
गणित और साहित्य
पता नहीं कौन-सा काँटा
गणित के दिल में पैठ गया
कि एक दिन साहित्य से ऐंठ गया
बोला —
अबे ओ साहबजादे साहित्य!
कहते होंगे लोग तुझे आदित्य!
पर यह मत भूल
आदित्य की दूरी मापने में
मैं ही काम आता हूँ
तेरे छन्दों में कितनी मात्राएँ हैं
मैं ही बताता हूँ!
मैं ना रहूँ
तो सारा लेनदेन गड़बड़ा जाए
इंटरनेट- कम्प्यूटर ठप्प हो जाए
लाइफलाइन मैं चला रहा हूँ
फिजिक्स कैमिस्ट्री से
जुगलबंदी निभा रहा हूँ
दुनिया तू नहीं, मैं चला रहा हूँ!
और तू?
कल्पनाओं के गुब्बारे उड़ा रहा है
लोगों को अंटशंट बरगला रहा है
एक और एक दो होते हैं
उन्हें ग्यारह बता रहा है
पिता एक होता है
उसे बहुवचन बता रहा है
कभी आसमान को
सिर पर उठा रहा है
कभी छछुन्दर के सिर पर
चमेली का तेल लगा रहा है
तू क्यूँ दुनिया को उल्लू बना रहा है?
गणित को बिलबिलाता देख
साहित्य मुस्कराया
बोला — मैं
आदमी को उल्लू ही नहीं
गधा भी बना सकता हूँ
और हाथ में पकड़ा दूँ तलवार
तो सिंह भी बना सकता हूँ।
और लाला गणित!
अगर जिंदगी में
दो और दो बस चार ही होते
तो न भाषा में मुहावरे होते
और न अलंकार होते!
और न कल्पनाएँ होतीं
न भावनाएँ होतीं!
हर पुरुष-नारी एक नग होता
न कोई पिता होता, न भाई होता
न कोई अदना
न कोई महान होता
हर आदमी समान होता!
गणित उत्साह में आया
बोला — यही यही —
मैं भी ऐसा जगत चाहता हूँ
जिसमें न कोई छोटा हो, न महान
सब हों एक समान
न किसी को गधा कहो
न किसी को कृष्ण मुरारी
एक्सरे की तरह
एक सी हो दुनिया सारी!
मन ही मन गुनने लगा साहित्य
इसे आइना दिखाना पड़ेगा
तिनके और पहाड़ का अंतर
समझाना पड़ेगा
बोला —
यह जो दीवार पर चित्र लगा रखा है
क्यों दीवार को खराब कर रखा है
यह कानी बुढ़िया कौन है
न शक्ल है, न सूरत है
कुरूपता की मूरत है
इसे दीवार पर क्यूँ लगा रखा है?
दीवार को कबाड़ बना रखा है!
साहित्य ने चला दिए ऐसे तीर
जो घाव कर गए बहुत गंभीर
भड़क कर बोला गणित!
तू आदमी है या पाषाण!
मुँह में छुरी है या जुबान!
तुझे माँ को
माँ कहना भी नहीं आता है
ममतामयी माँ को
कानी बुढ़िया बताता है !
कहते- कहते
गणित की आँखें
डबडबाने लगी
कुछ याद करके
रुलाई आने लगी
बोला — माँ के कारण ही
मैं काना होने से बच गया
और आज
कमलनयन कहलाता हूँ
इसलिए उसे काना नहीं
दिव्य दृष्टि माँ बताता हूँ
अगर वो कानी है
तो आँख वाला कौन है?
गणित ने देखा
साहित्य के भी आँसू झर रहे हैं
और वह मौन है
गणित उसे क्या कहे!
कुछ कहा न गया
और कहने को कुछ रह भी न गया
साहित्य ने सिर झुकाया
बोला — क्षमा भैया क्षमा!
मैंने देवी माँ को कानी कहा
विश्व की सर्वसुंदरी को
कुरूपा कहा।
मुझे तो बस
तुम्हें मर्म तक पहुँचाना था
कोई क्यों हो जाता है उल्लू या शेर
यह बतलाना था
गणित ने मुस्कराती आँखों से प्रणाम किया
बोला — क्षमा करना!
खुद को सर्वस्व समझ बैठा था
तथ्य ही परम सत्य है
इस भ्रम को पकड़ के बैठा था।
तुमने यह रहस्य समझा दिया
कोई कुरूपा
क्यों सर्वसुंदर हो जाती है
यह मर्म समझा दिया।
तुम त्रिनेत्र हो
मैं एकाक्षी हूँ
तुम त्रिशूल हो
मैं शूल हूँ
हर बात को
गणित से बताया नहीं जा सकता
भावनाओं के समुद्र को
अंकों से दिखाया नहीं जा सकता
साहित्य बोला —
प्रिय गणित!
मुझे सत्य ही नहीं
सुंदरम भी कहना होता है
और दोनों को
शिवमय करना होता है।
इसलिए सूरज
आग का गोला नहीं
आदित्य हो जाता है
तथ्य तथ्य नहीं
साहित्य हो जाता है।
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– डॉ. अशोक बत्रा