पतझड़

जीवन की साँझ वेला में
देह के वृक्ष से
भूरे – पीले पत्तों सा
कुछ – कुछ झरने लगा !

आँखों की रोशनी
कम – सी हुई
तो श्रवण शक्ति क्षीण

अंग – प्रत्यंग में
वह स्फूर्ति नहीं
पर , देखती हूँ
अब भी बच रहती हैं

कुछ जिज्ञासाएँ
यह जानने की
इच्छा रहती है बाक़ी
कि जीवन मिला क्यों है ?

तुम्हारा स्वरूप

विराट से मेरा परिचय तो नहीं
हाँ कभी – कभी , कोई – कोई पल
अलग से रंग की सृष्टि करता
फिर , मन बाहर – भीतर तलाशता
कुछ पकड़ाई में नहीं आ पाता !

कभी तो यूँ भी हुआ है
कि आँखों से तो नहीं दिखता
पर, समूची चेतना
आँख की शक्ल ले लेती
रोम – रोम में अजब सी
सिहरन उठती

तुम्हीं कहो
क्या यही तुम हो ?

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