
पहाड़ों के बीच धर्मों का संगम : राजगीर
डॉ वरुण कुमार
दिल्ली आने के बाद मैं जब भी मैं अपने कोलकातावासी मित्र अनिल जी से पूछता हूँ – “कहीं गए?”
“नाः कहाँ जाएंगे। आपको तो मालूम ही है।”
उन्होंने हमारे साथ चार-पाँच बार घूमने के बाद अन्य लोगों के साथ दो बार जाने के बाद कसम खा ली कि हमारे सिवा और किसी के साथ घूमने नहीं जाएंगे। उन चार-पाँच दौरों में शिमला, जबलपुर, पारसनाथ, बोक्खाली (बंगाल का एक समुद्रतट) के साथ राजगीर भी था। मुझे दुख होता है कि मेरे दिल्ली आने के बाद से उनका घूमना बंद हो गया है। उत्साही आदमी हैं, और घूमने के लिए बड़े अच्छे सहयोगी भी।
राजगीर – पहाड़ियों से घिरी इस मनोरम जगह की याद मेरे बहुत बचपन की है, जब मैं सात-आठ साल का बच्चा रहा हूंगा। मेरे पिताजी के एक दोस्त की शादी में आना हुआ था। इसे फिर से देखना था। परिपक्व होने और कुछ इतिहास पुराकथा ज्ञान से लैस होने के बाद। नालंदा भी देखना था।
हावड़ा से दिल्ली जानेवली मेन लाइन की रेलगाड़ी पकड़कर हम बख्तियारपुर उतरे और वहाँ से दूसरी रेलगाड़ी से राजगीर – पुराना नाम राजगृह। हमने राजगीर के रेलवे अधिकारी विश्राम गृह में पड़ाव डाला। अगले दो दिन यहीं। उसके बाद नालंदा जाएंगे।
राजगीर पाँच पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम हैं – विपुलगिरि, रत्नगिरि, उदयगिरि, स्वर्णगिरि और वैभारगिरि। पहाड़ियों से घिरी घाटी होने के कारण यहाँ का मौसम खुशगवार है। ऊँचाई ज्यादा नहीं है, इसलिए मैदानी इलाकों की अपेक्षा तापमान थोड़ा कम रहता है, हालाँकि जब हम पहुँचे उस समय यहाँ खासी गर्मी पड़ रही थी।
राजगीर ऐतिहासिक से अधिक पौराणिक महत्त्व का स्थल है। इसे देवनगरी कहते हैं। यहाँ के ब्रह्मकुंड के बारे में मान्यता है कि इसे स्वयं ब्रह्माजी ने प्रकट किया था। महाभारतकालीन जरासंध राजगीर के राजा थे। उन्होंने यहीं श्रीकृष्ण को हराकर मथुरा से द्वारिका जाने को विवश किया था। यह सिर्फ हिंदू धर्म की ही नहीं, बौद्ध और जैन धर्मो की अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण स्थली है। बुद्ध यहाँ कई वर्षों तक ठहरे थे। उनके उपदेशों को यहीं लिपिबद्ध किया गया गया था। पहली बौद्ध संगीति भी यहीं हुई थी – ईसा से हजार वर्ष पूर्व। जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं दिया था। इतिहास के पहलू से देखें तो यह मगध साम्राज्य की राजधानी था। राजधानी को राजगीर से पाटलिपुत्र (आज का पटना) ले जाने का काम बिम्बिसार ने किया। यह श्रेणिक, बिम्बिसार, कनिष्क आदि प्रसिद्ध शासकों की निवास स्थली रहा। अत्यंत प्राचीन होने के कारण राजगीर के कई नाम रहे – वसुमतिपुर, वृहद्रथपुर, गिरिव्रज, और कुशाग्रपुर। राजगीर का जिक्र महाभारत और रामायण, उससे भी पूर्व ऋगवेद, अथर्ववेद तथा तैत्तिरीय उपनिषद, वायु पुराण आदि में भी आता है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसाार मथुरा से लेकर राजगृह तक महाजनपद था, जो मथुरा से शुरू होकर वैरंजा, सोरेय्य, संकिस्सा, कान्यकुब्ज होते हुए प्रयाग प्रतिष्ठानपुर जाता था, जहाँ पर गंगा पार करके वाराणसी पहुँचा जाता था।
