
निर्मला जैन मैम
प्रो.रेखा सेठी
हिंदी की स्त्री रचनाकारों की कतार में आलोचक बहुत कम हैं। जेंडर और साहित्य के रिश्तों की पड़ताल में एक अदृश्य-सा समझौता दिखाई पड़ता है। रचना का संबंध मनुष्य के भाव जगत से अधिक है, इसलिए वह स्त्रियों के हिस्से रहा लेकिन जहाँ साहित्य का नीति निर्धारण होता है, ताकत के समीकरण बनते हैं किसी एक को प्रतिष्ठित व दूसरे को अदृश्य करने की योजनाएँ बनाई जा सकती हैं, आलोचना का वह संसार, पुरुष रचनाकारों के अधिकार क्षेत्र में रहा है। आलोचना की इस दुनिया में नामवर सिंह के लगभग साथ ही या उनके कुछ बाद, स्त्री रचनाकारों में निर्मला जैन का नाम उभरता है जिनका पूरा रचना कर्म आलोचना को ही समर्पित है। 1967 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘रस सिद्धांत एवं सौंदर्य शास्त्र’ पर उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय की सबसे पहली डि.लिट की उपाधि प्रदान की गई थी। आज भी यह ग्रन्थ उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है। काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र को अपना विषय बनाते हुए, इस पुस्तक में निर्मला जैन एक साथ साहित्यिक अभिरुचि एवं साहित्यिक मानदंड की दृष्टि से साहित्य एवं कला के उच्च कोटि के अध्ययन को आलोचना के केंद्र में लाती हैं। शोध-परक विश्लेषण पद्धति जिस तार्किकता से एक-एक बिंदु प्रतिष्ठित प्रतिस्थापित करती हुई आगे बढ़ती है वह अपने आप में आलोचना का एक मॉडल है। उस पर जितनी बात होनी चाहिए थी संभवत उतनी नहीं हुई और न ही बाद में ऐसी कोई परंपरा विकसित हुई जिसमें भारतीय काव्यशास्त्र और पश्चिम के सौंदर्यशास्त्र को एक साथ रखकर देखा जाए।
निर्मला जैन का आलोचना कर्म विस्तृत साहित्यिक क्षितिज में फैला हुआ है। गंभीर साहित्यशास्त्रीय विषयों से लेकर सृजनात्मक साहित्य का विविधमुखी जगत उनके आलोचना जगत में स्थान पाता है। उनकी आलोचना की सबसे बड़ी शाक्ति है कि वहाँ रचना को किसी वाद का सिद्धांत के सीमित आयतन से देखने के विरुद्ध रचना की स्वतंत्र इयत्ता को आलोचना निष्कर्ष के रूप में स्वीकार किया गया। हिन्दी आलोचना में समसामयिकता के आग्रह को लक्षित कर उन्होंने लगभग शिकायत की तर्ज़ में लिखा- ‘‘ऐसा लगता है कि आज के आलोचक को अपने पूर्ववर्ती साहित्य से पुनर्मूल्यांकन के लिए अवकाश ही नहीं है। परंपरा से ऐसा संबंध-विच्छेद हिन्दी आलोचना के इतिहास में पहले कम ही हुआ है। वे स्वयं परंपरा के पुनर्मूल्यांकन में विश्वास रखती हैं लेकिन जिस उन्मुक्त भाव से वहाँ परंपरा का अवगाहन होता है वही खुलापन नवीन प्रवृतियों के स्वीकार में भी है। हालाँकि आधुनिक आलोचना के विमर्शबद्ध मुहावरे के प्रति उन्होंने सदा सावधान किया। उनका मानना है कि आयातित विमर्शों के चौखटे रचना और आलोचना दोनों की सृजनात्मकता को सीमित करते हैं।
