
पगलाई आँखें ढूंढती
पगडंडी के पदचिन्ह से भी
क्षितिज देखा हर जगह
पगलाई आँखें ढूंढती अपने पिया को हर जगह।
फूल सूंघे, छुअन भोगी
सपन का वह घर
कचनार की हर डाल लिपटी राह में दर दर
मधुरस पिया जम कर वहीं
छाया चितेरा जिस जगह
पगलाई आँखें ढूंढती अपने पिया को हर जगह।
डोर पर चलती
ठहरने के नहीं लायक
नट-नटी का खेल
कैसा कर रहा नायक
साँस में हर, बीन सुनती
वह सँपेरा हर जगह
पगलाई आँखें ढूंढती अपने पिया को हर जगह।
चीथड़ों के इस कफ़न में
चाँद चकनाचूर
सूरज धधकता
राख की आँधी उड़ी भरपूर
गहरी गुफ़ा से याद का
मलबा उखेरा हर जगह
पगलाई आँखें ढूंढती अपने पिया को हर जगह।
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– हरिहर झा