इन्टरनेट में बिहार पर्यटन की साइटों पर राजगीर के प्राकृतिक सुषमा का काफी बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन मिलता है। लेकिन बचपन में देखी जिस हरियाली की याद थी, इस बार उसके दर्शन नहीं हुए। हो सकता है इसके लिए मई-जून का गर्म मौसम भी जिम्मेदार रहा हो। रत्नगिरि पर्वत पर स्थित बौद्धों के प्रसिद्ध शांति स्तूप को रज्जु मार्ग (रोपवे) से जाते समय बचपन में खटोली पर बैठे सैकड़ों फीट नीचे पहाड़ियों के बीच जिस घने जंगल को मैने देखा था, वह इस बार उजड़ा-सा, बीच-बीच में मकानों, खेतों से भरा था। तब घाटी और जंगल से जाने के लिए सीढ़ियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन इस बार सीढ़ियाँ बन गई थीं। मैं सीढ़ियों से ही नीचे लौटा। तपोवन भी तोपवन नहीं था, शहर का मुहल्ला बन गया था।
लेकिन तब मैं बच्चा था। प्रकृति के आकर्षण से आगे इतिहास और पुराण के आकर्षण में गति नहीं थी। इसलिए इस बार राजगीर की प्रकृति भले मुझे पहले सी मोहित नहीं कर पाई हो, राजगीर के इतिहास और मिथक ने मन को बाँधे रखा। जरासंध का अखाड़ा, स्वर्ण भंडार, वेणुवन, तपोवन, पावापुरी। पर्यटक अगर केवल ‘दर्शक’ भर नहीं है तो यहाँ इतिहास और पुराण उसे फंतासी की दूसरी ही दुनिया में ले जाने के लिए तत्पर खड़े हैं। यह देखिए महाभारत का दुर्दांत शासक जरासंध का अखाड़ा, जिससे रण छोड़कर भागने के कारण कृष्ण का नाम ‘रणछोड़’ पड़ा। इस अखाड़े में जरासंध का हृदयविदारक, बल्कि कहना चाहिए, ‘पाद-विदारक’ अंत हुआ था। कल्पना में दृश्य उभरता है – एक टीले पर पत्थरों की दीवार से घिरे अखाडे में दो दुर्द्धर्ष महाकाय योद्धा मल्ल युद्ध कर रहे हैं। भीम और जरासंध। उनके जांघों पर ताल ठोकने की आवाज दूर तक गूंजती है। एक से बढ़कर एक दाँव और जोर आजमाइश। कोई किसी से दबने का नाम नहीं लेता। अखाड़े की मिट्टी उनके पसीने से गीली होकर पंकिल बन गई है। फैसला नहीं हो पा रहा है। सूरज डूब जाता है। अगले दिन फिर दोनों भिड़ते हैं। सत्रह दिनों तक दोनों लड़ते रहते हैं। जरासंध के जिस भी अंग को भीम तोड़कर शरीर से विच्छिन्न कर देता है वह वरदान के कारण जरासंध के शरीर से फिर से जुड़ जाता है। अठारहवें दिन भीम भारी पड़ता है। वह जरासंध को चित्त करके उसके एक पैर पर अपना पैर रखकर उसका शरीर दो टुकड़ों में चीर कर दो दिशाओं में फेंक देता है। अब टुकड़ों के जुड़ने का उपाय नहीं। भीम का विजयोन्मत्त अट्टहास आकाश तक को गुंजा रहा है। एक क्रूर शासक का हृदयविदारक अंत! और विजेता की वैसी ही क्रूर उन्मत्तता! वह आज की तरह ‘सभ्य’ नहीं, बल्कि आदिम संस्कारों से युक्त झबरा-झबरा युग था। टीले से थोड़ी दूर पहाड़ी की एक गुफा में जरासंध का स्वर्ण कोष हुआ करता था। लोगों का विश्वास है अभी भी इसमें सोना छिपा है और उसे पाने का रहस्य उसके पत्थर के दरवाजे पर किसी गुप्त भाषा में खुदा हुआ है।