2015 में कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका ‘लहक’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार लिया था। उसमें जब यह सवाल उनके सामने रखा कि ‘आलोचना के क्षेत्र में आपका योगदान ऐतिहासिक है लेकिन क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि एक स्त्री होने के कारण पुरुष वर्चस्व वाली इस विधा में आपको पर्याप्त श्रेय नहीं मिल पाया?’ तो उसके जवाब में जो उन्होंने कहा वह साहित्य और जेंडर के संबंध का बहुत बड़ा संकेतक है। “आप ऐसा सोचती हैं और मेरे लिए यह धर्मसंकट है बिल्कुल ईमानदारी से महसूस करती हूँ कि निश्चित रूप से ऐसा हुआ है। मेरे बहुत से समकालीन हैं जिन्होंने मुझसे बहुत कम काम किया है और उन सबसे मेरे अच्छे सम्बन्ध हैं। जब आलोचकों की गिनती होती है तो मुझे छोड़कर इन सबका नाम लिया जाता है। यह अन्याय तो है लेकिन मुझे इसकी बहुत चिंता नहीं है। राजेंद्र यादव अक्सर कहा करते थे, ‘अरे! डेढ़-सौ साल की अकेली स्त्री आलोचक!’ उनके अलावा शायद ही किसी ने ऐसा कहा या माना हो। बहुत कम पुरुषों में यह उदारता होती है कि स्त्रियों को अपने बराबर खड़ा देख सकें और सराह सकें। एक अर्थ में पुरुष वर्चस्व वाली बात ठीक है।” यह नोट किया जाना चाहिए कि यह बेबाक टिप्पणी तब आती है जबकि निर्मला जैन अपने लेखन में अनेक अवसरों पर यह कह चुकी हैं कि साहित्य में स्त्री होने के नाते कोई रियायत नहीं दी जा सकती। स्त्री आलोचना के मापदंड साहित्य की साधारण आलोचना से अलग नहीं हो सकते क्योंकि समय के अंतराल पर जो श्रेष्ठ होगा वही जीवित रहेगा और उसमें स्त्री और पुरुष का भेद नहीं होगा।
निर्मला जैन की समकालीन तीन बड़ी स्त्री रचनाकार हैं–कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा तथा मन्नू भंडारी। इनके लेखन पर निर्मला जैन ने एक पूरी आलोचनात्मक पुस्तक लिखी–‘कथा समय में तीन हमसफर’. इन तीनों में समानता यह है कि ये सभी स्त्री रचनाकार हैं लेकिन अपनी अनुभूति की बनावट तथा रचना जगत में तीनों एक दूसरे से भिन्न हैं। तीनों के यहाँ स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता को लेकर एक सजग भाव है. इस पुस्तक में इन तीनों के रचना क्षेत्र के साथ-साथ उनके समय का लेखा-जोखा भी है और परिशिष्ट में ही सही लेकिन स्त्री सवालों के बरक्स उसको देखने और उन सवालों से उसकी मुक्ति की मुहिम भी। निर्मला जैन की आलोचना दृष्टि स्त्रीवाद के वैचारिक आग्रह से नहीं बनी बल्कि उन्हें तो कृष्णा सोबती की ही तरह ‘स्त्री लेखन’ की नाम पट्टिका से भी एतराज रहा है। उनका मानना है कि आलोचना का धर्म रचना की उंगली थामे, रचना के भीतर पैठकर उसके सरोकारों से रूबरू कराने का है। स्त्री-आलोचना के नाम पर यदि हम केवल स्त्री मानकों को केंद्र में रखते हैं तो संकट पूर्ण होगा। निर्मला जैन की आलोचना दृष्टि स्त्री-आलोचना का एक प्रारूप प्रस्तुत करती है। वह न तो अतिरिक्त ढंग से स्त्री सवालों को केंद्र में लाती है, न ही किसी के लेखन को स्त्री होने के कारण साहित्यिक कसौटियों को हल्का करने की रियायत देती है।
