
कुम्भ स्नान
मैं नहीं जानती
क्यों आई हूँ मैं प्रयागराज
फ़ाफ़ामऊ स्टेशन देखना बदा था भाग्य में
या महामंडलेश्वर के आगे नतमस्तक हुजूम
और किन्नरों के दांत काटे सिक्कों को
माथे पर ग्रहण करने
या धूनी रमाये नग्न साधुओं को देखने
आशा के विपरीत, यहाँ बाउल संगीत नहीं सुनाई पड़ा
विश्वभारती में सुना है कई बार
बावले हो जाते हैं श्रोता, मैं भी
बस लाउडस्पीकर्स पर गूँजते
बौलीवुडी भजन और
खोए-पाए की सूचनाएं, चौबीसों घंटे लगातार
बड़े बड़े खाली अखाड़ों के
बाहर बाँटा जाता मुफ़्त भोजन
और अंदर सैंकड़ों साफ़ सुथरे शौचालय
आखिरकार क्यों आते हैं प्रयागराज
करोड़ों की संख्या में तीर्थयात्री
पानी में छपछपाते
बिना किसी छटपटाहट के
लगता नहीं कि वे पाप धोने आए हैं
अभिशापित से भी नहीं दीखते
कौन जाने इनके रहस्य
क्या कुचले जाते समय
उन्होंने सोचा होगा कि बड़े नसीब वाले हैं वे
शायद उनके परिवार वाले भी
यही सोच कर मन को तसल्ली देंगे
मेरे जैसे बहुत से
नास्तिक भी आते हैं नहाते हैं
अथाह समुद्र में लीन हो जाने का
मेरी ही तरह मन होता होगा सबका
पर पानी से भय मुझे सिर से नहाने नहीं देता
मैं गई थी प्रयागराज
दिलो-दिमाग से खाली
पर लौटी हूँ इक विचार के साथ
मुझे अपना जीवन पुनः जीना है
बिना किसी भय के
पाप-पुण्य के चक्करों से आज़ाद।
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– दिव्या माथुर