
आगे आगे होता है क्या!
– डॉ अशोक कुमार बत्रा
लगभग 20 वर्ष पहले की बात है। चुनावों की तैयारियाँ चल रही थीं। दोपहर 2.30 बजे के आसपास मेरे घर में कॉलेज के प्रिंसिपल का फोन आया कि मुझे सचिवालय में बुलाया गया है। मैं घर में नहीं था। आया तो 4.30 बजे चुके थे।
समाचार मिलते ही मैं सचिवालय पहुंँचा। परंतु देर हो चुकी थी। चुनाव अधिकारी ने कहा — आप लेट आए हैं। अब तो काम हो चुका है। आप जाइए।
एक अधिकारी ने कहा कि चलिए, आए हैं तो आप भी सूची देखते जाइए। वैसे यहाँ बहुत-से स्कूलों से 12-13 अध्यापक बुलाए गए थे। उन्होंने काम कर दिया है। फिर भी आप एक बार सूची देख लीजिए। चुनाव के प्रत्याशियों की सूची को अकारादि क्रम से लगाना है। कोई विवाद न हो जाए, इसलिए हिंदी अध्यापकों और प्राध्यापकों की सेवाएँ ली गई हैं।
मुझे प्रत्याशियों की सूची दिखाई गई। मैंने उन्हें कहा — इसमें दो प्रत्याशियों का क्रम उलटना पड़ेगा। संतरा देवी पहले आएगी और सतवंती बाद में।
चुनाव अधिकारी ने कहा — यह कैसे कह रहे हैं आप? अभी सब अध्यापक एकमत से इस सूची को फाइनल करके गए हैं।
फिर उन्होंने वर्णमाला की पुस्तक मेरे सामने रखी। कहा —
देखो, वर्णमाला में पहले अ आता है और अं तो सातवें क्रम पर आता है।
मैंने कहा — जब आप संतुष्ट हैं तो चलने दीजिए ऐसे ही। मुझे जितना ज्ञान था, मैंने आपको बता दिया है। निर्णय लेना आपका काम है।
एक अधिकारी शायद कालेज का पूर्व-छात्र रहा हो। मुझसे बोला –सर! आपके ऐसा कहने का आधार क्या है?
मैंने उत्तर दिया — मेरे पास प्रामाणिक शब्दकोश हैं। उन सबमें यही क्रम मिलेगा।
उन दिनों गूगल देवता तो था नहीं। अतः वे असमंजस में पड़ गए। उन्होंने एक अधिकारी से कहा — जीप निकालो और सर के घर से शब्दकोश लिवा लाओ।
जब मैं पुलिस की जीप में घर गया तो घरवाले घबरा गए। ऐसा क्या कर दिया जो पुलिस हमारे घर की तलाशी लेने आ पहुँची है।
मैंने पत्नी को ढाढ़स बँधाया। अपने पुस्तकालय से तीन शब्दकोश निकाले और जीप में वापस आ बैठा। तब तक पड़ोसी भी हैरानी से बाहर निकल आए थे।
मैंने ज्ञानमंडल लिमिटेड वाराणसी द्वारा प्रकाशित बृहत हिंदी कोश, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित बृहत प्रामाणिक हिंदी कोश तथा ऑक्सफ़ोर्ड हिंदी अंग्रेजी शब्दकोश चुनाव अधिकारी के सामने रखे।
चुनाव अधिकारी के सामने पहला कोश खोला। उन्होंने देखा — पहले संतरा है, सतवंती बाद में। वे हैरान हुए। फिर दूसरा और तीसरा कोश देखा। तीनों में यही क्रम था। वे संतुष्ट हुए। प्रसन्न हुए। उन्होंने मेरा धन्यवाद किया।
दुविधा अब भी उनके चेहरों पर साफ झलक रही थी। वे 12 अध्यापकों और वर्णमाला की बात मानें या शब्दकोशों की। सभी अधिकारी एक-दूसरे की आँखों में देख रहे थे। अंत में संतरादेवी जीत गई, सतवंती को सब्र करना पड़ा। जैसा कि अक्सर होता है, सत्य को सब्र के घूँट पीने ही पड़ते हैं।
यह एक ऐसी घटना थी जिसने मुझे कोशविज्ञान और शब्दक्रम का गहराई से अध्ययन करने के लिए विवश कर दिया।
अनेक प्रामाणिक शब्दकोशों का अध्ययन करने पर मुझे पता चला कि अंग्रेजी के शब्दकोशों में जहाँ वर्णक्रम का कोई भेद या वैविध्य नहीं मिलता, वहीं हिंदी के शब्दकोश किसी-न-किसी रूप में दूसरे शब्दकोशों से भिन्न क्रम का पालन करते हैं। जिसने जैसा चाहा, थोड़ा-बहुत अंतर कर लिया।
मुझे हैरानी इस बात की भी थी कि 12-13 अध्यापकों में से किसी ने भी इस सूक्ष्म अंतर को लक्ष्य क्यों नहीं किया? इसका क्या कारण हो सकता है?
लापरवाही, अज्ञान या गैरजिम्मेदारी?
मुझे इसका उत्तर उस बौद्धिक आलस्य और अगंभीरता में तब मिला जब मैंने हिंदी व्याकरण की सैकड़ों कार्यशालाओं में अध्यापकों से बात करते हुए यह जाना कि हिंदी के 90-95 प्रतिशत अध्यापकों के घर कोई प्रामाणिक शब्दकोश नहीं है। जब कोश है ही नहीं, तो कहावत है — —– —- निचोड़ेगी क्या!
अब तो आलसियों के लिए एक सौभाग्य उदित हो गया है। गूगल बाबा ने सबके जीवन में प्रवेश कर लिया है। आपको कुछ न आता हो तो गूगल तुरंत हाज़िर है। उसमें ऐसे असंख्य शब्द भी हैं जो हिंदी और संस्कृत के किसी प्रामाणिक शब्दकोश में नहीं हैं। न जाने वे कहाँ से आए हैं? उनका स्रोत क्या है?
बिना गंगोत्री के गंगा-प्रवाह हो रहा है। जो विद्वान शब्दों का अध्ययन करते-करते घिस गए, वे अज्ञानी सिद्ध हो गए और जो गूगल पर तेजी से उँगलियाँ चलाना जानते हैं, वे परम ज्ञानी हो गए। अब गूगल का नाम लेकर किसी भी प्रामाणिक कोश को धता बताया जा सकता है। अभी कल की ही बात है। हिंदी से कोसों दूर, परन्तु हार्डवेयर के एक धनी व्यापारी ने मुझ पर धौंस जमाते हुए, मुझे शर्मिंदा कर दिया।…
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