निर्मला जैन जिस समय लिख रही थीं, वह आलोचनात्मक सक्रियता के उत्कर्ष का समय था. रामचंद्र शुक्ल, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और भी कई बड़े नाम आलोचना जगत में खासी प्रतिष्ठा रखते थे। डॉ नगेंद्र ने एक विशेष तरह की विश्वविद्यालयी आलोचना का सूत्रपात किया था। नामवर सिंह ने अपनी रचनात्मक व्याख्याओं से आलोचना का कद बहुत बढ़ा दिया था. निर्मला जैन इन सबके बीच, अपनी आलोचना का लोहा मनवाती हैं तो उस सबके पीछे उनकी व्यवस्थित आलोचना दृष्टि है. आई. ए. रिचर्ड्स तथा टी.एस. एलियट उनके प्रिय आलोचकों में रहे हैं। निर्मला जैन भी अपनी आलोचनाओं में रचना के आंतरिक सत्य को उद्घाटित करते हुए, इस दृष्टि से कृति का मूल्यांकन अवश्य करती हैं कि रचना, साहित्य के प्रतिस्थापित प्रतिमानों को किस तरह प्रस्तुत करती है और साहित्य परंपरा को अपने मौलिक योगदान से किस तरह पुनः व्यवस्थित करती है। वे रचना के सभी पक्षों को उठाते हुए बड़े तार्किक ढंग से उसकी नवीनता पर अपनी नज़र टिकाती हैं। जैसे मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘आपका बंटी’ को सब जब बच्चे की नज़र से देख रहे थे, वहीं निर्मला जी ने उसे व्यक्ति के निजी अहं, महत्वाकांक्षाओं और कुंठाओं की दृष्टि से देखा। ऐसा करने से उपन्यास को पढ़ने की दिशा बदल जाती है। सतह पर उद्भासित यथार्थ के विलोम में एक और यथार्थ उभरता है। कामकाजी स्त्री की पीड़ा और चुनौतियाँ, उसकी मान-मर्यादा और अहं, समाज की खोखली अपेक्षाओं का त्रास, सब एक साथ साकार हो जाते हैं, जबकि कहीं भी उनका आग्रह उस आलोचना को स्त्री केंद्रित करने का नहीं है.
यह हैरानी की बात है कि स्त्री दृष्टि या स्त्रीवादी आग्रह से स्वयं को मुक्त रखते हुए भी उनकी आलोचना दृष्टि स्त्री पात्रों पर टिकी है और स्त्री-पुरुष के बीच सूक्ष्म संबंधों पर भी. फिर चाहें वह कृष्णा सोबती, उषा प्रियम्वदा तथा मन्नू भंडारी की कथा कहानियों की पात्र हों या जैनेन्द्र और प्रसाद की स्त्री पात्र। प्रसाद की लंबी कविता ‘प्रलय की छाया’ में कमलावती के संदर्भ से उन्होंने रूप-मोह तथा सौंदर्य-बोध के अंतर की विडंबनापूर्ण परिस्थिति को रेखांकित किया. ‘प्रलय की छाया’ को सौंदर्य का समाधि लेख के रूप में प्रस्तावित करते हुए उन्होंने लिखा–“कमलावती का यह रूप मोह वह सौंदर्य बोध नहीं है जिसे चेतना का उज्ज्वल वरदान कहा जाता है…”। रूप गर्व तथा सौंदर्य की आंतरिक चेतना का द्वंद्व स्त्रीवाद में देह और यौनिकता के सवालों के बीच लगातार प्रतिध्वनित होता रहा है। निर्मला जैन की आलोचना दृष्टि संभवतः स्वयं को प्रसाद के काव्य में नैतिक-आग्रह के साथ जोड़ती है, “आंतरिक सौंदर्य से विहीन रूप का प्रमाद नारी की जीवनी-शक्ति का नहीं, मृत्यु का कारण होता है। प्रलय की छाया इसी सौंदर्यमयी वासना की आँधी की विनाश लीला है।” (संचयिता पृष्ठ 42)
