आजकल अधिकतर देशों में नारी पुरुष दोनों ही काम करते हैं। अतः उनके छोटे बच्चों के देख-रेख की समस्या भी दिनों दिन बढ़ रही है। टूटते हुए संयुक्त परिवारों ने भी इस समस्या में वृद्धि की है। एक बात और है। बच्चों की देख-रेख के सम्बन्ध में आजकल की कमवयस्का महिलायें बाहरी लोगों पर अपेक्षाकृत कम विश्वास कर पाती हैं, यद्यपि अब तो उनके पास अपने ऐसे आधुनिक उपकरण भी उपलब्ध हैं, जिनके द्वारा वे बच्चों को कहीं से भी मॉनिटर कर सकती हैं। इसका क्या कारण है? क्या विश्वासपात्र लोगों का अभाव हो गया है या लोगों में दूसरों पर विश्वास करने की क्षमता ही कम हो गयी है।

इन्हीं विषयों पर सोचते-सोचते सहसा मेरे मनोमस्तिष्क में एक अत्यंत सौम्य, संवेदनापूर्ण तथा ममतामयी महिला का चित्र साकार हो उठता है, वह चित्र है मिसेज़ वास का। उन्होंने हमारे दोनों बच्चों अदिति और अनुज की देख रेख दस वर्षों तक की। इतने प्यार, दुलार व कुशलतापूर्वक उन्होंने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया कि केवल मैं निश्चिन्त होकर बाहर काम कर सकी वरन शाम की कक्षाएँ लेकर रायर्सन यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन भी कर सकी।

१९७३ में जब हम कनाडा आये, तो यहाँ का रहन-सहन देखकर यह समझ में आ गया था कि हम दोनों को ही नौकरी करनी पड़ेगी। सौभाग्य से हम दोनों को ही काम मिल गया। अब समस्या यह थी कि हमारी तीन वर्षीया बेटी अदिति की देखभाल कौन करेगा? एक अच्छे डेकेयर में जगह मिलना उतना आसन नहीं था। बड़ी दौड़धूप के बाद एक डेकेयर से फोन आया कि उनकी जानकारी में एक अनुभवी और निपुण बेबीसिटर उपलब्ध हैं। हम दोनों अपनी बेटी अदिति को लेकर मिसेज़ आइरीन वास से मिलाने उनके घर गए। वे लगभग ५२ वर्षीय एक कैनेडियन महिला थीं जो अपने निजी आवास में अपनी माँ, पति तथा दो बेटों के साथ रहती थीं। पहली मुलाक़ात में ही वे हमें अच्छी लगीं। वे एक हँसमुख, सौम्य महिला थीं जो हमसे बहुत सहजता तथा अपनेपन से मिलीं।

कुछ ही दिनों के पश्चात अदिति को उनके पास छोड़कर हमने काम पर जाना शुरू कर दिया। शीघ्र ही अदिति उनके परिवार से घुल-मिल गयी। शाम को घर आकर मिसेज़ वास के सम्बन्ध में बातें बताती कि सारे दिन उन्होंने कैसे समय बिताया। जब भी हम शाम को अदिति को उनके घर से लेने जाते तो प्रायः वह उनकी गोद में होती या उनके बच्चों के साथ खेल रही होती। कभी-कभी ऐसा भी होता कि वह हमारे साथ घर आने से मना कर देती क्योंकि वह किसी खेल की बीच में होती । ऐसी स्थिति में मिसेज़ वास मुस्कुरा कर कहतीं कि आप लोग घर जाएँ घंटे भर बाद मेरा बेटा डेविड उसे आपके घर पहुँचा आयेगा।

मिसेज़ वास के यहाँ अदिति का प्रसन्नतापूर्वक रहना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि उस समय बच्चे को छोड़कर काम पर जाने का जो अपराधबोध मन में पल रहा था वह विलुप्तप्राय हो चला था। वह हम दोनों के जीवन का एक संक्रमणकाल था जबकि हम अनेक प्रकार के बदलावों से गुज़र रहे थे। नया देश, नया परिवेश, नए दफ़्तर में नये-नये लोगों के साथ सारा सारा दिन काम करना, नया काम सीखना और कनाडा की विकराल ठंड का पहती बार सामना करना – सब कुछ पहले के जीवन से भिन्न था। उस समय मिसेज़ वास का सहारा एक ईश्वरप्रदत्त वरदान से कम न था।

