छायावाद हिंदी साहित्य के उत्थान की काव्य-धारा
– डॉ अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में द्विवेदी युग के बाद के काल को छायावादी युग कहा जाता है। इस युग में महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, जयशंकर प्रसाद तथा सुमित्रानंदन पंत जैसे महान कवियों का उदय हुआ। छायावाद हिंदी साहित्य के उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग सन 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही। जयशंकर प्रसाद के अनुसार,” कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश के सुन्दर बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।”
सबसे पहले छायावाद शब्द का इस्तेमाल आदरणीय मुकुटधर पाण्डेय ने किया था। इन्होंने सर्वप्रथम 1920 ई में जबलपुर से प्रकाशित श्रीशारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने छायावाद शब्द का प्रयोग पहली बार किया। छायावादी कविता उस समय के तत्कालीन स्वच्छंदतावादी आंदोलन से जुड़ी हुई थी। वस्तु निरूपण के स्थान पर अनुभूति निरूपण को प्राथमिकता दी गयी। यह काव्य स्वच्छंद, कल्पनापूर्ण और भावुक था। कुछ लोग छायावाद को स्वच्छंदतावाद भी कहते हैं। देश के सुप्रसिद्ध समालोचक आदरणीय नामवर सिंह ने छायावाद के बारे में लिखा है – “छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी वर्मा की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।”
प्रकृति प्रेम, नारी सौंदर्य प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पनाशीलता आदि छायावादी युग की विशेषताएं हैं। छायावादी युग में हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः स्थापित कर दिया। फलस्वरूप ब्रजभाषा हिंदी काव्य-धारा से बाहर हो गई। इसने हिंदी को नई शब्दावली, नये प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए। इसके प्रभाव से इस दौर की गद्य की भाषा भी समृद्ध हुई। इसे ‘साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग’ भी कहा जाता है।
प्रकृति प्रेम
छायावादी युग को प्रकृति उपासक तथा सौन्दर्य पूजक कवियों का युग कहा जाता है। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि- “प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’
छायावादी युग में प्रकृति प्रेम की मूल विशेषता यह है कि वे प्रकृति के अंदर नारी का रूप देखते हैं। उसकी छवि में किसी प्रेयसी के सौंदर्य-वैभव का साक्षात्कार करते हैं। प्रकृति में किसी यौवना की भाव-भंगिमाओं का प्रतिबिंब देखते हैं। पेड़ के पत्ते के मर्मर में किसी किशोरी का मधुर आलाप सुनते हैं। प्रकृति में चेतना का आरोपण सर्वप्रथम छायावादी कवियों ने ही किया था।
जैसे,
कौन तुम रूपसी कौन
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज माया में छवि आप
सुनहला फैला केश कलाप
मंत्र मधुर मृदु मौन – (पंत)
बीती विभावरी जाग री,
अम्बर पनघट में डूबो रही
तारा घट उषा नागरी। – (प्रसाद)
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से
उतर रही
वह संध्या सुंदरी परी-सी धीरे-धीरे। – (निराला)
नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण
इससे आगे चलकर छायावाद अलौकिक प्रेम के रूप में सामने आता है। छायावादी कवियों ने नारी के रूप रंग वा सौंदर्य का अद्वितीय वर्णन किया है तथा नारी के प्रेम को आलौकिक माना है। कामायनी में प्रसाद जी ने श्रद्धा के चित्रण में जादू भर दिया। छायावादी कवियों का प्रेम भी विशिष्ट है।
छायावादी युग में स्थूल सौंदर्य की अपेक्षा सूक्ष्म सौंदर्य का चित्रण किया गया। जहाँ तक प्रेरणा का सवाल है छायावादी कवि रूढ़ी, मर्यादा अथवा नियमबद्धता का स्वीकार नहीं करते।
छायावादी युग में प्रेम की दूसरी विशेषता है – वैयक्तिकता। इस युग के कवियों ने निजी प्रेमानुभूति की व्यंजना की है। छायावादी काव्य में मुख्य रूप से व्यक्तिगत भावनाओं की प्रधानता थी।। छायावादी काव्य के माध्यम से कवि अपनी भावनाओं को व्यक्त करता था।
छायावादी युग में तीसरी विशेषता है- सूक्ष्मता। इन कवियों का श्रृंगार-वर्णन स्थूल नहीं, इन्होंने सूक्ष्म भाव-दशा का वर्णन किया है।
चौथी विशेषता यह है कि इनकी प्रणय-गाथा का अंत असफलता में परिणित होता है। अतः इनके वर्णनों में विरह वेदना का पुट अधिक है।
काव्य की प्रवृत्तियाँ
वैयक्तिकता
प्रकृति-सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना
श्रंगारिकता
रहस्यानुभूति
तत्त्व चिंतन
वेदना और करुणा
मानवतावादी दृष्टिकोण
नारी के प्रति नवीन दृष्टिकोण
आदर्शवाद
स्वच्छंदतावाद
देश-प्रेम एवं राष्ट्रीय भावना
प्रतीकात्मकता
चित्रात्मक भाषा एवं लाक्षणिक पदावली
गेयता
अलंकार-विधान
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