
आनन्द ही आनन्द
ले ले कर चटखारे
स्वाद ग्रंथि तृप्त हो, मौन रसना अनमनी
आनन्द ही आनन्द
कुंभकर्णी नींद हो,
खर्राटे भर लेते तोड़ते खाट अपना
उपदेश बाँटो, माल लो,
सुन्दरी का साथ हो भंग मत करो सपना
काम कुछ ना, श्रेय लो
मूढ़तामय जगत में कीर्ति की फैले कनी
आनन्द ही आनन्द
अंधे
विश्वासों के
साँप ने काटा हुआ मांगे कैसे पानी
अक्ल पाई क्या गज़ब
विश्व पहुँचा चाँद पर, ग्रहों की धूल छानी
दंभ में डूबे हुए,
दिमाग की,
चकरी तो, जरा भी ना घूमनी
आनन्द ही आनन्द
बरगला कर दोस्त को
लगा गप्पे बोलिए आए मनमर्जी में
मीत की भावना से, खेल अपनी,
डालिए, उँगलियाँ पाँच घी में
दो टके के लाभ में,
निर्लज्जता से काम, दोस्त से हो दुश्मनी
आनन्द ही आनन्द
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– हरिहर झा