
जगद्गुरु संत तुकाराम
~ विजय नगरकर, अहमदनगर, महाराष्ट्र
पंढरपुर स्थित विठ्ठल भगवान के वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संतों में संत तुकाराम का नाम बहुत आदरपूर्वक लिया जाता है। संत तुकाराम को आदरपूर्वक ‘तुकोबा’ भी बोला जाता है जैसे विठोबा, चोखोबा । अंतिम शब्द ‘बा’ अर्थ आदरवाचक बाबा, बाप के अर्थ में जोड़ा जाता है। हर वर्ष आषाढ़ी एकादश को विठ्ठल भक्त पैदल यात्रा करते है जिसे वारकरी संबोधित किया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के घोष वाक्य में संत ज्ञानेश्वर के साथ संत तुकाराम का नाम किसी भी कीर्तन,प्रवचन अथवा धार्मिक कार्यक्रम में उद्घोषित किया जाता है।
पुंडलिक वरदा हरी विठ्ठल श्री ज्ञानदेव तुकाराम |
पंढरीनाथ महाराज की जय!
जब हिंदुस्थान पर विदेशी शक्तियों का आक्रमण हुआ, मंदिर, पूजा स्थलों को तोड़ा जा रहा था, मूर्तियां ध्वस्त की जा रही थी, हजारों वर्षों की धर्म श्रद्धा पर कुठाराघात होने लगा था,तब महाराष्ट्र की भूमि पर भागवत धर्म की ध्वजा संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ,नामदेव और तुकाराम ने जनमानस में फहरायी थी।
संतकृपा झाली । इमारत फळा आली ।।
ज्ञानदेवे घातला पाया । उभारिले देवालया ।।
नामा तयाचा किंकर । तेणे केला हा विस्तार ।।
जनार्दन एकनाथ । खांब दिला भागवत ।।
तुका झालासे कळस । भजन करा सावकाश ।।
बहेणी फडकते ध्वजा । निरुपण आले ओजा ।।
(संत तुकाराम की शिष्या बहिणाबाई)
अर्थात
संतकृपा से भागवत धर्म भवन निर्मित हुआ।
ज्ञानदेव ने नींव रखी, मंदिर स्थापित किया।
नामदेव ने कंकर होकर विस्तार किया।
जनार्दन एकनाथ हुए स्तंभ।
तुकाराम हुए कलश।
एकाग्र होकर शांतचित्त से भजन करें।
बहिणा हुई ध्वज, प्रवचन हुआ प्रासादिक।
संत तुकाराम को महाराष्ट्र की संत परंपरा में भागवत धर्म का कलश माना गया है। भक्त भगवान के दर्शन करने से पहले प्रथमतः कलश का दर्शन करते है।
संत तुकाराम का जन्म पुणे जिले के देहु गांव में ई स 1608 में हुआ था।
पिता का नाम बोल्होबा (बालोबाबावा) माता का नाम कनकाई है। उपनाम अंबिले (मोरे) । पूर्वजों से अपने परिवार में विट्ठल भक्ति, एकादशी का व्रत और पंढरी की आषाढ़ी-कार्तिकि वारी की विरासत मिली थी। सुखसम्पन्न किसान परिवार में महाजनी,साहूकारी और व्यापार उद्यम था।
तुकाराम महाराज सुसंस्कृत और प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य थे। उनके साहित्य में संस्कृत,पतंजलि योग और प्राकृत ग्रंथों के अनेक उदाहरण मिलते है।
परिवार में पूर्वजों द्वारा स्थापित पांडुरंग मंदिर के कारण उन्हें कम उम्र में ही वहां होने वाले दैनिक भजन, कीर्तन और पुराणों का संस्कार प्राप्त हुआ था।
इतिहासकार लिखते है कि तुकाराम का प्रथम विवाह 14 वर्ष के काल में रखमाई से हुआ था। पहली पत्नी बहुत कमजोर और बीमार रहती थी।। तुकाराम अपनी आत्मकथा अभंग (अभंग क्रमांक 1333) में कहते हैं कि अकाल के कारण उनकी पहली पत्नी और बेटे की मृत्यु भूख से हुई थी। उसके मृत्यु के उपरांत उनका दूसरा विवाह पुणे जिले के खेड़ के अप्पाजी गुलवे के अवलाई नाम की लड़की से संपन्न हुआ। तुकाराम के बड़े भाई सावजी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद तीर्थ यात्रा पर गए और वापस नहीं लौटे।
