
अनुवाद की अंतरगाथा
– दिव्या माथुर
दक्षिण एशिया का जीवंत बहुभाषावाद हमारी साहित्यिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो स्थानीय और प्रवासी संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। हमें मानना होगा कि अनुवाद के अमूर्त पर बातचीत करने से ही भाषाओं के बीच की ख़ामोशी टूटेगी। साउथ-एशियन साहित्य की बड़ी मांग होने के बावजूद, विदेशों में पेशेवर अनुवादकों की भारी कमी है और इसीलिए हम साउथ-एशियन्स मंडूकों की तरह अपने-अपने कूपों/घेट्टोज़ में क़ैद हुए बैठे हैं। हिंदी के कार्यक्रमों में गुजराती लोग नहीं आते, गुजरातियों के कार्यक्रमों में हिंदी भाषी शिरक़त नहीं करते, साउथ-इंडियंस की बात ही छोड़ दो, मुरुगन और गुरुवायुर टेम्पल्स के सिवा वे कहीं भी नहीं आते जाते। वातायन-यूके की स्थापना इसी उद्देश्य को लेकर की गई थी कि जिसमें लेखक अपनी अपनी रचनाएं अनुवाद सहित सुनाएं ताकि आंचलिक भाषा के कवियों को एक दूसरे को सुनने सुनाने का मौक़ा मिले, किंतु सब व्यर्थ; अनुवाद की तो छोड़िए, अपनी रचनाएं सुना कर सब चलते बनते हैं।
मैं कोई पेशेवर अनुवादक नहीं हूँ। ब्रिटेन में 35 वर्ष गुज़ारने के बावजूद, मुझमें अंग्रेजी भाषा-पटुता का अभाव है। बहुत पहले मैंने मंत्रलिंगुआ की पांच पुस्तकों का काव्य-अनुवाद किया था, जो मेरे लिए बहुत आनंददायक था। उसके बाद, विदेशों में बसी भारतीय लेखिकाओं की कहानियों के दो कहानी संग्रह – ओडिसी और आशा – प्रकाशित किए जिसमें अनीता देसाई, उषा प्रियंवदा, प्रतिभा रे, नासिरा शर्मा, डॉ सूष्म बेदी जैसी वरिष्ठ कहानीकारों की रचनाओं के अनुवाद सम्मिलित थे। हमारे कच्चे पक्के अनुवाद को लेकर किसी ने हमें परेशान नहीं किया।
किंतु जब आर्ट्स काउन्सल ऑफ इंगलैंड ने मुझे दो संग्रहों के अनुवाद के लिए कमिशन दिया तो मैं घबरा गई क्योंकि पेशेवर अनुवादकों हैं ही नहीं। मैंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर तीन संग्रहों के अनुवाद का जिम्मा स्वयं ले लिया। इन संग्रहों के अनुवाद के दौरान हमें अजीबो-गऱीब अनुभव हुए। किसी ने सच ही कहा है कि अनुवाद करना कारपेट/कालीन को पलट के देखने जैसा है, उलझा हुआ, पेचीदा, जिसका सिरा ढूंढने में ही बहुत समय लग जाता है, जब कभी लगता है कि आपने रचना का सिरा पा लिया, तो रचनाकार सिर ‘न’ में हिला कर अपनी असहमति प्रकट कर देता है। इब्ने इंशा के ‘मीर-जुमले’ का अनुवाद कोई भी न कर सका था किन्तु मास्टर अनुवादक, डेविड मैथ्यू ने आनन् फ़ानन में उसे ‘capital sentence’ का नाम दिया, जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार किया। ऐसे उत्तम अनुवाद कम ही होते है।
इसी वर्ष जनवरी में मैं गीतांजलिश्री के पुरस्कृत उपन्यास ‘रेत समाधि’ की अनुवादक डेज़ी राकवेल से मिली थी, उनके अनुवाद को पढ़ कर मैं चमत्कृत रह गई थी, उसमें एक बहाव है जो उसकी मूल रचना में नहीं। उन्होंने बताया कि वह हर एक शब्द पर कितना शोध करती हैं।
हिंदी की बनिस्बत, पंजाबी और उर्दू शायरी का अनुवाद करना मेरे लिए वास्तव में कठिन रहा है, खासकर ग़ज़लों का, उदाहरण के लिए, अकबर हैदराबादी का एक खूबसूरत शेर है
ज़िन्दाने सुबहो शाम में तू भी है मैं भी हूँ, एक गर्दिशे मुदाम में, तू भी है, मैं भी हूँ
जिसका अँग्रेज़ी में अनुवाद हुआ
In the prison of day and night, both are caged, you and I
In the midst of an eternal movement, both are found, you and I
यह कोई बुरा अनुवाद नहीं था लेकिन मुझे लगा कि यह जनाब अकबर के मूल शेर की आत्मा और लय को प्रतिबिंबित नहीं करता।