समय के साथ-साथ मिसेज़ वास व उनका परिवार हमारे और भी निकट आता चला गया और न जाने कब हमारे परिवार का हिस्सा ही बन गया। दीवाली पर हम उन्हें मिठाई खिलाते, क्रिसमस का डिनर उनके घर होता और इस अवसर पर हम उपहारों का आदान -प्रदान भी करते।

हर छोटी-बड़ी समस्याओं में मैं उनसे सलाह भी लेती। जितना मैंने मिसेज़ वास को जाना-समझा, उनके गुणों से मैं और भी अधिक प्रभावित होती चली गयी। उनकी सूझ-बूझ, उनकी आत्मीयता, उनका कर्तव्यबोध अनोखा था, जो अदिति तो अपनी बेटी जैसा ही प्यार करती और कभी-कभी वे कहतीं भी कि यही तो है मेरी बेटी। एक बार अदिति मुझसे बोली कि मिसेज़ वास मुझे माँ जैसी लगती है, इसलिए मैं उनको ममा वास और उनके हस्बैंड को पापा वास बुलाना चाहती हूँ। मिसेज़ वास यह सुनते ही बहुत प्रसन्न हुईं और तबसे वे हमारे बच्चों के दूसरे माता पिता बन गए।

कई ऐसी छोटी छोटी ऐसी विशेष बातें थीं जिनके कारण मिसेज़ वास दूसरों से भिन्न व विशिष्ट बनती चली गयीं। एक बार शाम को जब हम अदिति को उनके घर से लेने गए तो उन्होंने बताया कि उसे सुबह से बुखार था। हम सोच ही रहे थे कि उसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए पर मिसेज़ वास ने बताया कि वे स्वयं ही उसे डॉक्टर के पास ले गयीं, दवा भी ले आयीं और अदिति का बुखार भी कम हो गया है।

डॉक्टर के पास जाने और दवा लाने का हमारा काम भी उन्होंने कर दिया था। हम उनके प्रति कृतज्ञता से अभिभूत हो गए।

एक बार अदिति के लिए शीतकाल के लिए बूट्स और कोट खरीदने थे। मिसेज़ वास से इस सम्बन्ध में मैंने सलाह ली तो वे मुझसे बोलीं, “डोंट वोरी आशा, शनिवार को मुझे भी अपने बच्चों के लिए शॉपिंग करने जाना है तो अदिति की शॉपिंग भी हो जाएगी, उसे भेज देना।” मुझे विश्वास था कि उन्हें इस सम्बन्ध में मुझसे कहीं अधिक जानकारी थी।

एक और महत्वपूर्ण बात मैं साँझा करना चाहूँगी। जब भी मुझे ऑफ़िस में तरक्क़ी मिलती थी तो हम चाहते कि मिसेज़ वास को दी जाने वाली धनराशिभी हम बढ़ा दें, पर वे साफ़ मना कर देतीं। वे कहतीं कि तुम लोग इस देश में नए आये हो, तुम लोगों के बहुत सारे ख़र्चे हैं। मुझे जितना मिलता है मैं उसी में ख़ुश हूँ। और तो और, लॉन्ग वीकेंड वाले सप्ताह में वे मात्र चार दिनों के ही पैसे लेती थीं जबकि हमें पाँच दिनों के पैसे मिलते थे।

अप्रैल १९८० में मेरे बेटे अनुज का जन्म हुआ। उसके जन्म से पूर्व मैंने यही सोचा था कि यदि मिसेज़ वास मेरे दोनों बच्चों को बेबीसीटिंग के लिए स्वीकृति नहीं देंगी तो मैं नौकरी छोड़ दूँगी। १९७९ की क्रिसमस पर जब मैंने मिसेज़ वास को सपरिवार निमंत्रित किया तो उन्होंने बताया कि मेरे दोनों बच्चों की बेबीसीटिंग करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। यह सुनकर मुझे लगा कि मेरे लिए इससे अच्छा क्रिसमस का उपहार हो ही नहीं सकता था।

