आजकल मैं भारत की राजधानी नई दिल्ली से कुछ 6300 किमी दूर, यूरोप के एक प्रतिष्ठित शहर लक्सेम्बर्ग में रहता हूँ। यह शहर इस देश की राजधानी भी है और इस देश का नाम भी लक्सेम्बर्ग ही है। वैसे तो यह देश बहुत छोटा सा है जिसका कुल भू-भाग 2586 वर्ग किमी है (भारत के सबसे छोटे राज्य गोवा का क्षेत्रफल 3207 वर्ग किमी है) और जनसँख्या लगभग 6 लाख है जिसमें से तकरीबन आधे तो विदेशी है (दूसरे यूरोपीय देशों और अन्य देशों के प्रविसियों को मिलाकर) लेकिन इस देश की स्थिति बहुत मज़बूत है।
जिन्होंने यूरोप की यात्रा की होगी उन्होंने वीसा लेते हुए शायद ध्यान दिया हो कि यूरोप के वीसा को “शेंगेन वीसा” कहते हैं जो उन्हें सभी 26 यूरोपीय देश में बिना रोक-टोक के आने की छूट देता है। इस वीसा में आइसलैंड, नार्वे और स्विट्ज़रलैंड जैसे 19 अन्य देशों में भी जाने की छूट है जो सीधे-सीधे “यूरोपीय संघ” के भाग नहीं हैं। “शेंगेन” वास्तव में लक्सेम्बर्ग के छोटे से एक गाँव का नाम जो मेरे घर से कुछ 4 किमी की दूरी पर है। 14-जून-1985 को इसी गांव में हुए एक सम्मलेन में बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, लक्सेम्बर्ग और नेदरलíड्स ने सबसे पहली बार एक व्यापारिक और राजनैतिक संगठन बनाने की संधि पर दस्तखत किये थे। उस संधि का नाम “शेंगेन समझौता” पड़ा और यही संगठन आगे चलकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली बहुदेशीय संगठनों में से एक “यूरोपीय संघ” के नाम से जाना गया जिसमें यूरोप के कुल 26 देशों की सदस्यता है।
लक्सेम्बर्ग शहर में महानगर पालिका ने शहर के बीचों-बीच एक बड़ा उद्यान बनाया है जो कि तीन हिस्सों में बंटा हुआ है और इसकी लम्बाई लगभग 1 किमी की है। इस उद्यान के बीच के भाग में बच्चों के खेलने की जगह है। कई तरह के झूले, फिसल-पट्टियां और रेत भरे कृत्रिम समुद्र तट पर एक पुराने जहाज का ढांचा बना है। इस उद्यान में पानी से खेलने की जगह भी है जिसमें पम्प से पानी बहता है और जगह-जगह पर भरता हैं जहाँ बच्चे उछल कूद करते हैं। उद्यान में कई हैंड-पम्प भी लगे हैं जिसके साथ बच्चे खेलते हैं। यहाँ इस प्रकार से ज़मीन से निकले पानी को साफ और सुरक्षित नहीं माना जाता है इसलिए सरकार ने साफ शब्दों में सन्देश लिखा है कि यह पानी पीने योग्य नहीं है। गर्मी के समय में बच्चे उनमें से पानी निकालते हैं और छोटे बड़े गड्ढों में भरे पानी से भीगते-भिगाते हुए खेलते हैं। मेरा छोटा बेटा अदित इस उद्यान के पानी और झूले आदि में बहुत प्रसन्न होकर खेलता है। उद्यान के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर महात्मा गाँधी की भी एक अर्ध प्रतिमा लगी हुई है। इस काँस्य प्रतिमा को पद्मभूषण (मरणोपरान्त) श्री अमरनाथ शहगल जी ने बनाया था। श्री सहगल भारत के जाने-माने मूर्तिकार और चित्रकार थे और जब वे 1965 में पेरिस में किसी आधुनिक मूर्ति कला के कार्यक्रम में आये तब उनका संपर्क लक्सेम्बर्ग के