अत: सत्रह वर्ष की अल्पायु में ही व्यापार सहित समस्त लोकों का भार तुकाराम पर पड़ गया।
1630-31 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा। व्यापार,उद्यम बंद हुआ। परिवार कर्जदार बन गया। लोगों से गाली-गलौज होने लगी। इसलिए उन्होंने भगवान के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बचपन से ही अध्यात्म के संस्कार जाग्रत हुए और वे अध्यात्म के मार्ग पर सक्रिय हुए। पढ़ने की ललक शुरू हो गई। वे एकांत में रहने लगे। देहु के आसपास सह्याद्री के कई खूबसूरत पहाड़ हैं। उनके पास जाकर वे पठन-ध्यान-चिन्तन में लीन रहने लगे। वे देहू के उत्तर में भामनाथ या भामचंद्र पहाड़ी पर एक गुफा में बस गए। यहीं पर उन्होंने गीता, भागवत, ज्ञानेश्वरी, एकनाथी भागवत, नामदेव की गाथा, योगवशिष्ठ, रामायण, दर्शन आदि का अध्ययन किया। परिवार की मोहमाया से दूर रहने लगे। उन्हें संतों और हरिभक्तों की संगति मिल रही थी।
जिस तरह उत्तर भारत में संत कबीर की रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों, अंधश्रद्धा और ढोंग पर प्रहार किया गया,उसी तरह संत तुकाराम की रचनाओं में क्रांतिकारक और समाज को जागरूक करने का भाव पाया जाता है।
संत तुकाराम की भक्ति रचनाओं में समृद्ध लोकभाषा की मिठास, अनुभवजन्य प्रसंग और गहन आध्यात्मिक विचार अत्यंत सरल,सहज भाषा में प्रकट होते है। उनकी रचनाओं की लोकप्रियता मौखिक परंपरा के अनुसार सभी भागवत धर्मीय वारकरी पंथ में दृष्टिगोचर होती है। तुकाराम कृत गाथा का मुख्य आधार सर्व साधारण आम जन की भाषा है। मराठी ‘अभंग’ का अर्थ वह काव्य जिसका कभी भंग नहीं होता जो चिरंजीव कालातीत रचना है। मराठी भक्ति साहित्य में अभंग की परंपरा संत तुकाराम द्वारा सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुई है।
समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंध श्रद्धा,जातिभेद, वर्ण अभिमान को सभी संतों ने विरोध किया है।संतों के विचारों का विरोध तत्कालीन जाति बांधव, सनातनी ब्राह्मणों ने किया है।संत तुकाराम के जीवन में उनके विरोधी मम्बाजी, रामेश्वर भट ने भी बाधा उत्पन्न की थी। एक किवदंती के अनुसार रामेश्वर भट का कहना था कि तुकाराम जन्म से ब्राह्मण नहीं थे,इसलिए वेदों का ज्ञान देने का उन्हें अधिकार नहीं है। इसलिए उन्होंने गाथा इंद्रायणी नदी में विसर्जित करने का ‘जल दंड’ दिया था। माना जाता है कि 13 दिवस उपवास करने के बाद तुकाराम की विसर्जित गाथा स्वयं इंद्रायणी देवी ने पुनः सपुर्द की थी। रामेश्वर भट कुछ दिनों के बाद संत तुकाराम के शिष्य बन गए। वे तबसे संत तुकाराम को ‘ जगद्गुरु’ उपाधि से संबोधित करने लगे।
