
युयुत्सु
किसने चाहा युयुत्सु बनना..?
सत्य के पक्ष में डटे रहना
समय की नंगी तलवार पे चलना
वो भी बिना डगमगाए…!!!
कुछ
सत्ता के पक्षधर
अक्सर प्रश्नों के बवंडर
उड़ा देते हैं
आँखों में धूल की मोटी परत चढ़ा
पूछते हैं
टेढ़ी मुस्कान लिए
अंजाम क्या हुआ?
क्या
सत्य की रक्षा हुई..?
समय की कसौटी पर
खरे उतरने की चाहत में
कितने छल
कितने घाव
कितने प्रपंच
कितनी अपेक्षाएं
कितने सत्ताधारियों की
आश्वासनों की होली
और कितने ही
तथाकथित “अपनों” की
उपेक्षाएं मिलीं..!!?
सुनो युयुत्सु..!!!
इस उपक्रम में
प्रकाश और ऊष्मा से
सत्तारूढ़ शासकों की
महत्त्वाकांक्षाओं की मशालें
प्रज्वलित हो रही थीं
या
तुम स्वयं दाह्य बन गए चुके थे..?
(या तुम स्वयं दहन सामग्री बन चुके थे)
क्या रण योद्धाओं के संवेग भी
युद्धभूमि में गढ़ चुके थे..?
अनाथों, विधवाओं की सिसकियां
अब कानों को नहीं बेधतीं..?
झुलसी ,बेबस, रुदालियों की
छाती चीरती
गगनभेदी चीखें
अभिशप्त आकाश की आँखों में भी
नमी न ला सकी….!
या फिर
सचमुच
काट दी गई थी
जिह्वा
युयुत्सु तुम्हारी…!!!
इतिहास साक्षी है
इतिहास रचेगा वो
युद्ध में बचेगा जो
सीता सी अग्निपरीक्षा देकर भी
तुम
क्यों नहीं त्याग पाए
विलासिता का
मोह…
या
दासत्व प्रथा का शिकंजा था वो..!?
सुनो युयुत्सु…!
जब जब
शकुनि की बिसात पर
धर्मराज हारेगा;
जब जब
सत्य को
पराजित करेगी
शंखध्वनि;
जब जब
अपराजेय रिपु
घिरेगा
षड्यंत्रों के चक्रव्यूह में;
तब तब
सत्ता की आँखों की रतौंधी
फैलाएगी अपने अंधे पंजे…
और
मार्तंड पर भी
छा जाएगा अंधकार
असमय ही…;
शंखों की ध्वनि
मांओं की चीत्कार से दबी
दम तोड़ देगी
और
छली गई मानवता का रुदन
हर गली
हर चौराहे पर
सलीबी मौत से
तड़प तड़प कर
प्राण त्याग देगा
मौन और तुम्हारी चुप्पी में छिपा
कटी जिह्वा का सत्य
उजागर होकर ही रहेगा
उजागर होकर ही रहेगा..!?!
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– नोरिन शर्मा