चिढ़ाते तुम!

आचमन भर, दे रहे हो, नदी में से
चिढ़ाते तुम!
महामाया
नींद में कुछ बाँध लेती
मधुर सपनो की सुगंधि, प्यास बनती
बाग महके फूल पाया, सिकुड़ता सा;
चिढ़ाते तुम!

भूख की चिंता नहीं
मैं तो मुसाफ़िर
तृप्त होते, भोगियों के, साथ तुम फिर
थालियाँ लड्डू भरी पर, बताशा दे
चिढ़ाते तुम!

पूर्ण से जब
पूर्ण निकले, पूर्ण रहता
अधूरा-सा आदमी ही, रिक्त होता
जगत प्रभुमय मुझे बस इक झलक दे कर
चिढ़ाते तुम!

*****

– हरिहर झा

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