संत तुकाराम की गाथा की लोकप्रियता सुनकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनकी भेंट पुणे के एक कीर्तन कार्यक्रम के दौरान हुई। शत्रु की नजर छत्रपति शिवाजी पर थी। जान जोखिम में डालकर उन्होंने संत तुकाराम से भेंट की। इस भेंट के दौरान उन्होंने संत तुकाराम को सुवर्ण मुद्रा, आभूषण आदि संपत्ति नज़र की। तब संत तुकाराम ने उस नजराने को मृत्तिका समान मानकर सविनय पूर्वक नामंजूर किया। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि –
आता पंढरिराया। येथे मज गोविसी कासया॥
आम्ही तेणे सुखी। म्हणा विठ्ठल विठ्ठल मुखी॥
तुमचे येर ते धन। ते मज मृत्तिकेसमान॥
( पंढरीनाथ अब मुझे इस मोह में क्यों डाल रहे हो, हम तो विठ्ठल विठ्ठल नामस्मरण में सुखी है। आपके लिए यह धन है,लेकिन मेरे लिए यह मृत्तिका समान है।)
तुकाराम गाथा का संकलन और संपादन
गाथा की रचना मौखिक परंपरा के अनुसार लोकमानस में रूढ़ हो गई थी। इस गाथा का संकलन करने का महान कार्य तुकाराम के शिष्य संताजी जगनाडे तेली ने किया है। 1787 में तुकाराम भक्त त्र्यम्बक कासार ने गाथा को शब्दबद्ध किया।
गाथा की प्रथम मुद्रित आवृत्ति ‘ज्ञान चंद्रोदय’ ने 1844 में प्रकाशित की थी जिसमें 62 अभंगों को शामिल किया गया था। 1867 में शंकर पांडुरंग पंडित को 4500 अभंगों का संपादन का कार्य अंगेज अधिकारी अलेक्झण्डार ग्रैंट ने सौपा था।
1896 में कृष्णराव अर्जुन केलुस्कर लिखित ‘तुकाराम बावाचे चरित्र’ ग्रंथ ‘सुबोध प्रकाशन छापखाना’ मुंबई में लक्ष्मणराव पांडुरंग नागवेकर ने प्रकाशित किया था।
महाराष्ट्र सरकार ने गाथा का अधिकृत प्रकाशन पु मा लाड के संपादन में 1950 को किया था जिसे शासकीय अधिकृत गाथा मानी जाती है।
हिंदुस्थान अकादेमी, इलाहाबाद ने हरि रामचंद्र दिवेकर लिखित हिंदी पुस्तक ‘संत तुकाराम’ 1950 प्रकाशित किया है।
संत महिपती के तुकाराम चरित्र का अंग्रेजी अनुवाद सी ए किनकेड (C A Kincaid C.V.O.) ने अपनी पुस्तक ‘Tales of the saints of Pandharpur’ में किया है जो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है।
संत तुकाराम के मराठी अभंग आम जन में अत्यंत लोकप्रिय और मौखिक भक्ति की ज्ञानसंपदा है। मराठी भाषा को समृद्ध करने का महान कार्य तुकाराम की गाथा ने किया है। उनकी कुछ रचनाएँ सादर प्रस्तुत है-
आम्हा घरी धन शब्दांची रत्ने ।
शब्दांची शस्त्रे यत्न करू ॥१॥
शब्दची आमुच्या जीवाचे जीवन ।
शब्दे वाटू धन जनलोका ॥२॥
तुका म्हणे पाहा शब्दची हा देव ।
शब्देची गौरव पूजा करू ॥३॥
अर्थात-
हमारे घर शब्दों का धन और रत्न,
करेंगे शब्दों के शस्त्र
शब्दों का यत्न।
शब्द ही आत्मा,हमारा जीवन
जनलोक को शब्द धन अर्पण।
‘तुका’ कहे शब्द ही भगवान
शब्दों की गौरव पूजा अर्पण।
वृक्ष वल्ली आम्हां सोयरीं वनचरें ।
पक्षी ही सुस्वरें आळविती ।।
येणें सुखें रुचे एकांताचा वास ।
नाही गुण दोष अंगा येत ।।
(संत तुकाराम)
वन के वृक्ष, लताएँ और समस्त प्राणी जगत हमें बहुत प्रिय हैं
पंछी भी बहुत मिठे सुरों में गीत गा रहे हैं
इसी एकान्त में सुख की अनुभूति है
हम किसी गुण दोष से दूर है
—
संत संग देई सदा
हेंचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा।।
गुण गाईन आवडी। हेंचि माझी सर्व जोडी।।
न लगे मुक्ती आणि संपदा। संत संग देई सदा।।
तुका म्हणे गर्भवासीं। सुखें घालावें आम्हासी।।.
