
वेनिस का सौदागर : यहूदी घृणा की जड़ें
डॉ वरुण कुमार
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नाजी सरकार द्वारा यहूदियों का नरसंहार बीसवीं सदी की हृदयविदारक घटनाओं में से एक है, जिसमें लगभग साठ लाख यहूदियों को यातनापूर्ण तरीके से मौत के घाट उतार दिया गया। इस घोर अमानवीय कृत्य में ईसाई समाज में व्याप्त यहूदी घृणा का भयंकरतम रूप प्रकट हुआ। इसके लिए पिछले सत्तर सालों से हम जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ़ हिटलर को गरियाते और कोसते आ रहे हैं। आज तो नतीजा यह है कि अमेरिका में अगर कोई इस नरसंहार (हौलोकौस्ट) के प्रति अविश्वास जताता है या इस घटना के होने से इनकार करता है तो वह दंड का भागी होता है।
लेकिन यहूदियों के प्रति भीषण नफरत, जिसकी परिणति उक्त हत्याकांड में हुई, क्या वह केवल हिटलर युग की देन थी? हिटलर के प्रति सारी निंदा और आलोचना परोसने से पहले थोड़ा इस बात की ओर भी निगाह डाल लेना चाहिए कि यहूदियों के प्रति नफ़रत की जड़ें कहाँ थीं। सदियों से यहूदी घृणा ईसाई समाज व साहित्य का हिस्सा रही है। ईसाई धर्म की शुरुआत से ही यहूदियों को ईसा-विरोधी, पापी, नीच, भारी ब्याज पर ऋण देने वाले सूदखोर आदि कहकर कलंकित किया जाता रहा था। कहना चाहिए कि घृणा की ज्वाला तो सदियों पहले से जल रही थी, बस हिटलर ने इसे पूरी शक्ति से धधका दिया। ईसाई समाज यहूदियों को अपने से दूर रखता रहा था। संख्या बल में उनसे बहुत कम यहूदी उनसे अलग दड़बों में रहने को मजबूर थे। लेकिन अपने धर्म के पक्के यहूदी सारे आघात व अपमान सहते रहे और अप्रतिम सहनशीलता का परिचय दिया। शायद इसी के चलते आज भी यहूदी समुदाय का अस्तित्व बचा हुआ है।
शेक्सपीयर के मशहूर नाटक ‘वेनिस का सौदागर’ में हमें हिटलर से कई शताब्दियों पहले अपार यहूदी-घृणा (ऐंटी-सेमिटिज़्म) का परिचय मिलता है। हिटलर का काल बीसवीं शताब्दी का चौथा दशक है, जबकि यह नाटक सोलहवीं सदी के अंतिम वर्षों में लिखा गया था। नाटक में जिस वेनिस शहर का वर्णन है वहाँ यहूदी समुदाय के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जाता था। वहाँ का कानून भी यहूदियों के खिलाफ भेदभाव बरतता था और सामान्य ईसाई लोगों में उनके प्रति नफरत भरी होती थी। नाटक में ‘शाइलॉक’ नामक यहूदी महाजन है जिसे बेहद लालची, नीच, निकृष्ट, सूदखोर बताया गया है। उसके बरक्स ‘ऐंटोनीओ’ नामक ईसाई है जिसे बेहद दयालु, कृपालु , मददगार, निस्पृह, पवित्र धर्म (ईसाई) का नेक बंदा दिखाया गया है। नाटक में जब ऐंटोनीओ अपने अज़ीज़ दोस्त बसानीयो के लिए शाइलॉक से उधार माँगता है, तो शाइलॉक यह शर्त रखता है कि अगर नियत समय पर उसका ऋण नहीं