
महाकुंभ 2025 : आस्था को सहेजने के लिए मुझे सौ आंखें और चाहिए
– रामा तक्षक
मेरा बहुत समय से भारतीय ज्ञान परम्परा और महाकुंभ के बारे में लिखने का मन था। लेकिन बिना महाकुंभ गये लिखना, कोरी डूंडी पीटना होता। आखिर बीती 16-18 जनवरी को यह अवसर भी मिला।
कुंभ और महाकुंभ के बारे में, अपने आरम्भिक जीवन के बरसों में यानि बचपन के दिनों में, बुजुर्गों से गाँव में बहुत सुना था। गाँव में, कुंभ मेले से लौटकर आने वाले के चेहरे और शारीरिक हाव-भाव, एक नई ऊर्जा लिए होते थे। महाकुंभ में जाने वाले, महाकुंभ से लौटने वाले, कुंभ के बारे में बात करते समय बड़ी तल्लीनता से बताते थे। उनके कहे और अनकहे में, एक पूर्ण आनंद की लहर केंद्र में होती थी। उनके कहे में, आनंद बहता था। इस कहे के इर्द-गिर्द, अनकहे का महत्व और भी ज्यादा होता था। कुंभ के बारे में बतियाते समय, इस अनकहे में, उनके हाथों की हलचल, उनकी आँखें, उनके चेहरे के आवभाव, उनकी भौंहों में एक राग बरसता था।

आज का युग बड़ा अजीब है। इन दिनों महाकुंभ के विषय में बहुत कुछ ऊटपटांग भी लिखा जा रहा है।
लोगों में कर्म, ध्यान और धर्म की समझ ‘अध जल गगरी छलकत जाय’ वाली जैसी है। मनुष्य को ‘करना’ चाहिए, इस उद्देश्य से किया गया हर कर्म, धर्म है। ऐसा हर कर्म सम्पूर्ण ध्यान भी चाहता है। यानि कर्म का समापन पूरी निष्ठा से हो। पूरे मनोयोग से हो। इस क्रिया में अपने आपको झोंकने का नाम ही ‘ध्यान’ है। सूई में धागा पिरोने की नाईं।
धर्म या धार्मिक बात किसी भी धरातल पर कही जाए तो उसके विरोधी भी बहुत हैं। वे धर्म की अपनी परिभाषा लिए खड़े हैं। वे अपनी परिभाषा लिए हैं यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन इस परिभाषा को थोंपने का उनका प्रयास और वह प्रयास खिन्नता की पृष्ठभूमि में पिरोया हुआ होता है।
कोई कुछ करने की चुने या धर्म का रास्ता चुने तो लोग कहते हैं। गलत कर रहा है। बिन माँगी सलाह लिए तैयार खड़े रहते हैं। खुद धर्म पर चलने को राजी नहीं। जो कोई धर्म के रास्ते पर चलना चाहता है। उसको कहते हैं। तू गलत कर रहा है। गलत रास्ते जा रहा है।

राह चलने वालों से इतना ही कहूंगा कि चलते जाना। सुनना सबकी। लेकिन ये मत समझ लेना कि जो कहा जा रहा है। वह सब सही है। क्योंकि कहने वाला सब सच्ची न कहेगा। वह यह कभी न बतायेगा कि वह कहां गलत है।
यहाँ आदि शंकराचार्य को उद्धृत करना समीचीन जान पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य के समय भारतीय समाज बहुत से सम्प्रदायों में बंटा हुआ था। आदि शंकराचार्य के प्रयास से भारतीय आध्यात्म और संस्कृति को कुंभ मेले के रूप में संगठित किया गया। तत्समय भी सभी सम्प्रदाय ईश्वर की बात करते थे। सभी अलग अलग तरीके से करते थे। सामान्य जन के लिए यह बहुत भ्रमित करने वाला होता है। कुंभ के आयोजन के माध्यम से सभी सम्प्रदायों को एक साथ, एक मंच पर लाने का काम आदि शंकराचार्य ने बहुत समझ से