एक तरफ क्रूरता और वीरता की यह लोहमहर्षक गाथा और दूसरी तरफ वहाँ से मात्र ग्यारह-बारह मील दूर पावापुरी में देवोपम करुणा की साक्षात मूर्ति वर्द्धमान महावीर का निर्वाण। बुद्ध की करुणा भले ही अधिक विख्यात हुई हो, वह महावीर की करुणा की जितनी दूर नहीं जाती। एकमात्र महावीर का जैन दर्शन ही है जो जीवनमात्र को मूल्य देता है। इसीलिए जैन मुनि नाक-मुँह पर कपड़े का आवरण रखते हैं ताकि उसके रास्ते कोई कीड़ा भी अंदर जाकर मर न जाए। हमारे गाइड ने बताया कि महावीर के निर्वाण के बाद वहाँ की पवित्र भूमि की मिट्टी लेने के लिए इतने लोग आए कि उससे जमीन खुदकर एक तालाब ही बन गया। जैसे कमल लताओं से आवृत महावीर, वैसे ही कमलों से ढका यह तालाब। बीच में मंदिर! यथार्थ भी कैसा विलक्षण रूपक रचता है! आधी हकीकत, आधा फसाना। लेकिन मिथकों, पुराकथाओं का निर्माण ऐसे ही तो होता है। थोड़ी सी संवेदनशीलता और कल्पनाप्रवणता से इतिहास और पुराकथा की अतीत से चली आ रही निरंतरता को, खंडहरों के बीच इतिहास और पुराण के उस रोमांच को सचमुच रोओं में महसूस किया जा सकता है। लेकिन एक पर्यटक के पास किसी अध्येता की तरह इतिहास और पुराण के सागर में गोते लगाने का अवकाश भी कहाँ होता।
ब्रह्म कुंड को प्रकट करते समय कहीं ब्रह्मा जी का मूड तो गरम नहीं था, वरना कुंड का पानी खौलता-सा गरम क्यों है? ब्रह्माजी तो रचयिता हैं, सर्जक हैं। कवि-कलाकार वगैरह गुस्से में कोई कविता-कहानी-चित्र रच दें तो माफ किया जा सकता है लेकिन सृष्टि का रचयिता गुस्से में रचना-सर्जना वगैरह करे, शोभा नहीं देता। मैं ब्रह्म कुंड में एक-दो बार पाँव डालकर कोशिश करने के बाद भी उसके तप्त जल में उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। जब मैं उसके ताप को नहीं सह पाया तो मेरी ‘नाजों पली’, पतिप्रेमाप्लावित, ‘पैम्पर्ड’, मानिनी भला क्यों सहती? मेरे अन्य तीन साथी, एक बाल सखा, एक जॉब-सखा और एक साहित्य सखा (वे हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार हैं) भी उसमें नहीं उतरे। वैसे भी गर्मी का मौसम था और कुंड में पहले से ही उतरे हुए लोगों की इतनी भीड़ थी कि उसमें प्रवेश का उत्साह नहीं हुआ।
ब्रह्म कुंड के आसपास और कई कुंड हैं। उनका पानी भी गर्म है मगर ब्रह्म कुंड जितना नहीं। शायद जमीन में गंधक का स्रोत होगा। इन कुंडों के बारे में कहा जाता है कि इनका निर्माण ब्रह्मा के मानस पुत्र राजा बसु ने एक यज्ञ के दौरान विभिन्न देवी-देवताओं के स्नान करने के लिए कराया था।
किंतु पाण्डु पोखर में पर्याप्त शांति थी। पहाड़ों से घिरी इस मनोरम जगह में एक बड़ा सा तालाब है जिसके बारे में कहा जाता है कि महाभारत में वर्णित पांडवों के पिता पाण्डु इस पोखर में स्नान करने आते थे।