चुकाया तो ऐंटोनीओ को अपने शरीर का एक पाउंड गोश्त बदले में देना पड़ेगा। शाइलॉक की ऐसी डरावनी शर्त के पीछे कारण यह है कि ऐंटोनीओ सदा उसका अपमान करता आया है। उसे लोगों के बीच सदा पापी सूदखोर अभिशप्त ऋणदाता वगैरह कहता रहा है। उसने एक बार भरी भीड़ में शाइलॉक को भीड़ के बीच शाईलॉक को कुत्ता कहा था और उसके मुँह पर थूक दिया था। स्वाभाविक है शाइलॉक अपमान से तिलमिलाया हुआ है। दूसरे, ऐंटोनियो इतना भला है कि वह मुसीबत में पड़े लोगों को बिना सूद के क़र्ज़ दे देता है, जिससे बाज़ार में सूद के दर में भारी गिरावट आई है और शाइलॉक को घाटा हो रहा है। इन कारणों से शाइलॉक एंटोनियो से बेहद कुपित है। वह लोगों से कहता है कि बस उसे ऐंटोनीओ के शरीर का गोश्त निकालने का मौक़ा मिले, तभी उसके दिल को तसल्ली मिलेगी। शेक्सपीयर ने यहूदी शाइलॉक को पूर्णतया राक्षसी प्रवृत्ति का चित्रित किया है।
पहले तो ऐंटोनीओ वादा कर देता है, क्योंकि उसके चार व्यापारी जहाज़ दुनिया के सुदूर कोनों से माल भरकर ले आएँगे। पर दुर्भाग्यवश उसके सारे जहाज डूब जाते हैं और कर्ज नहीं चुका पाता। अब वह शाइलॉक को अपने शरीर का गोश्त देने पर मजबूर है। मामला वेनिस के न्यायालय पहुँचता है। तमाम विनती के बावजूद शाइलॉक अपनी ‘ऐंटोनीओ के गोश्त’ की ज़िद पर अड़ा रहता है। लोगों की गालियाँ और हाय भी उस संगदिल को पिघला नहीं पातीं। अंत में पोर्शिया (बसानियो की प्रेयसी और यहाँ पुरुष वेश में न्यायधीश बनकर पहुँची हुई) की सूझबूझ से ऐंटोनीओ की जान बचती है। वह कहती है कि शाइलॉक अपना हिस्सा गोश्त ऐंटोनीओ के शरीर से ले सकता है, मगर इस शर्त पर कि उसके शरीर के ‘ईसाई रक्त‘ का एक बूँद भी भूमि पर गिरा तो शाइलॉक की सारी जायदाद ज़ब्त हो जाएगी। अब शाइलॉक घबरा जाता है और अपनी माँग से पीछे हटते हुए कहता है कि उसे पैसे ही दे दिए जाएँ, वह चला जाएगा। पर पोर्शिया बाजी पलट देती है। वह कहती है कि शाइलॉक ने जान-बूझकर ऐंटोनीओ की जान लेने की कोशिश की है और अब ऐंटोनीओ ही उसके भाग्य का फ़ैसला करेगा। ऐंटोनीओ इस पर शर्त रखता है कि अगर शाइलॉक ‘ईसाई’ बन जाए और अपनी आधी जायदाद अपनी बेटी और ईसाई पति के नाम कर दे तो उसकी सम्पत्ति ज़ब्त नहीं होगी।
वेनिस का सौदागर नाटक में मानव चरित्र के गहरे कालिमाभरे पक्षों का उद्घाटन हुआ है, लेकिन इसके लिए शेक्सपियर ने जिस पात्र का सहारा लिया है उसके पीछे उनके निजी पूर्वाग्रह बड़ी प्रखरता से लक्षित होते हैं। शेक्सपियर ने इसके लिए यहूदी पात्र को चुना। ऐसा वह कभी नहीं कर सकते थे कि यहूदी को दयावान दिखाते और किसी ईसाई को बुरा। ऐसा लगता है कि शेक्सपीयर की दृष्टि में ईसाई होना ही अपने आप में