किया। एक खुले आकाश तले सभी सम्प्रदायों को समेटे एक महा आयोजन हो। महकुंभ में एक ही स्थान और एक ही समय में, सभी देवताओं और सभी देवियों की बात हो रही है। जन सामान्य के मन की जिज्ञासा को एक मंच पर लाने का प्रयास अद्भुत है। उससे भी आगे बढ़कर, आम आदमी को यात्रा के प्रति आकर्षित करना। निर्वाण की राह का आमंत्रण यानि जीवन के कम्फर्ट जोन से बाहर निकालना। व्यक्ति को उसकी सुविधा कोठरी से बाहर निकाल, महाकुंभ व्यक्ति से अस्तित्व में गति का द्योतक है। परमात्मा आत्मगत शक्ति है। परमात्मा पदार्थगत शक्ति नहीं है। लेकिन इसे हम भिन्न भिन्न स्वरूप में खोज रहे हैं। उन सबका समागम है महाकुंभ।


महाकुंभ में जाने का मतलब है सब कुछ छोड़कर चल देना। यह आसान नहीं है। अपनी मांद छोड़कर चल देना। अहंकार की केंचुली को छोड़कर तीर्थ पर चल देना। लोग अपनी मांद में घुसे हैं। जो लोग अपनी मांद को छोड़कर, अपने खोल को छोड़कर, अपनी केंचुली को छोड़कर, कुछ खोज निकलने, किसी धार में मिलने को राजी है। उसे मांद में बैठे लोग, अपनी सुविधाओं के खोल में घुसे लोग, चलने वाले को कहते हैं तू गलती कर रहा है।
भई, आप सही रास्ता बताओ न ! हम तो उस पर भी चल देंगे। अपनी मांद से निकल लिए हैं तो कहीं भी चले जायेंगे। आप कोई दिशा तो बताओ। केवल गलत कर रहे हो कहना, कुछ करने को गलत ठहराना, निंदा करना है।
ये वे लोग हैं जो न तो स्वयं अपनी मांद छोड़ने को राजी हैं। यदि कोई दूसरा अपनी मांद छोड़ता है तो ये ठिठोली करने, चूंटका भरने और बोली से पत्थर मारने में भी नहीं हिचकते हैं। इन्हें इसमें ही आनंद आता है। ये इसे ही आनंद समझते हैं। मीरा बाई को जहर दिया गया होगा तो ऐसी प्रवृत्ति के लोगों ने बहुत तालियां बजाईं होंगी। क्योंकि जब गालियां देना सिर चढ़ा है तो भक्ति भाव के लिए स्थान कहां बचा? बात एक ही हो सकेगी। आपके जीवन में ऊर्जा का स्त्रोत एक ही है। भक्ति भाव में डूबे जाओ या किसी को भला बुरा कह लो। एक ही काम हो सकेगा। दूसरे को गाली देकर, ताली बजाकर अपना मनोरंजन कर लो या भक्ति भाव में डूबे नाचने लगो।


नाच! लोग नाचने को बहुत क्षुद्र समझते हैं। नाच नहीं सकते। अपनी मांद नहीं छोड़ सकते। नाचने वाले को देख ताली जरूर बजा देंगे। यदि नाचने वाली हो तो उसका आदर न कर पायेंगे। सीटी पे सीटी बजायेंगे। कला की जरा भी थाह होती तो नर्तक/नर्तकी के आगे हाथ जुड़ जाते। सिर झुक जाता। मनोरंजन की प्रवृत्ति ने बहुत कुछ बिगाड़ा है। उसने सजगता की यात्रा को विराम दे दिया।
नब्बे के दशक में मैंने कुछ बरस तक बाल नहीं कटवाये। बाल स्वाभाविक तौर पर बढ़ते रहे। एक दिन पड़ौस के गाँव के वृद्ध बोले “तुमने नाचने वाले जैसे बाल बढ़ा रखे हैं।”
मैंने कहा “इसमें मेरा दोष क्या है ? उम्र के साथ मेरा शरीर भी बढ़ रहा है।”
उस बाबा ने अपनी बात फिर दोहरा दी कि नाचने वाले जैसे बाल बढ़ा रखें हैं।
मैंने कहा बाबा आपने नर्तक को देखा है ? नाचने वाले को देखा है ?
