उलझा दिए हैं किस तरह

जिन्दगी ने
मायने उलझा दिए हैं किस तरह
तिमिर ने
किरणों के पग उलझा दिए हैं किस तरह

मंथन हुआ, क्षीर सागर,
हिलोरें ले कह रहा
विष पयोधर साथ मिल कर,
क्यों दिलों में बह रहा
नेवला तो बिना देखे
फुदकता इतरा रहा
फँस गया मुँह में छछुन्दर,
सांप सब कुछ सह रहा
न्याय ने कानून सब
उलझा दिए हैं किस तरह

कामना चलती
ठुमक कर
स्तब्ध जीवन मौन है
भेष बदले कुटिलता अब
कौन जाने, कौन है
स्वार्थ जो हावी हुआ
विकलांग रिश्ते हो रहे
प्रेम चिड़िया कौन सी
सब कुछ जगत में यौन है
वासना ने दो कदम
उलझा दिए हैं किस तरह

गट्ठरों पर
लाश की,
क्या खूब सौदा चल रहा
गिरगिट बदलता रंग
अवसरवाद में पल रहा
दहकते हैं प्राण,
दैहिक व्यवस्था बदल रही
जाल का हर चक्र अपने
यन्त्र को ही छल रहा
पखेरु ने
पंख खुद
उलझा दिए हैं किस तरह

*****

– हरिहर झा

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