आज राजगीर में पर्यटकों को रोमांच का मजा दिलाने के लिए जू सफारी, नेचर सफारी, शीशे का आकाशी पुल (स्काई ग्लास ब्रिज) आदि बना दिए गए हैं लेकिन राजगीर का महत्व इसके अतीत के अवगाहन में है न कि तेंदुए बाघ, हिरण और लकड़बग्धे देखने में, या रस्सी के लटककर नदी-तालाब पार करने में। जो जगह जिस चीज के लिए विख्यात है उसे उसी पर केंद्रित रखा जाना चाहिए। आधुनिक भारत में पर्यटन के नाम पर एक बड़ी मोटी सोच उभरी है। पर्यटन चाहे आस्थावश (धर्म) किया जा रहा हो, या इतिहास की जिज्ञासावश या प्राकृतिक सुषमा को देखने के लिए, सरकार सबको एक ही लाठी से हाँक देती है। कल को वहाँ जुआघर भी खुल जाए तो आश्चर्य नहीं। पहले तीर्थाटन हुआ करता था। कुछ वर्ष पहले जैन मुनियों ने गिरिडीह में पारसनाथ को पर्यटन स्थल घोषित होने का ठीक ही विरोध किया था। इतिहास और पुराकथाएँ केवल विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जानेवाली चीजें नहीं हैं, इनकी चेतना उनके जीवित समुदायों में होनी चाहिए।
ऑटो का द्रुत साधन रहने के बावजूद मैंने जहाँ मौका मिला, तांगे को ही वरीयता दी, हालाँकि घोड़े पर होते अत्याचार को देखकर मन दुखी भी होता रहा। लेकिन वहाँ एक जगह का नाम ‘घोड़ाकटोरा’ मनोरंजक लगा – न यहाँ घोड़े का कोई तबेला या कुछ और था, न ही यह जगह कटोरे जैसी थी। यह छोटी पहाड़ियों से घिरी झील है, जहाँ उस दिन दोपहर में अद्भुत शांति थी। हमारे सिवा कोई नहीं था। झील के बीच में अब बुद्ध की प्रतिमा बना दी गई है। यहाँ मैंने और मेरे बालसखा मित्र ने झील में स्नान किया और तैरने का आनंद लिया। तपती दोपहरी में शीतल जल में स्नान अत्यंत शांति और स्फूर्तिदायक था।
वेणुवन, तपोभूमि, गृद्धकूट पर्वत, बाबा सोमनाथ सिद्धनाथ महादेव मंदिर, वीरशासन धाम आदि अन्य दर्शनीय स्थलों में कुछ को देखते, कुछ को छोड़ते हमने राजगीर का निर्धारित दो दिन का समय पूरा किया। मेरी मूल रुचि नालंदा में थी। अगले दिन नालंदा और वहाँ से बोधगया – बौद्ध धर्म के दो अत्यंत पवित्र केंद्र – एक मृत एक जीवित, एक खण्डहर एक तीर्थ। राजगीर की यात्रा इसकी पूर्वपीठिका की तरह थी।
आज जबकि दुनिया में अब्राहमिक मजहब, विशेषकर इस्लाम और ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी आपस में लड़ रहे हैं, राजगीर इस बात का संदेश है कि आस्थाओं के बीच संवाद होना चाहिए, संघर्ष नहीं। राजगीर में पहाड़ों के बीच विचरण करते हुए इसका एहसास तीव्र था। राजगीर विश्व में धर्मों के संगम और सहअस्तित्व का एक प्राचीनतम प्रतीक है। बल्कि ऐसे स्थलों से भरा पूरा भारत ही दुनिया के समक्ष प्रतीक है – एक जीवंत प्रतीक!
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(साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ (नवम्बर-दिसम्बर २०२४) में प्रकाशित)
(‘यह हंस अहा तरता तरता’ पुस्तक में संकलित यात्रा संस्मरण। किताब घर प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य।)