बाबा ने तुरंत कहा “हाँ।”
नाचने वाले को देख, आपको आनंद आता है ?
बाबा ने फिर तुरंत कहा “हाँ।”
मैंने कहा बाबा जब आपको नाचने वाले को केवल देखकर आनंद आता है तो आप अंदाजा लगाओ कि नाचने वाला कितना आनंद से भरा होगा!
बाबा के चेहरे पर एक सफेदी दौड़ गई।
यह संसार मरघट से ज्यादा कुछ नहीं है। हम सब कतार में हैं। इस मरघट में नर्तक की तरह, मीरा की तरह, बुद्ध और महावीर की तरह कुछ ही लोग जीवन को आनंद से सराबोर कर पाते हैं।
जिस व्यक्ति ने विचार के तल पर ही जीवन को जीया हो, उससे कोई आशा भी नहीं करनी चाहिए। वह अनुभव के तल पर घटे को आपसे साझा कर न सकेगा। क्योंकि उसे वह अनुभव नहीं है। जीवन में किसी विचार विशेष से बंध जाना, कूए के मेंढ़क हो जाना है। विचार की अपनी सीमा है। विचार अपरिमित को न सहेज सकेगा। विचार के तल पर सब स्वीकार्य का भाव निहित नहीं होता है। वहांँ केवल तर्क का आधिपत्य होता है।
अज्ञात, अदृश्य को ध्येय बनाकर चल पड़ना। उसे जानने की राह, जिसे नहीं जाना जा सकता। जो अनंत है। अपरिमित है। यह जानने की प्यास, यह अभिप्सा ही धर्म की राह है। यह धार्मिकता है। एक अभिप्सा, एक नयी चेतना का जन्म है। इसी राह तुम अपने अंतर में छिपे हुए का पता पा लेते हो। उस सनातन का बोध हो जाता है। इस तरह जो न जाना जा सकता था वह अनुभव जन्य हो जाता है।
महाकुंभ सर्वस्य है। विचार के तल पर, महाकुंभ की महक का अनुभव न किया जा सकेगा। जीवन की इस महक को चेतना के तल की पैठ पर ‘स्थितप्रज्ञ’ ही अनुभव कर सकता है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है जीवन चेतना के प्रति पूर्ण समर्पण। जो इस क्षण है सब स्वीकार्य है। आस्था पानी के स्वाद की नाईं अकथ्य है। पानी के स्वाद को शब्दों में बांधकर नहीं कहा जा सकता है।
कुंभ की कथा बहुत रोचक है। समुद्र मंथन की कथा उससे भी रोचक है।
जैसा कि आप जानते हैं। ‘कुंभ’ का अर्थ है कलश यानी घड़ा। कुंभ स्नान की कहानी एक अमृत के घड़े से जुड़ी है। इस पौराणिक कथा के अनुसार, दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए श्राप के कारण से देवता कमजोर हो गए थे। राक्षसों ने देवताओं को युद्ध में भी पराजित कर दिया था। इस पराजय के पश्चात देवता एकत्रित होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे सहयोग के लिए निवेदन किया। सहायता की सुनकर, भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन करने को कहा। जिसमें एक पक्ष देवताओं का और दूसरा पक्ष दैत्यों का था। देवताओं ने राक्षसों के साथ, समुद्र मंथन कर, अमृत की प्राप्ति की संधि रखी। जिसे अमृत के लालच में राक्षसों ने सहज स्वीकार कर लिया। यह बात बहुत ध्यान देने योग्य है। इस बात को पुनः दोहरा रहा हूँ कि देवताओं ने राक्षसों के साथ, समुद्र मंथन कर, अमृत की प्राप्ति की संधि रखी। जिसे अमृत के लालच में राक्षसों ने