इस घटना के ३ माह के बाद एक शाम को जब हम अदिति को लेने उनके घर गए तो उनके बेटे डेविड ने हम दोनों से ऊपर के फ़्लोर पर चलने का अनुरोध किया। पूछने पर उसने बताया कि आपके लिए एक सरप्राइज़ है। ऊपर जाकर जो देखा, वह सचमुच एक सुखद सरप्राइज़ था, इतना सुखद कि मेरे आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने हमारे बेबी के लिए नर्सरी तैयार की थी, जिसमें एक बेबी के लिए पलंग के साथ ही साथ हाई चेयर, स्ट्रोलर सभी क़रीने से सजा था। हमसे पूर्व ही उन्होंने हमारे बच्चे के स्वागत की तैयारी कर ली थी। डेविड ने उपहास करते हुए बताया कि उसने अपने समवयसी मित्रों को यही बताया है कि मेरी माँ को बेबी होनेवाला है।

उसी समय एक और रोचक घटना हुई। मिसेज़ वास का जन्मदिन ३० अप्रैल को था, मैंने मन ही मन ईश्वर से मनाया कि मेरे बेबी का जन्म भी उसी दिन हो। संयोगवश ऐसा ही हुआ। उन दिनों कनाडा के दफ़्तरों में मेटर्निटी के लिए केवल १७ हफ़्तों की छुट्टी मिलती थी। अपनी वेकेशन की छुट्टियों के बावजूद भी मैं केवल ५ महीनों का अवकाश पा सकी। दो बच्चों को बेबीसिटर के पास छोड़कर काम पर जाना आसान तो नहीं था। पर मिसेज़ वास की सूझ-बूझ की वज़ह से कुछ आसान तो हो ही गया। मिसेज़ वास यह अनुभव करती थीं कि एक शिशु को छोड़कर काम पर जानेवाली एक माँ सारा दिन बच्चे को मिस तो करती होगी।

प्रति दिन शाम को जब हम अपने बच्चों को लेने उनके घर जाते तो एक तो सदा ही बच्चे प्रसन्न मिलते और वे बड़े प्रेम से हमें बतातीं कि उनका सारा दिन कैसे बीता। यदि अनुज ने कुछ नयी हरक़त की हो तो उसकी जानकारी भी देतीं। ऐसा अनुभव हमें एक पल के लिए भी नहीं हुआ कि वे जल्दी से हमें विदा कर अपने दायित्व से मुक्त होना चाहती हों। डेविड को फोटोग्राफी में अत्यधिक रुचि थी। अनुज की उसने कई सुन्दर तस्वीरें लीं,एक फोटो प्रस्तुत है।

एक और बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि मिसेज़ वास ने १० वर्षों में कभी भी किसी बात के लिए छुट्टी नहीं ली। जब जब हम अवकाश लेते, उसी समय वे भी। मैं प्रायः ईश्वर को धन्यवाद देती कि मिसेज़ वास से मेरा मिलना संभव हुआ। वे हमारे लिए एक बेबीसिटर से कहीं अधिक थीं, वे एक अच्छी मित्र बनीं, जिसने आवश्यकता पड़ने पर सदा सहायता की। अप्रैल १९८० को एकबार मुझे अपने पति को इमरजेंसी में अस्पताल ले लाना पड़ा। उनको फोन करते ही ५ मिनट में वे हमारे घर से बच्चों को ले गयीं। पति को अस्पताल में भर्ती कराकर, जब मैं रात ९ बजे उनके घर गयी तो उन्होंने बच्चों को खिला-पिला कर तैयार रखा था और मुझे भी ज़िद करके खिलाया। १९८३ में जब हम स्कारबोरो में रहने लगे तब अनुज डे केयर में जाने लगे। मिसेज़ वास से रोज़ मिलना संभव नहीं रहा। पर हमारी मित्रता वर्षों तक रही।

कुछ वर्षों पश्चात १९९१ में डेविड के विवाह में अदिति को उसकी पत्नी ने अपनी ब्राइड्समेड बनाया। उसे लगा कि अदिति डेविड की छोटी बहन जैसी ही है। अदिति के विवाह पर भी वे सपरिवार आये।

मिसेज़ वास हमें एक बेबीसिटर के रूप में मिली, पर आजीवन हम मित्रता के अटूट बंधन में बँधे रहे। हमारे मन में उनके प्रति कृतज्ञता सदा से है और सदा रहेगी। ऐसी बेबीसिटर पाना हमारे लिए एक सौभाग्य की बात है। उनके रूप में हमें एक विश्वासयोग्य मित्र तथा एक सूझबूझ संपन्न सलाहकार भी मिली। आज भी उनके परिवार से हमारे मधुर सम्बन्ध हैं।

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-आशा बर्मन

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