बनारस एक जीवित संस्कृति है सबसे अलहदा

मेरा बनारस वह नहीं है जो बहुत सी कविताओं में है
वह भी नहीं जिसका ज़िक्र किया करते थे मित्र बातचीत में
कभी हँसते हुए कभी भावुक होते हुए

तब लगता था जैसे कोई फक्कड़ फ़कीर है बनारस
जहाँ रात कभी हो नहीं पाती रात जैसी
और उसकी सुबह का क्या कहना!
कवियों के स्वप्न में भी नहीं
उससे अधिक चित्तमोहिनी कहीं और की कोई सुबह

मेरी स्मृति में और भी कई बनारस हैं
एक ओर गोस्वामी तुलसीदास का बनारस है तो दूसरी ओर प्रेमचंद के सेवासदन का बनारस है तो उन्हीं के कर्मभूमि और रंगभूमि का भी

बनारस पर कुछ सोचते या लिखते हुए प्रसाद का वैभव
भला कैसे भूल सकता हूँ मैं
जिसमें उसी तरह घुला है बनारस जैसे दाल में घुलता है नमक

जब स्मृति से होकर पुतलियों में आता है बनारस
मेरी चेतना में उतर आते हैं पंडितराज जगन्नाथ
उनकी कविता के साथ ही उनका प्रेम
गंगा की तरह प्रवाहित हो उठता है मेरी धमनियों में

यह कैसे हो कि याद आए बनारस और न याद आएं
मंदिरों की घंटियां
और हर हर महादेव की स्वर लहरियां
और भंग की तरंगों में
सिद्धावस्था का संधान करते कुछ औघड़ कुछ ज्ञानी
और विकल हो चुकी दुनिया में शांति खोजते फिरंगी युवा
और जीवन की नश्वरता का साक्षात बोध कराती
जलते शवों की गंध

बनारस एक असाध्य प्रमेय है
‘वह जितना अतीत में है उतना ही वर्तमान में’
और इन दोनों से कहीं अधिक भविष्य में

वह एक शहर मात्र नहीं है
दुनिया के बहुत सारे चमकदार शहरों की तरह
वह एक जीवित संस्कृति है सबसे अलहदा

बनारस की स्मृतियों से भरा है
दुनिया भर की महान भाषाओं का साहित्य
लेकिन अब भी बहुत कुछ बाकी है लिखा जाना
बहुत कुछ लिखा जाकर भी हर बार छूट जाता है कुछ न कुछ
पर सच तो यह भी है कि लिखा जाए तो आखिर कैसे
बनारस को पूरा का पूरा जबकि
है ‘गिरा अनयन’ और ‘नयन बिनु बानी’

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-जितेन्द्र श्रीवास्तव

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