अर्थ-
हे ईश्वर,मुझे सदैव संत संग देना, यही दान मुझे देना। तेरा कभी विस्मरण न हो, मैं तेरे गुण गाता रहूंगा। इसीसे मेरा जीवन पूर्ण होगा।
मुझे न मुक्ति चाहिए, न कोई संपदा। मुझे सदैव संत संग देना।
तुका कहे, मुझे फिर एक बार माँ के गर्भ में स्थान देना।इससे सुख प्राप्त होगा।
***
शिव छत्रपती शिवाजी महाराज के सैनिकों के लिए संत तुकाराम ने ‘पाईक अभंग’ की रचनाएं की। इस अभंग द्वारा हिंदवी स्वराज्य निर्माण हेतु जागृति निर्माण की। निष्ठावान,प्रामाणिक सैनिकों की मानसिक शक्ति बढ़ाने में पाईक अभंगों का विशेष योगदान रहा है।
तुकाराम साहित्य के अभ्यासक सुप्रसिद्ध मराठी, अंग्रेजी अर्न्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवि दिलीप चित्रे जी का कहना है कि
तुकाराम, यकीनन मराठी भाषा के सबसे महान कवि हैं। तुकाराम की प्रतिभा के कुछ अंश ,विचार तत्व में बाहरी दुनिया के आध्यात्मिक एनालॉग में बदलने की क्षमता है। मराठी साहित्य में तुकाराम का कद अंग्रेजी में शेक्सपियर या जर्मन में गोएथे के समकक्ष है। किसी भी अन्य मराठी लेखक की तुलना में तुकाराम का साहित्य निसंदेह महान है।
मराठी कविता विश्व एक शैली के रूप में तुकाराम के बिना अधूरी है।
जब महात्मा गांधी येरवडा कारावास में बंदी थे तब 15-10-1930 से 28-10-1930 कालावधि में उन्होंने कविश्रेष्ठ संत तुकाराम के 16 अभंगों (रचनाओं) का अंग्रेजी अनुवाद किया था। उन्हें संत तुकाराम के अभंग प्रिय थे,जो उनके दैनिक प्रार्थना में शामिल थे।
नागपूर के डॉ. इंदुभूषण भिंगारे और कृष्णराव देशमुख ने ‘श्रीसंत तुकारामांची राष्ट्रगाथा’ संग्रह 1945 को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ की प्रस्तावना में महात्मा गांधी जी ने लिखा है कि “तुकाराम मुझे बहुत प्रिय है.”।
महात्मा गांधी जी के अनुरोध पर शांतिनिकेतन के सुप्रसिध्द चित्रकार नंदलाल बोस ने इस ग्रंथ हेतु संत तुकाराम का चित्र तैयार किया था।
संत तुकाराम की रचनाओं का अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। तुकाराम की रचनाओं की जानकारी भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में वैश्विक स्तर पर प्रदान करने हेतु www.tukaram.com वेब साइट का निर्माण किया गया है। इस वेब साइट के मुख्य संपादक श्री दिलीप धोण्डे है। तुकाराम के वंशज प्रो डॉ सदानंद मोरे और सुप्रसिद्ध मराठी,अंग्रेजी कवि दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे ने सहयोग प्रदान किया है।
संत साहित्य अभ्यासक, लेखक डॉ अशोक कामत जी के गुरुकुल प्रकाशन पुणे द्वारा ‘संत तुकाराम-अभंगगाथा ‘ के 3 खंड हिंदी में प्रकाशित हुए है। इस पुस्तक के लेखक प्रोफेसर डॉ वेदकुमार वेदालंकार ने गाथा का हिंदी गद्य पद्य अनुवाद व सटीक व्याख्या सहित प्रस्तुत किया है।
संत तुकाराम के कुछ हिंदी दोहे
लोभी के चित धन बैठे, कामिनि के चित काम।
माता के चित पूत बैठे, तुका के मन राम॥
तुका बड़ो न मानूं, जिस पास बहुत दाम।
