
भूत और भविष्य के सेतु : बुज़ुर्ग
– शशि पाधा
घनी शाखाओं वाले विशाल वटवृक्ष की ठण्डी छाँव हर प्राणी को राहत देती है और चिन्ताएँ हर लेती है। जो वृक्ष वसन्त की उन्मुक्त वायु तथा शिशिर के शीत थपेड़े सहन कर ऐसी विशालता को प्राप्त हुआ हो; जिसकी शीतल छाया में बैठ कर लोग आलौकिक शान्ति का अनुभव करते हों, आदरणीय एवं पूजनीय बन जाता है। ठीक वैसे ही हैं हमारे परिवार के बुज़ुर्ग,जिनकी छत्र छाया में हर परिवार शान्तिमय और सुखद जीवन बिताता हुआ फलता-फूलता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और परिवार उसी समाज की एक इकाई। भारत की तरह विश्व के अन्य देशों में भी संयुक्त परिवार का चलन रहा है जिसमें रहते हुए हर वय के, हर अवस्था के सदस्य का चहुँमुखी विकास होता आया है। संयुक्त परिवार एक सुरक्षा कवच के सामान हर सदस्य के सुख-दुःख का सहयोगी रहा है। किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। आज के भाग-दौड़ के युग में कई परिवार आर्थिक या व्यावसायिक कारणों से एकाकी जीवन जीने की प्रबल इच्छा रखते हुए छोटी-छोटी इकाइयों में बँट गये हैं। साथ ही आर्थिक व्यवस्था का ध्यान रखते हुए पति-पत्नी दोनो ही घर से बाहर धनोपार्जन के लिये जाते हैं। शायद आज यही समय की माँग भी है। लेकिन ऐसी स्थिति में माता-पिता दोनों ही आजीविका कमाने में इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों के साथ बिताने के लिए उनके पास समय का सदा अभाव ही रहता है। इन व्यस्त अभिभावकों के पास अपने छोटे बच्चों के उत्सुकता पूर्ण प्रश्नों के समाधान के लिये समय और धैर्य दोनों की कमी भी रहती है। इस अभाव की पूर्ति संयुक्त परिवार के वयोवृद्ध सदस्य बड़ी आसानी से कर सकते हैं। घर में रहते हुए बुज़ुर्ग बड़े धैर्य और स्नेह से बच्चों की हर आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं। हमारे बड़े बुज़ुर्गों के पास उनके बुज़ुर्गों से सुनी महाभारत, रामायण तथा पँचतन्त्र की कहानियाँ हैं। घर-परिवार के नन्हें-मुन्हें बच्चों को ये कहानियाँ सुना कर परोक्ष में वे उन्हें अपने नैतिक मूल्यों एवं संस्कारों के प्रति सजग करते हुए, अपनी साँस्कृतिक, एतिहासिक तथा धार्मिक आस्थाओं से समय- समय पर परिचित कराते हुए उनके चरित्र निर्माण में अमूल्य योगदान दे सकते हैं। आज संयुक्त परिवार में पलते हुए बच्चे जब अपने माता-पिता को उनके माता-पिता के साथ आदर, भक्ति तथा सेवा का व्यवहार करते देखते हैं तो इन पारिवारिक गुणों को वे सहज ही आत्मसात कर लेते हैं। धीरे-धीरे यह गुण उनके स्वभाव के बहुमूल्य अंग बन जाते हैं।
विश्व के हर देश में कामकाजी माता-पिता के बच्चों को संभालने/ पालने के लिये कई संस्थाएँ बनी हुई हैं जहाँ दिन भर के लिये बच्चों की देख भाल का प्रबन्ध होता है। प्रश्न केवल यह है कि क्या वहाँ के कर्मचारियों का उन नन्हें-मुन्नों के साथ भावनात्मक सम्बन्ध बन सकता है? एक ही कमरे में २०/ ४० बच्चों के साथ वैसे स्नेह और ममता का व्यवहार किया जा सकता है जो उनके अपने घर में उनके नाना-नानी या दादा-दादी बड़ी सरलता से कर सकते हैं ? कहते भी हैं कि मूल से सूद अधिक प्यारा होता है। यानी जिस निश्चल स्नेह से दोनों पक्ष एक दूसरे को आनन्द से सराबोर कर सकते हैं, वैसे नैसर्गिक सुख को कोई भी बाह्य व्यक्ति नहीं दे सकता। सब से मुख्य बात तो यह हो सकती है कि अगर बच्चे बड़े बुजुर्गों की छत्र छाया में पल रहे हों तो कामकाजी माँ बाप निश्चिन्त हो कर अपने व्यवसाय को सफल बनाने में तल्लीन एवं सक्षम हो सकते हैं।
आज का युवा वर्ग धैर्य और दूर दर्शिता की कमी से बहुत ही भावुक हो गया है। कई बार रोष में आकर बिना सोचे समझे वह ऐसे निर्णय ले लेता है जो कभी-कभी उसके लिए विनाशकारी सिद्ध हो जाता है। यदि परिवार में बड़ों से सलाह लेकर निर्णय लिया जाये तो परिवार कई आपदाओं से बच सकता है। हमारी पुरानी पीढ़ी अपने अनुभव के अनुसार नई पीढ़ी को उनके निर्णय के हानि -लाभ के बारे में समझा सकती है। आज के प्रतिस्पर्द्धा के युग में नौकरी करते हुए युवाओं को अपने अधिकारियों तथा सहकर्मियों के साथ काम करते हुए कई व्यवहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में बुज़ुर्गों का अनुभव उन्हें परिस्थिति के साथ सही ढँग से निपटने की सलाह के साथ-साथ प्रशासन तथा प्रबन्ध की दिशा में उनका मार्ग दर्शन कर सकता है।