फिर जैसा निर्मला जैन कहती हैं, ‘सृजनात्मकता यथार्थ की प्रस्तुति में नहीं यथार्थ की संभावना की पहचान में होती है’ वे अपनी आलोचना में बार-बार इस प्रश्न से टकराती हैं कि ‘भोक्ता और रचयिता का फासला अच्छे लेखन के लिए कहाँ तक और कितना ज़रूरी है। महिला रचनाकारों द्वारा यथार्थ की प्रस्तुति में स्त्री की सामाजिक स्थिति की पड़ताल के सामाजिक महत्व को स्वीकार करते हुए भी साहित्यिक मूल्यांकन में वे उसे आलोचना के मानक के रूप में स्वीकार नहीं कर पातीं। साहित्य की समस्या समाजशास्त्र से अधिक गंभीर है। इसका संबंध रचनाकार की तटस्थ निस्संगता से भी है। उनका यह मानना कि स्त्री और पुरुष के लिए रचना और आलोचना की कसौटियाँ अलग-अलग नहीं हो सकतीं, साहित्यिक आलोचना का मजबूत तर्क है. इस दृष्टि से पुरुष रचनाकारों के साहित्य का भी पुनःपाठ होना चाहिए यह देखने के लिए कि उनका साहित्य स्त्री के प्रति कितना संवेदनशील है। आज जब मैं स्वयं स्त्री रचनाशीलता पर काम करते हुए स्त्री चिंतन की चुनौतियों से टकराती हूँ तो उनकी अनेक प्रतिस्थापनाएं मुझे घेर लेती हैं। सब बातों से सहमति न होते हुए भी उनके तर्क, तटस्थता तथा आलोचकीय वस्तुनिष्ठता का मेरे मन में बहुत सम्मान है।
प्रो. निर्मला जैन से मेरा अंतरंग संबंध रहा है। उनसे मेरा पहला परिचय, 1988 में एम. ए. की कक्षा में हुआ और उससे भी पहले उनके लेखन से। आज जब वे जीवन के नब्बे बसंत पूरे कर चुकी हैं, संकल्प की ऊर्जा और कर्म का साहस आज भी पहले-सा रोशन है। अभी पिछले ही सप्ताह उनसे मिलने उनके घर गई थी। सुना तो था कि अस्वस्थ हैं, स्मृति कुछ धुंधली पड़ गई है लेकिन मुझसे उन्होंने खूब बात की। आज भी पहले की तरह ही पूछा कि ‘क्या लिखना-पढ़ना चल रहा है?’ आज भी पहले की तरह उनके कमरे में, पलंग पर मेज़ पर पत्रिकाएँ, किताबें और कुछ लिखे हुए कागज़ पड़े थे। आज भी उनका अधिकांश समय पढ़ने-लिखने में ही बीतता है। पिछले बरस जब मिली थी तो उन्होंने कहा कि’ मैं आजकल रामायण फिर से पढ़ रही हूँ। वाल्मिकी की रामायण को मैं फिर से पढ़ना चाहती हूँ।‘ फिर एक दिन पहले बोलीं कि ‘शेखर : एक जीवनी’ फिर से पढ़ रही हूँ। बड़ी नई-नई बातें सूझ रही हैं जो उस समय नहीं सूझी थी। उनकी ऐसी बातें सुनकर पुन: एम.ए. की कक्षाएं याद आ जाती हैं। वे हमें पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ाती थीं, तब तक पाश्चात्य काव्यशास्त्र पर उनकी पुस्तक नहीं आई थी। एक शिक्षक के रूप में वे अपना उदाहरण स्वयं थी। विषय पर गज़ब की पकड़, धाराप्रवाह वक्तव्य और आवाज़ में ऐसा रौब की आपका ध्यान एक क्षण को भी चूक नहीं सकता था।