तत्कालीन प्रधानमंत्री से हुआ था। बाद में उन्हें महात्मा गाँधी की एक मूर्ति बनाने की जिम्मेदारी दी गई जिसे 1973 में लक्सेम्बर्ग शहर के इस प्रमुख उद्यान में स्थापित किया गया। लक्सेम्बर्ग के प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने देश में स्टूडियो खोलने और रहने का निमंत्रण दिया तो सहगल जी 1979 से 2004 तक लक्सेम्बर्ग में रहे। बाद में 2004 में वे भारत चले गए और 28 दिसम्बर 2007 को 85 वर्ष की उम्र में उनका लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हुआ। जी हाँ ये वही अमरनाथ सहगल हैं जिन्होंने दिल्ली के विज्ञान भवन की प्रतिकृति के रूप में एक कांस्य-भीति चित्र (मुराल) बनाया था और उसके बुरे रख-रखाव होने और हटाए जाने पर सरकार के विरुद्ध केस दर्ज कर दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने उनके हक़ में फैसला दिया था और मुआवजे की राशि के साथ-साथ उस भीति-चित्र का पूर्ण स्वामित्व भी सहगल जी के नाम किया था। इस प्रतिमा की खासियत यह है कि इसमें गाँधी जी ने चिर परिचित गोल कांच वाला चश्मा नहीं पहना है। उनकी जन्म जयंती के 150वीं वर्षगांठ पर लक्सेम्बर्ग ने उनके नाम पर एक डाक टिकट भी जारी किया था। गाँधी जी के सबसे छोटे बेटे देवदास की पुत्री तारा गाँधी भट्टाचार्जी इस शुभ अवसर पर कार्यक्रम में उपस्थित थीं। उन्होंने गाँधी जी प्रतिमा को देख कर इसे महात्मा गांधी की बिना चश्मे वाली एक दुर्लभ मूर्ति बताया था। उन्होंने आगे कहा कि उन्हें अंदाजा नहीं कि मूर्तिकार ने बापू की किस उम्र को उकेरने का प्रयास किया है लेकिन वे इस प्रतिमा में कम उम्र के लगते हैं पर उस चेहरे मोहरे से बहुत मिलता-जुलता है जो मुझे याद है।
मैं सुबह या शाम जब सैर पर जाता हूँ तो लगभग हर दिन इस प्रतिमा के सामने से निकलता हूँ। गाँधी जी प्रतिमा को देख थोड़ा ठहर कर दो पल के लिए अपनी आँखें मूँद कर सर झुका लेता हूँ। प्रतिमा है तो वे तो कुछ कहते नहीं और मैं भी कुछ नहीं बोलता, न मुँह से और न मन में, बस मौन ही नमन कर के आगे बढ़ जाता हूँ। हम लोग अक्सर इस प्रतिमा के पास आते हैं और मेरे दोनों बच्चे उनकी प्रतिमा के आस-पास समय बिताते हैं। एक सुबह सैर से लौटते हुए फिर से प्रतिमा के सामने से आना हुआ। प्रतिमा पर नज़र पड़ी तो देखा कि किसी ने उन्हें “मास्क” पहना दिया था। ऐसा लगा जैसे लोगों को आत्म-अनुशासन की सीख देने के लिए गाँधी जी ने भी “मास्क” लगा लिया हो। वैसे भी वे किसी और को ऐसी कोई सीख देते नहीं थे जिसका पालन वे खुद नहीं करते थे। लेकिन “मास्क” का रंग काला था तो पता नहीं क्यों मन में ऐसा बोध हुआ कि जैसे ये उनके सत्याग्रह का एक रूप है जिसमें वे दुनियाभर के सत्ताधीशों और उनसे भी बढ़कर जनता की स्वयं के अनुशासन-हीनता के प्रति अपनी असहमति के लिए अनशन कर रहे हों। मैंने पढ़ा है कि वे न केवल अंग्रेज सरकार के विरुद्ध वरन अपनों के किसी काम से असहमत होने पर भी वे मौन और उपवास रखकर सत्याग्रह करने बैठ जाते थे। लगा शायद आज भी वे वैसा ही कुछ कह रहे हों कि स्वच्छता और स्वालम्बन हम सबका कत्र्तव्य है। यदि हम स्वयं ही उदासीन हो जाएँ तो ईश्वर भी हमारी सहायता नहीं कर सकता।