सर्वगुणसम्पन्न होना है। जो कुछ शुभ, सच्चा, वांछनीय, सुंदर, पवित्र है, वह ईसाई है। ऐंटोनीओ देवतुल्य है, शरीफ़ और दयालु है क्योंकि वह ईसाई है। शाइलॉक पाशविक है, क्रूर है, राक्षस समान है, क्योंकि वह एक यहूदी है। अगर वह ‘पवित्र ईसाई’ बन जाए तो उसके सारे दोष दूर हो जाएंगे। शाइलॉक की बेटी का अपनी ‘विधर्मी’ नीच बाप को छोड़कर उसका पाप से कमाया धन लेकर एक ईसाई के साथ भाग जाना और फिर ईसाई धर्म क़ुबूल कर लेना शेक्सपीयर की नज़र में पावन कृत्य है। ‘जेसिका’ ईसाई बनकर अपने यहूदी जन्म होने के जन्मजात पाप से मुक्त हो सकती है और ईसा के पवित्र मार्ग पर अग्रसर हो सकती है ।
चूँकि यह नाटक ईसाई समुदाय का गुणगान करता है इसलिए यह यूरोप में बहुत लोकप्रिय रहा है, जहाँ ईसाइयों की बहुतायत है। शेक्सपीयर खुद ईसाई थे और यहाँ उनकी धर्मांधता का भरपूर परिचय मिलता है। नाटक में शायद हर पन्ने पर शाइलॉक को ‘निकृष्ट कुत्ता‘ और अमानवीय पशु कहा गया है। नाटक पढ़ते वक्त स्तब्ध रह जाना पड़ता है कि नाटककार की यहूदी के प्रति घृणा कितनी भयंकर है। इस कृति ने सचमुच यहूदी-घृणा को साहत्यिक वैधता प्रदान की। बड़े चाव से ये नाटक यूरोप के नामी मंचों पर खेला जाता रहा है। नाजी जर्मनी में, जहाँ यहूदी-घृणा का सबसे विकराल रूप उभरकर सामने आया, वहाँ ‘वेनिस का सौदागर’ सबसे ज़्यादा मंचित और पसंद किया जाने वाला नाटक बन गया। ऐसा कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि सिर्फ़ राजनीति ही नहीं, साहित्य भी किसी समुदाय विशेष के प्रति पूर्वाग्रह और नफ़रत फैलाने में पीछे नहीं रहा है। आगे चलकर एक और अंग्रेज चार्ल्ज़ डिकेंस ने भी अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘ऑलिवर ट्विस्ट’ में इस यहूदी-घृणा (ऐंटी-सेमिटिज़्म) का प्रचुर उदाहरण दिया। उपन्यास का मुख्य खलनायक चरित्र ‘फैगिन’ यहूदी है जो अनाथ बच्चों से चोरी, जेबकतरी करवाता है और उनका गिरोह चलाता है।
मर्चेंट ऑफ वेनिस को यहूदी समाज में किस रूप में देखता है यह जानना भी दिलचस्प होगा। प्रसिद्ध यहूदी आलोचक अवीवा डेच, जो पुनर्जागरण और आधुनिकतावादी काल के साहित्य की विशेषज्ञ हैं, कहती हैं कि उनके घर में इस नाटक को ‘भयानक, यहूदी विरोधी नाटक’ के रूप में देखा जाता था। शाईलॉक ने जैसा अपमान झेला था, उसे हमारे कई दोस्तों और रिश्तेदारों ने कुछ दशक पहले द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप में अनुभव कर लिया था। मेरे समुदाय के लिए नाटक का सबसे सकारात्मक पहलू वह है जिसमें शाईलॉक एक इनसान के रूप में अपने पक्ष को शानदार तरीके से पेश करता हुआ कहता है, “उसने (एंटोनियो ने) मुझे अपमानित किया और मेरे