर्थ की मांग से निर्देशित होता है। डबराल के उद्धृत अंश में वाक्य को सूचनाखण्डों में विभाजित करते हुए पंक्तिभंग किया गया है, जो व्याकरणिक दृष्टि से पदबंध या उपवाक्य हैं। यह अर्थ के आधार पर विभाजन का सबसे स्वाभाविक आधार है। यह विभाजन उस नियमितता को सहारा देता है जो किसी हद तक उक्त काव्यांश के अर्थ और संरचना में मौजूद है, जिस कारण उसमें हल्की सी लय भी है :

शहर के पेशाबघरों और
अन्य लोकप्रिय जगहों में

(दो लगातार स्थानवाची क्रियाविशेषण पदबंध)

उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर
अब भी चिपके दिखते हैं
जो

कई बरस पहले
दस ग्यारह साल की उम्र में

(दो लगातार समयवाची क्रियाविशेषण पदबंध)

बिना बताए घरों से निकले थे
पोस्टरों के अनुसार उनका

कद मँझोला है
रंग गोरा नहीं गेहुआँ या साँवला है
हवाई चप्पल पहने है
चेहरे पर किसी चोट का निशान है

(विशेषक उपवाक्यों की लगातार श्रृंखला)

कोष्ठक में दर्शाई गई किंचित् समानांतर संरचनाओं के अतिरिक्त भी इसमें और बड़े स्तर पर नियमितता है। चौथी पंक्ति (जो कई बरस पहले ..) से लेकर दसवीं पंक्ति (चेहरे पर किसी चोट …) लगातार ‘गुमशुदा लोग’ को विशेषित करने वाले परवर्ती विशेषकों (post modifiers) की श्रृंखला है जिसमें सिर्फ एक व्यतिक्रम है: ‘पोस्टरों के अनुसार’। इस व्यतिक्रम की प्रकृति भी विशेषक की-सी है; यहाँ यह क्रियाविशेषण पदबंध है। इन समानांतर संरचनाओं के कारण इसमें हल्की सी लयात्मकता है।


लेकिन क्या अपने अर्थ में भी उक्त उद्धरण गद्य की अपेक्षा कोई वैशिष्ट्य रखता है? इसके लिए उपयुक्त होगा कि हम देखें कि पूरी कविता में क्या बात कही गई हैं। उद्धृत अंश के बाद बाकी अंश इस प्रकार हैं –


तब भी वे किसी की पहचान में नहीं आते
पोस्टरों में छपी धुधली तस्वीरों से
उनका हुलिया नही मिलता
उनकी शुरुआती उदासी पर
अब तकलीफें झेलने की ताब है
शहर के मौसम के हिसाब से बदलते गए हैं उनके चेहरे
कम खाते कम सोते कम बोलते
लगातार अपने पते बदलते
सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते
अब वे एक दूसरी ही दुनियाँ में हैं
कुछ कुतूहल के साथ
अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखते हुए
जिन्हें उनके परेशान माता पिता जब तब छपवाते रहते हैं
जिनमें अब भी दस या बारह लिखी होती है उनकी उम्र।

‘गुमशुदा लोग’ जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत होता है, एक प्रतीक के रूप में आया है। अपने अतीत से, स्मृतियों से, मानवीय संबंधों से दूर जा चुके व्यक्ति का जो धीरे धीरे इतना बदल चुका है कि अपने खो जाने को भी भूल चुका है। उसके जो लक्षण गिनाए गए हैं: हुलिया नहीं मिलना, मौसम के हिसाब से चेहरे बदलना, लगातार अपने पते बदलना, एक दूसरी ही दुनियाँ में होना, कुतूहल के साथ अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखना आदि उसके विस्मरण और ‘गुमशुदगी’ को अच्छी तरह परिभाषित कर देते हैं। कवि के लिए बारह तेरह वर्ष की उम्र के अनुभव एक आदर्शीकृत अतीत (idealized past) की तरह है जिसे वह अपनी रचनाओं में अक्सर ‘मिस’ करता नजर आता है। कविता में कल्पित गुमशुदा व्यक्ति को संभवतः परिस्थितियों, जीवन के संघर्षों, विभिन्न बाहरी और आंतरिक दबावों ने इतना बदल डाला है कि वह अपनी पुरानी पहचान तक भूल गया है। यदि हम इसे आधुनिक निर्वासित विडम्बनाग्रस्त मानव का प्रतीक मानना चाहें तो यह दावा किया जा सकता है कि कविता के रूप में इसने छोटे कलेवर में एक विडम्बना, एक बिम्ब, एक प्रतीक को उभारा है और यहीं उसकी निर्मिति की और कर्तव्य की भी पूर्णता है। गद्य में उस विडम्बना, उस प्रतीक को उभारने के लिए वास्तविक पात्रों और घटनाओं के सृजन की आवश्यकता पड़ती। उन स्थितियों और कारणों को शामिल करना आवश्यक होता जो ‘गुमशुदा’ होने के लिए जिम्मेदार हैं। गद्य के रूप में यह निर्मिति अधूरी और ‘नाकाफी’ होने का एहसास दिलाती। यद्यपि ‘गुमशुदगी’ के कारणों का संकेत देनेवाले तत्वों के अभाव में अर्थ की द्विस्तरीयता की संभावना कमजोर पड़ जाती है किंतु फिर भी, अपनी संकीर्ण परिधि में भी यह कविता एक विशेष वर्ग के मानव का प्रतीक तो बन ही लेती है।


छंद, लय, अलंकार आदि का पूर्ण त्याग करके यह कविता बिल्कुल बोलचाल की भाषा के नजदीक चली जाती है। बोलचाल की भाषा विवरणात्मक होती है, गद्य का फॉर्म विस्तार मांगता है : डबराल की उद्धृत कविता में भी विस्तार से कहने की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखती है। आज की कविता का यही प्रतिनिधि चेहरा है, गद्य का चेहरा।

(नोट : यह अंश ‘समीक्षा के भाषिक आयाम’ से साभार लिया गया है।)

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