सहज स्वीकार कर लिया। जीवन में लालच बहुत हैं। अमृत का लालच ही ऐसा है। सब दुष्प्रवृत्तियों वाला आदमी भी इस लालच में आ जाता है। वह सब दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने को राजी हो जाता है यानि दुष्प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति में भी रूपान्तरण की पूरी सम्भानाएँ हैं। अमृत निकला नहीं लेकिन निकलेगा। यानि भविष्य की बात है। जिसे पाकर अमर हो जाओगे। यह जीवन का सबसे सुंदर और अद्भुत कथानक है।
इस तरह समुद्र मंथन शुरू हुआ। यह मंथन सांकेतिक है। यह मंथन जीवन को समझने, समझाने की कथा है। यह कथा जीवन रूपी समुद्र का मंथन है।
इस कथा में, जीवन की सभी प्रवृत्तियां, जीवन के वैभव की प्रतीति के रूप में निकली। पर्वत की मथानी यानि जीवन में सुदृढ़ता की जरूरत है। अनुशासन की सुदृढ़ता ही जीवन को गढ़ती है। आप जब जब भी जीवन की किसी भी क्रिया को करेंगे तो उसके परिणाम भी निकलेंगे।
समुद्र मंथन की कथा में वासुकी नाग की नेती भी सांकेतिक है। नाग देह सा लचीलापन जीवन को सहजता में ढ़ालता है। यदि आप में जीवन में लचीले हैं तभी विवेक काम करेगा। तभी जीवन में चिंतन और मंथन हो सकेगा। यह सारी कथा, मानव मन को मथने से है। मानव जीवन समुद्र समान है। देह कुंभ समान है। यदि मानव देह को कुंभ मानें तो मन उस कुंभ का केंद्र है।
कहते हैं कि समुद्र मंथन की कथा में 14 रत्न निकले। ये सब रत्न जीवन के महत्वपूर्ण रहस्य हैं। ये निम्न प्रकार हैं :
1. कालकूट विष रत्न – समुद्र मंथन की कथा के अनुसार मंथन में सबसे पहले कालकूट विष रत्न निकला। जिसे शिव ने ग्रहण कर, धारण किया। विष निगलने की नहीं अपितु उसे जीवन में स्वीकार्य भाव के साथ स्थान देने की आवश्यकता है ताकि उसके प्रभाव को सीमित किया जा सके। ध्यान रहे कि जीवन में त्याग की बात झंझावात खड़ा कर देगी। त्याग जीवन में संघर्ष खड़ा कर देगा। अतः सब सहज स्वीकार्य हो। विष भी, जीवन में कड़वाहट भी स्वीकार्य हो।
2. कामधेनु रत्न – अस्तित्व से आपका ऐसा नाता। जब आप इच्छा करें और घट जाए।
3. उच्चैश्रवा घोड़ा रत्न – कथानुसार यह घोड़ा मन की गति से चलता था। राजा बलि ने इस रत्न को अपने पास रखा था। मन रूपी घोड़े को बलवान यानि कोई बली ही नियंत्रण में रख सकता है। मन को साधना जीवन की सफलता का परिचायक है।
4. ऐरावत हाथी रत्न – कथा कहती है कि इस रत्न को भगवान इंद्र ने इसे अपनाया। शक्ति को अपने विवेक से चलाना बहुत बड़ा गुण है।
5. कौस्तुभ मणि रत्न – कहते हैं कि इस रत्न को भगवान विष्णु ने हृदय पर धारण किया। हमारी अपनी ऊर्जा, अपनी चमक का हमें ज्ञान है ? या कहूँ कि हमारी ऊर्जा, हमारी सोच या विचारों की परत से दबी हुई है ? इस रत्न का हृदय स्थल पर धारण का अर्थ है प्रेम। हम विचारों की परतों के तले दबे रहेंगे तो प्रेम न घटेगा। प्रेम के लिए निश्छल जमीन की जरूरत है।