नुकसान पर हँसा। मुझे व्यापार में जब फायदा हुआ तो उसने मेरा मजाक उड़ाया। मेरी कौम को अपमानित किया। मेरे दोस्तों का मनोबल तोड़ा, मेरे दुश्मनों को भड़काया। इन सबका क्या कारण है? कि मैं एक यहूदी हूँ! यह देखो, क्या मेरे पास यहूदी आँखें नहीं हैं? यहूदी हाथ, अंग, भावनाएँ, स्नेह, जुनून नहीं हैं? हम (ईसाई और यहूदी) एक जैसा भोजन करते हैं? हमें एक जैसे हथियार से चोट लग सकती है। हमें रोग, इलाज, गर्म और ठण्डा तथा एक ईसाई की तरह सर्दी और गर्मी लगती है। अगर आप हमें काँटा चुभाएँगे, तो क्या हमारा खून नहीं बहेगा? अगर आप हमें जहर देंगे तो क्या हमारी मौत नहीं होगी? और अगर आप हमारे साथ गलत करेंगे तो क्या हम बदला नहीं लेंगे? अगर हम इन मामलों में आपके जैसे हैं, तो बाकी मामलों में भी हम आपके समान होंगे। अगर एक यहूदी किसी ईसाई के साथ दुर्व्यवहार करता है, तो उसका प्रत्युत्तर क्या है? प्रतिशोध। अगर एक ईसाई किसी यहूदी के साथ दुर्व्यवहार करता है, तो ईसाई उदाहरण के हिसाब से उसकी पीड़ा का क्या प्रत्युत्तर होना चाहिए? प्रतिशोध क्यों नहीं? आप व्यवहार में मेरे साथ जो खलनायकी दिखाएँगे, मैं भी उसी पर अमल करूँगा। और इस तरह चीजें बदतर होती जायेंगी।” (द मर्चेंट ऑफ वेनिस का एक यहूदी पाठ, अवीवा डेच, 15 मार्च 2016, बीएल–डॉट–यूके)। एक ही कृति उसमें चित्रित खल या सद् पात्र के समुदायों के लिए अलग-अलग अर्थ रखती है।
कोई कितना भी महान साहित्यकार हो, उसके कुछ निजी आग्रह-दुराग्रह होते ही हैं और वह चीज आलोचना के दायरे से बाहर नहीं होती। यहूदियों के प्रति व्याप्त घृणा के संकेत आधुनिक काल में भी बड़े साहित्यकारों में देखने को मिल जाते हैं। उदाहरणार्थ, ज्याँपाल सार्त्र के प्रसिद्ध उपन्यास ‘एज ऑफ रीजन’ में एक स्त्री रोग विशेषज्ञ जिसे चोरी-छिपे औरतों के गर्भपात जैसे निकृष्ट कार्य को करते बताया गया है, वह यहूदी है। चार्ल्स डिकेंस की चर्चा हमने ऊपर की ही है। ‘वेनिस का सौदागर’ पढ़ते हुए बार-बार उसमें व्याप्त यहूदी-विरोध के साथ-साथ लगता है जैसे नाटककार ईसाई बनाने के एक मिशनरी भाव से संचालित है। अपने बेहद मजबूत और कालजयी कथानक, मानव प्रकृति के अंधेरे-उजले रूपों, पक्षों और गूढ़तम सत्यों के उद्घाटन जैसी महान उपलब्धियों के युक्त इस नाटक को खेलते या पढ़ते समय यह भी याद रखना चाहिए कि यह एक ‘एंटी-सेमेटिक’ नाटक है। यहूदियों के प्रति होलोकास्ट में जिस घृणा और अमानवीयता का प्रदर्शन हुआ उसके कुछ छींटे ‘वेनिस का सौदागर’ पर भी पड़ते हैं।
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(नोट – यह आलेख डॉ वरुण कुमार की पुस्तक ‘समीक्षा के भाषिक आयाम’ से लिया साभार लिया गया है।)