बलिहारी उस मुख की, जिस ते निकसे राम
राम-राम कह रे मन, और सुं नहिं काज।
बहुत उतारे पार आगे, राखि तुका की लाज
तुका दास तिनका रे, राम भजन नित आस।
क्या बिचारे पंडित करो रे, हात पसारे आस
संत तुकाराम के हिंदी अभंग
भगवंत का चरित्र गायन करते समय अनेक मराठी संतों ने कुछ अभंग,रचनाएँ हिंदी में लिखी है। तीर्थक्षेत्र के कारण उत्तर भारतीय संतों की रचनाओं से प्रभावित होकर संत तुकाराम ने कुछ अभंग हिंदी में लिखें है। इन अभंगों पर ब्रज भाषा का प्रभाव दिखायी देता है। मीरा,कबीर, सूफी संतों की भाषा और रूप को धारण करते हुए उन्होंने अपने हिंदी रचनाओं में मराठी हिंदी मिलीजुली भाषा का उपयोग किया है।
कुछ हिंदी रचनाओं का अवलोकन करें–
मैं भुली घरजानी बाट । गोरस बेचन आयें हाट ॥१॥
कान्हा रे मनमोहन लाल । सब ही बिसरूं देखें गोपाल ॥ध्रु.॥
काहां पग डारूं देख आनेरा । देखें तों सब वोहिन घेरा ॥२॥
हुं तों थकित भैर तुका । भागा रे सब मनका धोका ॥३॥
२
हरिबिन रहियां न जाये जिहिरा । कबकी थाडी देखें राहा ॥१॥
क्या मेरे लाल कवन चुकी भई । क्या मोहिपासिती बेर लगाई ॥ध्रु.॥
कोई सखी हरी जावे बुलावन । बार हि डारूं उसपर तन ॥२॥
तुका प्रभु कब देखें पाऊं । पासीं आऊं फेर न जाऊं ॥३॥
३
भलो नंदाजीको डिकरो । लाज राखीलीन हमारो ॥१॥
आगळ आवो देवजी कान्हा । मैं घरछोडी आहे ह्मांना ॥ध्रु.॥
उन्हसुं कळना वेतो भला । खसम अहंकार दादुला ॥२॥
तुका प्रभु परवली हरी। छपी आहे हुं जगाथी न्यारी ॥३॥
वारकरी संप्रदाय में मान्यता है कि संत तुकाराम सदेह वैकुंठ की ओर प्रस्थान कर गए थे। यह दिन था शके 1571, फाल्गुन वद्य द्वितीया (9 मार्च 1650) ।
इस दिन को ‘तुकाराम बीज’ के नाम से मनाया जाता है। इसी दिन भक्तों से विदा होते समय संत तुकाराम ने भावुक होकर कहां था –
आम्ही जातो आपुल्या गावा । आमचा राम राम घ्यावा ।।
तुमची आमची हे चि भेटी । येथुनियां जन्मतुटी ।।
आतां असों द्यावी दया । तुमच्या लागतसें पायां ।।
येतां निजधामीं कोणी । विठ्ठल विठ्ठल बोला वाणी ।।
रामकृष्ण मुखी बोला । तुका जातो वैकुंठाला ।
अर्थात-
हम अपने गांव जा रहे है,सभी को मेरा राम राम। अब इतना ही सहवास, जन्म का बंधन टूटेगा। आपकी स्नेह बना रहे, चरणस्पर्श। निजधाम आते ही अब वाणी बोले विठ्ठल विठ्ठल। मुख से बोलो रामकृष्ण, तुका करें वैकुंठ गमन।
संदर्भ –
- जाधव, रा. ग. आनंदाचा डोह, वाई, १९७६.
- लाड, पु. म. संपा. श्री. तुकारामबाबांच्या अभंगांची गाथा (महाराष्ट्र शासन), मुंबई, १९७३.
- डॉ जोशी, लक्ष्मणशास्त्री, संपादक मराठी विश्वकोश, महाराष्ट्र सरकार
- http://tukaram.com/
- संत तुकाराम-अभंगगाथा, लेखक- डॉ वेदकुमार वेदालंकार, गुरुकुल प्रकाशन, शिव श्री, 258 सहजीवन, पर्वती, पुणे -411009
- भक्त विजय, संत महिपती, प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर
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~ विजय नगरकर, अहमदनगर, महाराष्ट्र
मेल : vpnagarkar@gmail.com