पचास मिनट की क्लास के लिए मैडम पूरी तैयारी से आती थीं। उनके साथ एक डायरी होती, जिसमें कुछ बिंदु लिखे रहते थे। क्लास करने का तरीका यह था कि छोटे-छोटे सवाल उनकी बातचीत के बीच से उभरते और उन सवालों के जवाब मैडम खुद देतीं। यानि वैचारिकता और तर्कशीलता एक के बाद एक क्रमबद्ध ढंग से जिस तरह उभरने चाहिए वे ज्यों के त्यों उनकी क्लास में उभरते। और यह अहसास भी होता कि अध्यापक के लिए हर कक्षा एक नया सिलसिला शुरु करती है, विद्यार्थी के लिए यह जितनी बड़ी चुनौती है, उतनी ही शिक्षक के लिए भी। आई. ए. रिचर्ड्स तथा इलियट उनके पसंदीदा आलोचक थे। जिसे इलियट कहते थे कि जब भी नई कोई प्रतिभा आती है तो वह परंपरा का एक पुनर्नियोजन कर देती है और आप उसी चीज़ को जब फिर से पढ़ते हैं तो आपके विचारों का, आपकी कसौटियों का भी पुनर्नियोजन होने लगता है। ये ही आपको ताज़ा रखता है, यह मैंने निर्मला जैन से ही सीखा। पाश्चात्य काव्यशास्त्र के माध्यम से उन्होंने हमेशा हमें यह समझाया कि हम जो हिंदी साहित्य पढ़ रहे हैं उसे कैसे समझ सकते हैं यानी वे हिंदी साहित्य से चुन-चुनकर ऐसे उदाहरण देती थीं कि हमें उस साहित्य को पढ़ने और समझने की एक नई दृष्टि मिलती। साथ ही भाषाओं के बीच और अलग-अलग देशों के साहित्य के बीच जो संबंध बनते हैं, जो बातचीत होती है और उससे जो नया दृष्टिबोध पैदा होता है, उसे समझने का भी एक संस्कार हमें मिला।
बाद में मुझे उनके साथ पीएचडी करने का मौका मिला। यकीन मानिए मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे प्रोफेसर जैन के साथ पीएचडी करने का मौका मिलेगा। एम.ए के दिनों से ही हम उनसे डरते भी बहुत थे। अनुशासन को लेकर वे काफी सख़्त स्वभाव की थीं। मैडम का एक रौब था। अपनी किताब ‘कथा समय में तीन हमसफर’ में कृष्णा सोबती के लिए उन्होंने लिखा है कि जो लोग भी कृष्णा जी के करीब होते थे, वे सब जानते थे कि एक रेखा के बाद नो एंट्री का बोर्ड लगा हुआ है। वैसे ही एम.ए के दौरान विद्यार्थी जीवन से ही हम जानते थे कि मैडम से बहुत फालतू की या इधर-उधर की बातें नहीं कर सकते हैं। इस कारण मुझे थोड़ा डर भी लगा कि मैं उनके साथ पीएचडी कैसे करूँगी, मुझमें आत्मविश्वास की कमी थी मैं उनसे अपने मन की बात कैसे कह पाऊँगी! लेकिन जब पहले ही दिन मैं उन्हें अपना सिनोप्सिस दिखाने गई तो उन्होंने कहा कि सोच लो तुम मेरे साथ करना चाहती हो कि नहीं। दूसरी बात उन्होंने कही कि ‘मैं अपने स्टूडेंट को उस समय तक पुश करती हूँ जब तक कि मुझे लग न जाए कि उसने अपना पूरा पोटेंशियल अचीव कर लिया है। यह समझ लेना कि मेरे साथ पीएचडी करना आसान काम नहीं होगा।’
