
चल पड़ी है वेदना
खुशी की राहें भटकती मोड़ पर, हर राह पर
आँसुओं में डूबती लो चल पड़ी है वेदना
नैन जलते थे अंधेरी व्यथाओं की आग पर
संग काजल देख कर चौंके , अचंभित हो गए
गमों की बरसात फैली अधर तक सूने ह्रदय से
रक्त लाली से मिला तो होंठ कंपित हो गए
चटकीले सिंगार में बाँवरी हरषाए क्यों?
लीपापोती व्यर्थ, अब क्यों छुपाती संवेदना
वियोग बन कर प्रेम, धमनी में बहा मिल रुधिर से
सुकून छोड़ा, दर्द पाने दुर्देव से लपक पड़ा
पीड़ा बनी हाला दिल के आईने से शुरू हो
मदिर रस जो बह रहा था नैन से टपक पड़ा
शून्य तक साकी की नजरें, जाम जो पीड़ा बना
तीर ने चाहा निकल कर बादलों को छेदना
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– हरिहर झा