विचारों की भीड़ (वार्तालाप)

-इन्द्रा (धीर) वड़ेहरा

प्रश्न :​याद आते हैं दादा जी के शब्द जो अक्सर दोहराया करते थे : “ध्यान करने बैठो, साधना होने लगेगी।” ध्यान और साधना में कुछ भेद है क्या ?
–ललिता थापर (भारत)

उत्तर :​लगता है आपके दादा जी का कहने का भाव था “ध्यान करने बैठो, मौन-क्षण घटने लगेंगे।” ललिता जी, परिभाषा की दृष्टि से, मन से अलग हो, मन को दृष्य समझ कर निहार लेने की युक्ति को “ध्यान” कहा जाता है और यही प्रक्रिया परिपक्व होते होते जब मन मौन में भी विश्राम लेने लगे तो उसे “साधना” कहते हैं। साधना समय हम अपने मन के प्रति जागरुक ही नहीं रहते, बल्कि मौन का अनुभव भी करते हैं और मौन समय एक विशेष सी शान्ति की अनुभूति भी होती है।
ललिता जी, आप के दादा जी का व्यक्तित्व उच्च कोटी का रहा होगा जो अपने नाती-पोते को विरासत में “शान्ति की अनुभूति” देना चाहते थे। वाह-वाह, मेरा नमस्कार है आप के दादा जी को।

प्रश्न :​मन के संबंध में जानकारी तो हमें किताबों से भी मिल सकती है, फिर साधना करने का इतना ज्यादा महत्व क्यों ?
–सुकेत धीर (भारत)

उत्तर :​सुकेत जी, मन के संबंध में जानकारी ले लेना एक बात है, लेकिन, मन के प्रति जागरुक होना अलग बात है, किताब पढ़ कर हम अपने मन के प्रति जागरुक नहीं हो पाएंगे, इसके लिए अभ्यास आवश्यक है। साधना का महत्व जागरुक होकर जी लेने में है। मन के विषय में जान लेना “ज्ञान” है, और अपने आप को जान लेना “आत्म-ज्ञान” है। साधना हम आत्म-ज्ञान के लिए करते हैं। जागरुक होकर रहेंगे तो मन से उठ रही लहरों के जाल में नहीं फंसेगे और कुछ स्वतंत्रता से जीएंगे।

प्रश्न : ​साधना में महत्व किस बात का है ? कैसे विचारों का महत्व है ?
–सुमन मलहोत्रा

उत्तर :​सुमन जी, अपनी विवेक शक्ति को विचारों के अन्धड़ वेग से दूर ही रखना चाहिए। विचार चक्र-व्यूह सा जाल बुन, वीर अभिमन्यु सी विवेक शक्ति का हरण कर, उस पर प्रहार कर जाते हैं ; इस लिए विचार जिगरी दोस्त सा हो या दुश्मन सा, इन से सम्बन्ध विच्छेद ही भला है।

सुमन जी, साधना में महत्व किसी भी प्रकार के विचारों का नहीं, महत्व केवल विचारों से हट कर एक तरफ हो जाने का है। जरूरत विचारों को निहार कर, उनका निरीक्षण करते हुए उन्हें जान लेने की है और विशेष कार्य अपने ही विचारों के साथ संबंध स्थापित ना हो इसी बात का है।
प्रश्नोत्तर स्पष्टीकरण के लिए, मैं एक प्रश्न और ले रही हूँ, जिस के माध्यम से केवल आप के प्रश्न का उत्तर ही स्पष्ट नहीं होगा, बल्कि आप को साधना के विषय में प्रत्यक्ष रूप से जानकारी भी मिलेगी।

प्रश्न : ​(प्रश्न का हिंदी अनुवाद) :​पीछे आप ने समझाया था कि साधक के लिए जितना महत्व अपने आप को (अपने विचारों को) जान लेने का है, उतना ही महत्व आत्म-स्थित हो मौन में ठहर जाने का है। यह तो समझ आया है कि आत्म-स्थित होते हैं तो अपने विषय में जानकारी आसानी से होने लगती है, और अपने विषय में जानकारी हो तो मौन में आत्मस्थित हो जाना भी आसान है; यानि यह भी जान लिया है कि यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। कोई ऐसा सूत्र है जिससे यह सब आसानी से होने लगे ?
–कौंसिलर व्हाईट (कैनेडा)

उत्तर :​​आत्म ज्ञान हेतु कुछ साधक ऋषि के आश्रम में रहने लगे। एक बार ऋषि अपने शिष्यों के साथ यात्रा के लिए निकले, रास्ते में वह एक गाँव से गुजर रहे थे तो उन्होंने उसी गाँव में नदी के किनारे कुछ दिन रहने का निश्चय किया। एक दिन वह अपने शिष्यों को लेकर गाँव गए तो कुछ भीड़ दिखाई दी। वहां से राजा की सवारी निकल रही थी। लोग बड़े उत्साह से उसे देखने की इच्छा से खड़े थे। जब सब कुछ गुजर गया, तो सारी टोली अपने पड़ाव पर घर वापिस लौटी।
घर लौट ऋषि ने अपने शिष्यों से पूछा : आज आप ने क्या देखा ?

