चलते भीतर अंतरद्वंद्व

भार लिए मन में क्यों मानव
शोक, दुख अनुलग्न
चलते भीतर अंतरद्वंद्व
क्यों न हो उद्विग्न।
अंधड़ आई रेत उड़ चली.
सावन-भादो में
चंचल बहता पानी ठहरा
गंदे गड्ढों में
काम नहीं कुछ, उबकाई में,
सुस्त नर संलग्न।
वृक्ष खड़ा आनंदित देखो,
बरसों एक जगा
प्रसन्न कैसे? ना जिसका
दोस्त कोई सगा
सोच में डूबा नर तो बिल्कुल
भूखा, हृदय-भग्न।
पशुता भरे विचार छुपे हैं,
यम नियम की हार
चिंतन के ताने बाने मे,
फँसे मनोविकार
दिवास्वप्न के वस्त्र फिर भी,
क्यों नग्न के नग्न!

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– हरिहर झा

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