याद करने को उस समय के अनेक निजी अनुभव हैं। जीवन में अनेक ऐसे क्षण आए जब मन डाँवाडोल हुआ, साहस छूटने लगा, तब उनके अमूल्य परामर्श न केवल हिम्मत बँधाई बल्कि उचित दिशा-निर्देश भी दिया। उनका सहारा देना भी विलक्षण है। भावुकता भरे शब्दों में, जो आप सुनना चाहते हैं, उस तरह का सुरक्षित आश्वासन उन्होंने कभी नहीं दिया बल्कि कबीर के ‘गुरू कुम्हार’ की तरह भीतर से हाथ का सहारा देते हुए भी घड़े को सुडौल बनाने के लिए बाहर से चोट ही पड़ती रही है। मैडम की वाणी में सख़्त हिदायत रहती है। थोड़ा भी ढीलापन ही तुरंत पकड़ा जाता है। आप ख़ुद-ब-ख़ुद मुस्तैद हो जाते हैं और कड़ी मेहनत से जी चुराने के लापरवाह इरादे जल्द ही ध्वस्त पड़े नज़र आने लगते हैं। मेरी पीएचडी करने के दौरान ही मैडम माल रोड से धौला कुँआ स्थित साउथ कैम्पस की प्रोवोस्त हो गईं थीं और वहाँ रहने चली गईं थीं। यह उन दिनों की बात है जब मेरी पीएचडी पूरी होने वाली थी और ज़रूरत थी कि हम लंबी-लंबी बैठक करें। मैं एड-हॉक पढ़ा रही थी, तीन साल की छोटी बच्ची भी थी। मुझे सपरिवार रात दस बजे उनके घर जाने की इजाज़त थी, जब मैं उन दिनों के बारे में सोचती हूँ तब उनके उस कोमल पक्ष को महसूस कर पाती हूँ कि कैसे एक महिला प्रोफ़ेसर और गाइड होने के नाते, उन्होंने अपने मार्गदर्शन में पीएचडी करने वाली लड़कियों की मजबूरियाँ समझीं और उनके लिए कितना बड़ा स्पेस दिया। मुझे आज भी उनके घर जाकर परिवार के सदस्य का सा अनुभव होता है, मुक्तिबोध भी याद आते हैं : ‘हमें था चाहिए कुछ और/सिद्धांत हो वज्र-सा कठोर/भीतर भाव गीला हो।’ निर्मला जैन के स्वभाव में यही दृढ़ता और तरलता साकार होती देखी है।
कभी-कभी यह दिलचस्प लगता है कि अपने काम को इतनी संजीवनी से लेने वाली, लगभग हर क्षण सक्रिय प्रो. जैन का एक घरेलु गृहस्थिन का संस्करण भी है। उनके मित्र, उनके यहाँ होने वाली महफिलों का बखान करते नहीं थकते जिसमें उनकी पाक-कला पूरे निखार पर रहती है। खाना बनाने से लेकर परिवार के सभी सदस्यों की धड़कन को पहचानना उनके कार्य क्षेत्र में शामिल है। घर में, अपने बाद की तीन पीढ़ियों से उनके संबंधों की तरलता को उनके यहाँ जाने वाला कोई भी महसूस कर सकता है। अगली पीढ़ियों के प्रति गतिशीलता भरा खुला दृष्टिकोण उन्हें उनका मित्र बनाता है। पीढ़ियों के अंतर को जैसे घर में पाट दिया वैसे ही साहित्य क्षेत्र में भी परंपरा और नवीनता के बीच पुल बनी खड़ी हैं।