एक साधक ने उत्तर दिया :

” भीड़ देखी, काफिला निकला, लोग राजा की सवारी का इंतज़ार कर रहे थे, मैं किनारे पर खडा रहा, ना किसी राजा की सवारी का इंतज़ार था और ना ही भीड़ से निकल जाने की जल्दी। ज्यों ही भीड़ निकली, मैं अपने घर लौट आया।”

बाहरी दृष्य के माध्यम से ऋषि ने यहाँ भीतर के अचेतन की ओर संकेत किया है।

“…ज्यों ही भीड़ निकली, मैं अपने घर लौट आया “

कौंसिलर व्हाईट, ‘घर लौट आना’ यहाँ आत्म-स्थित हो जाने का आलंकारिक चित्रण है। जैसे घर हमारे शरीर का आधारभूत स्थान है, वैसे ही आत्म-स्थित हो जाना हमारे मन का आधार स्थल है।

सार घर लौट आने में है और “एक तरफ किनारे पर खड़ा रहना” घर लौट आने में सहायक है। आत्मा का स्वरूप रसमय है, इस रस में आनंद भी है और तृप्ति भी। इस लिए, अधीर मन घर वापिस लौट जाने को आतुर है। वह जीवन के पोषण स्रोत से जुड़ जाना चाहता है।

“…ज्यों ही भीड़ निकली, मैं अपने घर लौट आया “

भावार्थ :​मन से दूरी पैदा करने के लिए, मन से अलग हो “मैं किनारे पर खडा रहा।”

अभिप्राय : ​भावना विचार धारा की लहर संग बह लेने को राजी कर रही थी और मैं सचेत रहा
यहां साधक इस तथ्य से जागरुक है, “चेतना ने झपकी ली तो उलझे।”

सार :​भीतर का अचेतन लहरें लेता रहता है और इस मूर्छा में हमारी कल्पना का संसार फैलता चला जाता है। यहाँ साधक को ना तो माया की चमक-दमक प्रभावित कर पाई और ना ही घर लौट आने की जल्दी उसकी स्वाभाविक-स्थिरता के संतुलन में बाधा बनी।

प्रश्न :​दृष्य में हम क्यों उलझते हैं ?

देखते दखते मूर्छा सी आ जाती है और हम दृष्य के भोक्ता होने लगते हैं,।

चेतावनी:​आई लहर, गयी लहर, जो आए और जाए वह शाश्वत नहीं है, सतत रहने वाला शाश्वत है। जो थोड़ी देर के लिए है उस में क्या उलझना ; भोक्ता नहीं द्रष्टा बनो, साक्षी भाव में रहो।

निष्कर्ष :​आत्मा का स्वरूप रसमय है, इस रस में आनंद भी है और तृप्ति भी। इसी रस की उपलब्धि के लिए साधक आत्म-स्थित होना चाहता है। बुद्धिमान लोगों की घर वापसी, यानि “आत्म-स्थित होना” उनके अपने जीवन-पोषण स्रोत से रस ग्रहण करने या अपने आनंद-स्रोत की कड़ी से जुड़े रहने के लिए होती है।

प्रश्न : ​हमारे मन में इतनी भीड़ किस कारण से रहती है ?

उत्तर :​सोई हुई चेतना माया की गुलाम है और मानव इसकी चमक दमक से भ्रमित है।
कहीं गहरे में आनंद की चाह बनी रहती है। अपने आप को राजा सा सवार देखने की इच्छा और उसकी इंतज़ार कारण भीड़ है।

संत तुका राम जी के विषय में एक बात जानने योग्य है।
संत तुका राम जी से किसी ने पूछा : आपके घर वाले आपको इतना तंग करते हैं, आप तो परेशान रहते होंगे।
संत तुका राम जी बोले : हर क्षण वह याद दिला देते हैं तो अन्दर झाँक लेता हूँ, ‘कहीं उथल पुथल तो नहीं हो रही’।

तुका राम जी के शब्द उद्धृत करने से अभिप्राय यह है कि जो भगवान से जुड़े रहना चाहते हैं वह अंदर की उथल-पुथल के प्रति सदा सतर्क रहते हैं और ध्यान रखते हैं कि भीतर का मौन नहीं डोले।

जीवन जीने की रूपरेखा का चित्रण रहीम जी के निम्नलिखित शब्दों से दिया है जो साधना प्रक्रिया के लिए भी एक उपयुक्त आलंकारिक चित्रण है :

“रहिमन या तन सूप है, लीजै जगत पछोर।
हलुकन को उडी जान दै, गरुए राखी बटोर।। “

जिस प्रकार छाज से अन्न को फटक कर हल्के दाने निकाल कर फेंक दिए जाते हैं और उपयुक्त दाने रख लिए जाते हैं इसी प्रकार हे मनुष्य, इस मानव-योनि-रूपी छाज से सांसारिक विषयों को फटका कर देख ले और जो सारवान तत्व है उसे ग्रहण कर।

संक्षेप में :​’ध्यान’ सांसारिक विषयों के प्रति संयम विकसित करने के लिए और ‘साधना’ सारवान तत्व को ग्रहण करने के लिए की जाती है। अति उत्तम प्रश्न भेजने और प्रश्नोत्तर वार्तालाप में भाग लेने के लिए आप सब का धन्यवाद करती हूँ।।।

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