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में आकर कई भारतीय परिवार भी टूट रहे हैं। छोटी -मोटी कलह और miss understanding में पड़ कर पति- पत्नी विवाह के बन्धन से मुक्त होने की सोचते हैं। रोष, अहं तथा भावुकता से अन्धे हो कर लिये गए निर्णय उनके बच्चों के भविष्य को अँधकारमय बना देते हैं। ऐसी दुखद स्थिति से बचाने में परिवार के बड़े सदस्यों का बहुमूल्य योगदान हो सकता है। एक तो जिस घर में बड़े लोग रहते हों उस घर में उनका मान रखते हुए पति- पत्नि आपसी झगड़ा करने से पहले सोचेंगे अवश्य और अगर स्थिति सीमा से बाहर हो जाए तो अनुभवी वृद्ध दोनों पक्षों को समझा बुझा कर बच्चों के परिवार को उजड़ने से बचा सकते हैं। बुजुर्गो के अनुभव व प्यार से परिवार में सहनशीलता, एकता व सही उत्तरदायित्व की सीख मिलती है। इन्हीं के अनुभव व सीख से भावी पीढ़ी अपने विकास के साथ-साथ देश की समृद्धि में भी योगदान दे सकती है।
आज की पुरानी पारिवारिक आस्थाओं में परिवर्तन आ रहा है। कई परिवारों में नई पीढ़ी अपने अभिभावकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को भूलती जा रही है। कारण कुछ भी हो, कई बुज़ुर्गों को उनकी सहमति के बिना वृद्धाश्रमों में रहने के लिये बाध्य किया जा रहा है। वृद्धाश्रमों का व्यवधान इस लिये हुआ था कि कई निःसंतान या रोगी माता -पिता, जिनके बच्चे कुछ समय के लिये दूसरे शहर, देश में जीविकार्जन के लिये रह रहे हों , उनकी ऐसे आश्रमों में रह कर सही देख भाल हो सके। साथ ही बुज़ुर्ग भी सम आयु के लोगों के साथ रह कर अपना जीवन सुख से बिता सकें। किन्तु आज ऐसा देखा जा रह है कि कई परिवारों में बड़ी आयु के लोगों को अपने जीवन की दौड़ में बाधा मानते हुए बिना किसी कारण के वृद्धाश्रमों में, अपने प्रिय जनों से दूर, एकाकी जीवन जीने के लिये ढकेला जा रहा है। यह किसी भी समाज के लिये अत्यन्त निन्दनीय बात है। ऐसी सन्तान यह भूल जाती है कि जिन माता-पिता ने बड़ी मेहनत और, लाड़-प्यार से पाल पोस कर अपने बच्चों को इस योग्य बनाया है कि वे स्वावलम्बी हो कर समाज में अपना सही स्थान बना सकें, वही सन्तान इन श्रद्धेय तथा स्नेही माता-पिता की भावनाओं का निरादर करते हुए उन्हें ऐसी संस्थाओं में छोड़ कर मातृ-पितृ धर्म से मुक्त होना चाहते हैं। वे शायद यह भूल रहे हैं कि परोक्ष में अपने बच्चों को उनके प्रति वैसे ही व्यवहार के लिये मार्ग दिखा रहे हैं।
इस पूरे संदर्भ में एक बात उल्लेखनीय है कि पारिवारिक उन्नति, शान्ति एवं खुशहाल वातावरण बनाने के लिये युवा वर्ग के साथ-साथ वरिष्ठ सदस्यों का उत्तरदायित्व अधिक है। संयुक्त परिवार में रहते हुए हमारे बुज़ुर्गों के लिए भी अपनी दिनचर्या, स्वभाव और आचरण में बदलाव लाना अत्यावश्यक है। आज की बदलती हुई सामाजिक, पारिवारिक परिस्थितियों में अगर वे अपनी रूढ़िवादी मान्यताओं को नई पीढ़ी पर थोपेंगे तो कलह का कारण बन सकते हैं। सब से पहले तो वे अपने स्वास्थ का पूरा ध्यान रखें ताकि अपने कामकाजी बच्चों की चिन्ताओं को और न बढ़ायें। घर के काम काज में पूरा योगदान दें। बागवानी, योगाभ्यास, कम्प्यूटर, आदि कोई न कोई ऐसा शौक अपनायें ताकि प्रसन्नतापूर्वक अपना समय बिता सकें। बुज़ुर्ग इस बात से सदा सतर्क रहें, चूंकि वे बड़े हैं इसलिए उनकी इच्छा, राय और पसन्द ही हर मौके पर मान्य हो, ऐसी धारणा से बचें। ऐसे में एक फलते-फूलते परिवार में बेबसी तथा दबाव का वातावरण पैदा हो सकता है। सम्भव हो तो उन्हें परिवार में आर्थिक सहयोग भी देना चाहिये। उन्हें बदलते समय के साथ स्वयं को भी बदलना पड़ेगा। वे अपने सार्थक सहयोग से परिवार के आदरणीय़ एवं पालक बने रह सकते हैं।
आज जी वृद्ध पीढ़ी के पास साहित्य,संस्कृति, पौराणिक कथा कहानियों एवं नैतिक दृष्टान्तों का वृहद कोष है। वे तो अनुभव की खान हैं। ये बुज़ुर्ग अपने इस संचित कोष के अमूल्य रत्नों को भावी पीढ़ी के कोषागॄह में सहज ही स्थानान्तरित कर सकते है। यह पीढ़ी प्रत्येक परिवार के लिये भूत और भविष्य को जोड़ने में एक दृढ़ सेतु के समान है जो एक वृहद समाज के बीते कल-आज और आने वाले कल को जोड़ने में सक्षम भी है और इच्छुक भी।
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