इसी तरह, पंजाबी के जाने माने कवि अमरजीत चंदन की एक बेहद लोकप्रिय कविता है
बागी मोर बोले दिल खुसदा पया
कूकां विच छड्डी रात, लहू सिम्दा रिहा
जिसका अनुवाद है – The heart sinks when the peacock screams, Pierced with its cries the night bleeds
अनुवाद ठीक ठाक है लेकिन…क्या इससे कवि के दुःख की गहराई का पता चलता है? क्या यह पंजाबी भाषा की सुंदरता का अनुवाद करता है? मेरे विचार में, नहीं। इस अनुभव ने हमने यह जाना कि रचना को आत्मसात करने के बाद उसका आपकी अपनी भाषा में सरल और स्पष्ट रूप से, मूल रचना की आत्मा को बिना नज़रअंदाज़ किये, प्रस्तुत करना ही एक अच्छे अनुवादक का परिचायक है, फिर भी अनुवाद में कभी कहीं कुछ छूट जाता है तो कहीं कुछ जुड़ भी जाता है।
अनुवाद को लेकर फ़ारसी के इतिहासकार डॉ जिया शकैब से मेरी बात हुई तो उन्होंने मुझे एक मज़ेदार क़िस्सा सुनाया कि कैसे शब्दों के ग़लत चयन से भयंकर दुष्परिणाम निकल सकते हैं। प्रख्यात अरबी कोशकार, कुमस, जो मूलतः ईरान से थे, अपनी वृहत कोश-रचना के लिए जाने जाते हैं। शायद आप जानते हों कि अरबी लोग ग़ैर-अर्बीयों से विवाह नहीं करते लेकिन कुमस क्योंकि एक प्रसिद्ध विद्वान थे, एक अरब ने अपनी बेटी का विवाह उनसे कर दिया। सुहागरात को, कुमस ने अपनी नई पत्नी से बत्ती बुझा देने के लिए ‘put the lamp off’ कहने के बजाय ‘kill the lamp’ वाक्य का उपयोग किया, जो कि एक ख़ालिस फ़ारसी मुहावरा है। उनकी भयभीत पत्नी ग़ुस्से में चिल्लाई, ‘या अल्लाह! आप अरबी नहीं हैं,’ और उनसे तुरंत तलाक़ की मांग की। हिंदी में भी हम बत्ती बुझा देने के लिए बत्ती बढ़ा देना कहते हैं।
अल्फ़ास के पेचों में उलझते नहीं दाना
गव्वाज़ को मतलब है सदफ़ (सीपी) से के गुहर (मोती) से।
शब्द रंग बिरंगे मोती हैं, उन्हें कहाँ और कब पिरोना है, यह अनुवादक के नैपुण्य पर निर्भर है। धन्यवाद।
अनुवाद को लेकर फ़ारसी के इतिहासकार डॉ जिया शकैब से बात हुई तो उन्होंने मुझे एक मज़ेदार क़िस्सा सुनाया कि कैसे शब्दों के ग़लत चयन से भयंकर दुष्परिणाम निकल सकते हैं। प्रख्यात अरबी कोशकार, कुमस, जो मूलतः ईरान से थे, अपनी वृहत कोश-रचना के लिए जाने जाते हैं। शायद आप जानते हों कि अरबी लोग ग़ैर-अर्बीयों से विवाह नहीं करते लेकिन कुमस क्योंकि एक प्रसिद्ध विद्वान थे, एक अरब ने अपनी बेटी का विवाह उनसे कर दिया। सुहागरात को, कुमस ने अपनी नई पत्नी से बत्ती बुझा देने के लिए ‘put the lamp off’ कहने के बजाय ‘kill the lamp’ वाक्य का उपयोग किया, जो कि एक ख़ालिस फ़ारसी मुहावरा है। उनकी भयभीत पत्नी ग़ुस्से में चिल्लाई, ‘या अल्लाह! आप अरबी नहीं हैं,’ और उनसे तुरंत तलाक़ की मांग की। हिंदी में भी हम बत्ती बुझा देने के लिए बत्ती बढ़ा देना कहते हैं।
हमारे एक सदस्य ने दिलचस्प सुझाव दिया कि क्यों न हम काव्यानुवाद पर एक प्रयोग करें, जिसके अंतर्गत हिंदी की एक कविता को पहले अंग्रेज़ी और फिर बारी बारी अन्य योरोपियन भाषाओं में अनुवाद करवाएं। जब वही कविता हमारे पास लौट कर आए तो हम उसकी तुलना मूल कविता से करें, यानी कि साहित्यिक चाइनीज़ व्हिस्पर्स। ‘एक बौनी बूँद’ का अंग्रेज़ी, पोलिश, जर्मन, स्पैनिश में अनुवाद करवाया गया, अंत में जब उसकी अंग्रेज़ी के मूलपाठ से तुलना की गयी तो कविता बेढंगी हो चुकी थी। इसके सही आकलन के लिए हमें एक भाषा विशेषज्ञ की आवश्यकता पड़ी और हमने इसे सोएज़ के अनुवाद विभाग को भेजा, जहां से वह आज तक लौट कर नहीं आई।
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