अगर, जीवन में उनसे कोई सीखना चाहे तो बहुत-सी बातें हैं, सबसे बड़ी है उनकी हिम्मत। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी कभी हार नहीं मानी। आज से सत्तर बरस पहले के भारतीय समाज में एक विवाहिता स्त्री का उच्च शिक्षा की राह पकड़ना और उस पर इतना आगे निकल जाना लगभग कल्पनीय प्रेरक कहानियों जैसा है। जब भी उनकी सपफलता की चर्चा होती है उनके पति का नाम अवश्य आता है। निश्चय ही उनके सहयोग और विश्वास के बिना यह मकाम हासिल करना असंभव होता लेकिन स्वयं स्त्री होने के नाते यह जानती हूँ कि स्त्रियो का संघर्ष हमेशा कई स्तरों पर एक साथ चलता रहता है। सतह भी शांति भीतर की हलचल को ढँक भले ही ले पर ख़त्म नहीं कर सकती। उनकी आत्मकथा के पहले सौ पन्नों में उनके आरंभिक जीवन के संघर्ष उनका एक अलग रूप हमारे सामने रखते हैं। उसमें वे अपनी उस ज़िंदगी की बात करती हैं जहाँ चाँदनी चौक के इलाके में बड़ी हुईं, पिता की मृत्यु के बाद माँ के साथ कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाए, फिर विवाह और उसके उपरांत की तमाम विडंबनाएं… उनकी ज़िंदगी ‘बेड ऑफ रोज़ेस’ नहीं थी, सब कुछ अच्छा ही अच्छा हुआ हो ऐसा भी नहीं लेकिन जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों तब कैसे डटे रहना है, यह साहस भी उनमें अद्भुत है।
अपने काम में डॉ. जैन ‘परपफेक्शनिस्ट’ रही हैं। एक-एक शब्द पर उनकी पैनी नज़र है। स्वयं अपने लिखे वाक्यों को बार-बार बनाती-सुधारती है। भाषा पर जो उनका अधिकार है, हिंदी, अँग्रेज़ी, उर्दू और ख़ास तौर पर मेरा बचपन भी क्योंकि चाँदनी चौक में बीता है तो मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूँ कि भाषा का कैसा एक हिंदुस्तानी रूप होता है जिसमें रवानगी से हिंदी और उर्दू के मिले-जुले शब्द आते हैं इसलिए कभी-कभी अगर उनका लिखा मेरे सोचने के, मेरे पढ़ने के बहुत करीब होता तो उसका कारण ये भी होता था कि मैडम जिस भाषा का इस्तेमाल करती थी वह मेरी बड़ी परिचित भाषा थी। कभी भी उन्होंने ये कोशिश नहीं की कि लेखन को बहुत बारीक पच्चीकारी से कभी-कभी इतना बोझिल बना दिया जाए कि आलोचक क्या कहना चाहता है, वह बिंदु ही आपसे छूट जाए। जो भी उन्होंने लिखा उसमें एक तरह की सीधे रूबरू होने की कोशिश है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण है और जो भाषा है वह ऐसी कि लगता ही नहीं कि आप आलोचना पढ़ रहे हैं। उसमें आपको रस भी आएगा, उसमें आप उनके विचार प्रवाह के साथ शामिल हो जाएँगे। आप उसे सुनते रहेंगे। बाद में सुन पाना ख़ास तौर पर इसलिए क्योंकि मैडम की क्लास खत्म हो जाने के बाद भी उनके भाषण की जो अनुगूँज है वह आपके कानों में सुनाई देती रहती थी। अभी भी आप अगर मुझसे पूछे तो 1989 में मैंने एमए कर लिया था और तब से आज तक तीस बरस से ज़्यादा गुज़र चुके हैं लेकिन आज भी मुझे वह क्लास, वह मैडम की आवाज़ याद है और इसलिए याद है क्योंकि वे आपको अध्ययन में अपना एक साझेदार बना लेती थीं। लिखने का भी गुर उन्होंने मुझे दिया, एक बार मुझसे कहा कि तैयारी कितनी भी करो लेकिन कोई लेख अगर लिखो तो तीन दिन से ज़्यादा का समय नहीं लगना चाहिए। क्योंकि उसके बाद आपका विचार सूत्र टूट जाता है।
