ओ ईंट

काली मिट्टी में से पाथकर
पथेरे ने रूप बदला तेरा
ओ ईंट!
ओ कच्ची-पीली सी
जून भोगती ओ ईंट!
अनचाही, अनजानी ठोकरें
खा-खा कर टूटती रही तू
टोटे होकर सखियों से
बिछुड़ती रही तू
अपनों के भी विछोह सहती हुई
ओ ईंट!
रख दिया पाथ कर तुझे
पाथर स्थानों पर
खुले आकाश के तले
निपट तन्हा तन्हा
सर्दी, गर्मी, लू की तपिश
सहती हुई, मगर
कुछ भी न कहती हुई
ओ ईंट!
तुम्हारे दर्द में किसी हमदर्द ने
आह भी न भरी–
अग्नि, कोयला, भट्टियों में
तन को जलाती झुलसती रही तू
ओ ईंट!
झेला अनंत दर्द
वजूद ओ रंग-रूप भी बदला
गेरूआ वर्ण, दुलहन वेष,
सजा गई तू, ओ ईंट!
तू नींवों के नीचे दबी
तू चिनी गई दीवारों में
तुझे काट-पीट कर टुकड़े-टुकड़े किया
तू कारीगर के रहम पर ही रही
तन छलनी-छलनी करवाती रही
ओ ईंट!
राजगीर के बेरहम हाथों आकर
कटती, पिटती, छलनी होती
घर, बँगले, महल, हवेलियाँ
मंदिर-मीनार, मसजिद बनती रही–
नहीं कोई जो तेरा मर्म जाने
तेरी आह भी सुने
सब की ज़रूरत,
सब की बेगानी,अनजानी
ओ ईंट!

*****

– बमलजीत ‘मान’

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