
भूत जो अब घट गया है*
ज्ञान उपनिषद का देते, ऋषि-मुनि गूढ़ और गंभीर
विज्ञान का प्रयोग चलता स्क्रीन पर फोटोन की लकीर
कान्ह को माखन खिलाया , बेबी फूड के साथ है
भूत जो अब घट गया है जिन्दा यहाँ, यथार्थ है
उंगलियाँ टोह लेती माला, कभी मोबाइल पर
हाथ शिलालेख पर, कुछ ढूँढते हैं फाइल पर
फास्ट फूड में याद चलती है जहाँ पर पक रही थी खीर
स्थूल जीवित,
सूक्ष्म मृत दो प्रकृति के हाथ हैं
मर कर मरा है कौन?
सब जीवन्त, सब कुछ साथ हैं
है मुगलिया दरबार गहरे दिल के अंधे कूप में
अंग्रेज अब भी सामने अंग्रेजियत के रूप में
आजाद भारत पर पड़ी छाया, गिरी दासत्व की जंजीर
पल-छिन के धागों में रही, सहस्त्र वर्षों की लड़ी
डल झील पर कश्यप ऋषि के भ्रमण में बाधा पड़ी
तपस्या में विघ्न कर जाते रहे हैं बम-धमाके
बिखरते, मोहक छटा में खौलते लहू के सिक्के
स्वर्ग धरती का है किन्तु हाय! हिंसा में घिरा कश्मीर
मैत्री, गार्गेयी नये अनुसंधान कर दिखला रही
काँटो की माला दामन में फिर भी मुस्कुरा रही
है अहिल्या निर्दोष, सीता का करुण अध्याय
कैसा नियति का व्यंग्य, फूलन मांगती जब न्याय
आगे बढ़ी, मौजूद दुश्शासन वहाँ पर खींचता है चीर
– हरिहर झा