इसी उधेड़-बुन में मेरी नज़र पड़ी कि उनकी प्रतिमा पर किसी चिड़िया का अपशिष्ट लग गया है। अब चिड़िया को कहाँ पता है कि यहाँ गाँधी जी की प्रतिमा लगी है जो जरा आगे-पीछे देख कर काम करे। और जब उनके अपने ही देश में सबसे समझदार प्राणी होकर भी लोग ही उन पर पलीता लगाने से नहीं चूकते तो फिर उस बेचारे पंछी का क्या कहें? फिर ख्याल आया कि ऐसा दूसरों पर आरोप लगाना बहुत ही आसान है, खुद के गिरहबान में झांक कर देखो तो पता चले कि खुद की करनी कैसी है। और फिर दुनियाभर में ऐसे खुले में प्रतिमा लगती है तो उस पर मैला-कचरा तो होता ही है चाहे वह किसी व्यक्ति की हो या किसी देवी-देवता की प्रतिमा हो। मन में ख्याल आया कि क्यों न मैं इस प्रतिमा को धो पोंछ कर साफ कर दूँ? मूर्ति को साफ़ करने का विचार तो अच्छा था पर ये काम हो कैसे? ये उलझन थी। सोचा क्यों ना घर जाकर एक बाल्टी पानी ले आऊँ। फिर खुद को सचेत किया कि कहीं ऐसा न हो कि घर पहुँचकर आलस में पड़कर वापस ही न लौटूं। दुविधा में पड़कर देर तक सोचता रहा कि क्या करूं। फिर सोचा कि अभी नहीं तो कभी नहीं। जो है, जैसा है उसी स्थिति में ही कुछ करना होगा अन्यथा तो ये संकल्प पूरा नहीं होगा और उसकी ग्लानि कहीं मेरा इस तरफ आना-जाना बंद न करा दे। उपाय खोजते हुए ये अन्दाजा लगाया कि मूर्ति से सबसे पास के हैण्ड-पम्प की दूरी कुछ 40 मीटर की होगी और अंजुरी भर पानी भी बहुत होगा इस छोटी सी मूर्ति के शीश को धोने के लिए। इसी इरादे से हैंड-पम्प पर जा पहुंचा और पानी निकालने लगा। पता नहीं कब से नहीं चला था तो पानी निकलने के पहले दो-चार हाथ चलाने पड़े। संयोग से उस समय उद्यान में सफाई कर्मचारी आये हुए थे जो कचरा आदि उठा रहे थे और उन्होंने मुझे पानी निकालते पाया तो मेरी ओर देखने लगे। मैं कुछ देर ठिठका उनकी प्रतिक्रिया के इंतज़ार में, लेकिन जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने एक जोर का हाथ लगाया और सामने जा अपनी अँजुरी में पानी भर लिया। पानी छलक ना जाये इसलिए सम्हलकर चलते हुए प्रतिमा तक पहुँचा लेकिन रास्ते में बहुत सा पानी उँगलियों के बीच से रिसकर बह गया था। जितना बचा था उतना पानी मूर्ति के शीश पर डाल कर धोने लगा। मूर्ति साफ तो हुई पर मन को संतोष नहीं हुआ इसलिए एक बार और पानी लाने के लिए हैंडपम्प की ओर बढ़ गया। इस बार जितना ज्यादा बन सका उतना पानी अपनी अँजुरी में लेकर तेजी से डग भरता मूर्ति तक पहुंचा और पानी डाल कर धोने लगा। बापू की किसी प्रतिमा को दो दशकों से भी अधिक समय के बाद इस तरह से छुआ था तो शरीर में एक सिरहन सी दौड़ गई।
उस दो अँजुरी पानी ने गाँधी जी की प्रतिमा को कितना धोया यह तो पता नहीं लेकिन मेरे मन को कुछ निर्मल जरूर कर गया था।