6. कल्पवृक्ष रत्न – कहते हैं इस रत्न को देवताओं ने स्वर्ग में लगाया। इस समुद्र मंथन कथा में इसे इच्छा पूर्ति करने वाला माना जाता है। यह बहुत गहन बात है कि चेतना के तल पर आप अस्तित्व से जुड़ जाओ। अस्तित्व से एकाकार का अर्थ है सब इच्छाएँ गौण हो जायेंगी। मन के तल पर इच्छाओं का सफाया हो जायेगा।
7. अप्सरा रंभा रत्न – यह रत्न देवताओं को मिला। हालांकि इस रत्न को कामवासना का पर्याय माना जाता है। काम वासना जीवन और अस्तित्व का जोड़ है। इस समझ को जीवन में समग्रता के साथ जीना सजगता का पायदान है
8. देवी लक्ष्मी रत्न- धन सम्पदा और वैभव का प्रतीक रत्न। इसे देवता, ऋषि और दानव सभी अपने पास रखने के इच्छुक थे। लेकिन लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु के पास रहना स्वीकार किया। इसका तात्पर्य है कि धन उन लोगों के पास जाता है, जो उसे सहेजना जानते हैं।
9. वारुणी देवी रत्न – वारुणी का अर्थ मदिरा होता है। इस रत्न को दानवों ने ग्रहण किया था। इसकी लत से जीवन में दुख संताप का आमंत्रण है।
10. चंद्रमा रत्न – इसे महादेव ने अपने मस्तक पर धारण किया था। इसका सार है कि जब हमारा मन सभी बुराइयों से मुक्त हो जाता है, तब हमें शांति महसूस होती है। एक चाँदनी सी शांत शीतलता मुख मंडल पर शोभायमान हो जाती है।। यह सहस्त्रार में प्रवाहित होती ऊर्जा का भी संकेत है।
11. पारिजात वृक्ष रत्न – कहते हैं इसे सभी देवताओं ने ग्रहण कियाथा। इस वृक्ष की ऊर्जा क सम्पर्क में थकान दूर हो जाती थी। जीवन में इसका आशय है कि जब जब भी आप प्रकृति के सम्पर्क में रहेंगे जीवन ऊर्जा से परिपूर्ण रहेगा। यहाँ शांति और थकान
12. पांचजन्य शंख रत्न – कहते हैं कि भगवान विष्णु ने इस रत्न को धारण किया। शंखनाद, शंख ध्वनि ऊर्जा का प्रतीक है। मानव देह में, ध्वनि ऊर्जा को मंत्रोच्चारण और उस उच्चारण से उपजी देह में ऊर्जा यात्रा को अनुभव कर समझा जा सकता है।
13 व 14. भगवान धन्वंतरि एवं अमृत कलश रत्न – स्वस्थ और अमृत यानि जीवन के शिखर का प्रतीक हैं। समुद्र मंथन की कथानुसार 13वें रत्न के रूप में, भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। उनके हाथ में 14वें रत्न के रूप में अमृत कलश था।
कहते हैं भगवान धन्वंतरि ने सभी देवताओं को अमृत का सेवन कराया। श्राप से मुक्ति दिलाई। आप स्वस्थ होंगे। आपको स्वस्थ जीवन का ज्ञान होगा तभी आप किसी को अमृत की बात कह सकेंगे। यह बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत है। मानव जीवन में परिस्थितियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। स्वस्थ जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। जीवन में स्वस्थ सोच भी बहुत महत्वपूर्ण है। स्वस्थ जीवन और स्वस्थ सोच अमृत पान तक की राह तय करती है।
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