नब्बे के दशक में जब उत्तर आधुनिकता पर बहस होनी शुरु हुई तो यकीन मानिए हिंदी के लेखकों, आलोचकों, विद्यार्थियों को ये विषय जटिल लगता था। फिर देखते ही देखते आलोचना के क्षेत्र में दो तरह के तर्क सामने आने लगे। एक वह था जो कहता था कि इससे बड़ी कोई चीज़ नहीं है और एक कंज्युमरिस्ट सोसाइटी में हमें इसे ध्यान से देखना चाहिए। यह हममें साहित्य को फिर से देखने की समझ जगाता है और जब दुनिया भर में उत्तरआधुनिकता की बातें हो रही हैं तो विखंडन (deconstruction) हम क्यों नहीं देखेंगे और एक वर्ग था जो यह कहता था कि ये उत्तर आधुनिकता की जो कसौटी है, आलोचना की ये एक तरह का नियोकैपिटलिज़्म है, अगर हम साहित्य की आलोचना इस नियोकैपिटलिस्ट मोड में करेंगे तो हम अपने साहित्य की परंपरा और शाश्वतता को तोड़ देंगे। लेकिन देखिए साहित्य की आलोचना इस तरह खेमों से नहीं चलती। अगर हम चाहें कि आलोचना की कसौटी के रूप में उत्तर आधुनिकता जो तर्क और नए तत्व जोड़ रही थी, उन्हें खारिज कर दें तो यह भी नहीं हो सकेगा। अगर हम ये कहें कि उसे हमें स्वीकार करके उसी को अपने साहित्य का आलोचना मानदंड बना लेना है तो यह भी नहीं हो सकेगा। मुझे याद है कि मैंने मैडम से कहा कि बहुत से विद्यार्थी भी जानना चाहते हैं इसलिए उत्तरआधुनिकता पर आप कोई ऐसी किताब बताइए जो पढ़कर पढ़ाया जा सके। तब तक वह उनकी किताब का हिस्सा नहीं बना था। बाद में वह निबंध उनकी किताब में भी आया। उन्होंने मुझे एक पैम्फलेट दिया जो शिवदान सिंह चौहान पर कोई लेक्चर शृंखला से संबंधित था। उस शृंखला में मैडम को ‘उत्तर आधुनिकता पर आलोचना के मुहावरे का संकट’ विषय पर भाषण देना था। अगर आज भी मुझे कोई विद्यार्थी पूछे कि उत्तर आधुनिकता पढ़ना है तो मैं सबसे पहले मैं उनको वही निबंध दूँगी जिसमें पक्ष-विपक्ष दोनों हैं, जिसमें तर्क क्या है और हमारे लिए वह क्या संकट पैदा करता है, हमें उसे किस रूप में ग्रहण करना चाहिए, वह सारा सार-संक्षेप उस एक निबंध में मिल जाता है। उनके लेखन में आलोचना, शास्त्र और रचनात्मक साहित्य के बीच जो संबंध बनता है वह किसी भी अच्छी आलोचना में होना चाहिए। रचना के गंभीर व्याख्या-विश्लेषण के बीच छोटे-छोटे बेहद सटीक प्रश्न उपस्थित कर देना उनकी आलोचना निजी शैली का प्राण है। उनकी आलोचना वे रचना केन्द्रित रहते हुए भी अपने युग और इतिहास के व्यापक संदर्भों से जुड़ती हैं। नीरस वैचारकता के बोझ से बचते हुए ठेठ दिल्ली की बोली का ठाठ उनकी भाषा में दमकता है। भाषा की यह बानगी आलोचना को सृजनात्मक आयाम देती है। इसी से वे हम सबकी ‘रोल मॉडल’ हैं। मेधा, सृजन और दृढ़ता की योग डॉ. निर्मला जैन का मैं हृदय से अभिनंदन करती हूँ।
