
सिंगल मदर से सुपरमदर
-अर्चना पैन्यूली
“हर एक कथाकार की हर रचना की कोई प्रेरणा होती है। इस पुस्तक के लिए प्रेरणादायक कौन है?” टीना ने मुझसे पूछा तो मैं अन्यमनस्क सा हो गया। अनायास ही नजर शीर्षक पर चली गयी – ‘क्यों होते हैं लोग गे?’
एक किताब लिख रहा हूँ, जिसको लिखने में टीना – मेरी पत्नी मेरी पूरी मदद कर रही है। पत्र-पत्रिकाओं व इंटरनेट पर होमोसेक्सुअल पर सामग्री खोजनी, मेरे संग गे क्लबों के चक्कर लगाना, गे आयोजनों में भाग लेना, लोगों का इंटरव्यूह लेना। यहाँ तक कि अपनी एक गे सहकर्मी का भी उसने मेरे संग इंटरव्यूह करवाया। पुस्तक की भूमिका भी वह ही तैयार कर रही है। अब अपनी पत्नी से क्या छुपाऊं, बोल पड़ा – “माँ।”
“माँ? वह भौचक्की हो गयी। “मजाक कर रहे हो?”
“तुम पूछा करती रहती हो न कि माँ अकेली औरत क्यों है? मेरे पिता कहाँ हैं?”
“हाँ तो…?”
“माँ… गे है।”
टीना सन्न, मेरा चेहरा ताकती रह गयी।
“माँ गे है ! कब से अपनी जिन्दगी का यह सच जानते हो?”
तब ग्यारह साल का था….। ईस्टर की छुट्टियों में माँ के साथ मैं स्पेन के कनेरी द्वीप गया था। कनेरी द्वीप समूह के सबसे बड़े द्वीप – टेनेरिफ पर बसे एक संरक्षित जंगल में माँ ने एक कॉटेज बुक करवा ली थी। चारों ओर नीला, शफ्फाफ समुद्र। खारे पानी के जलाशय के बीच बसे इस भूखंड में आकर मैं बेहद रोमांचित था। दिन भर हम काले और सफेद रेतीले समुद्र तटों पर पानी के खेल – विंडसर्फिंग और स्कूबा डाइविंग – का आनन्द लेते, धूप सेकते।
लंबी पैदल यात्रा करते, साइकिल पर्यटन करते। ज्वालामुखी परिदृश्यों का, रेत के टीलों व राष्ट्रीय पार्क का टूर लेते। समुन्दर की मौजों में मैं और माँ एक-दूसरे का हाथ पकड़ गोते लगाते। गीली रेत पर अपने पैरों के निशाँ छोड़ते हुए चलते। सीपें ढूँढ़ते।
उस दिन हम दिन भर जंगल के चारों तरफ बनी पगडंडियों पर साइकिल चलाते रहे थे। तीस किमी… मैं थकान से चकनाचूर हो गया था। शाम को हम अपनी कॉटेज में बैठे सुस्ता रहे थे। मैं कोक पी रहा था और माँ वाइन, साथ में आलू के चिप्स खा रहे थे, ताजे लाल टमाटर के सौस के साथ। “रायन… मुझे तुमसे कुछ कहना है…” माँ अकस्मात बोली।
मैं चिप्स खाने में मगन था।
माँ मुझे टकटकी बाँधकर निहार रही थी, जैसे मेरे व्यक्तित्व में कुछ टटोल रही हो।
“तुम हमेशा मुझसे अपने पिता के विषय में पूछा करते हो…।”
कितने ही उद्गार मेरे मन में फूट पड़े। जबसे होश सम्भाला था, माँ को अकेले देखा था – सिंगल मदर। मैंने अपने पिता को कभी नहीं देखा, हालांकि मैं चाहता था कि मेरे घर में भी पिता रूपी एक शख्सियत हो। मेरे स्कूल के रजिस्टर में अभिभावक के कॉलम में माँ के साथ मेरे पिता का नाम भी दर्ज हो। मैं अपनी माँ का कुलनाम न लगा कर अपने नाम के साथ अपने पिता का कुलनाम लगाऊँ, जैसे मेरे सारे साथी लगाते हैं। मगर मेरा कोई पिता ही नहीं था, सिर्फ माँ ही नजर आती थी।
“मैं शुरू से ही एक असामान्य औरत थी…।” मैं माँ का मुँह ताकने लगा। वह कहीं दूर सोच में डूब गयी थी। वाइन का हल्का नशा उन पर छा गया था। उनकी नीली आँखे लाल हो गयी थी।
“मैं बिन ब्याही माँ हूँ…।”
तुमने डैड से शादी क्यों नहीं की? क्या डैड अच्छे आदमी नहीं थे? क्या उन्होंने तुम्हें धोखा दिया? क्या तुम्हें प्रेगनेन्ट करके छोड़ दिया…? तमाम प्रश्न मेरे जेहन में मचल रहे थे। कुछ पूछता कि इससे पहले ही माँ बोली, “मुझे मालूम नहीं तुम कितना कुछ समझते हो, लेकिन मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूँ… ।”
“क्या बताना चाहती हो? अगर खराब बात है तो मत बताओ।”
“ नहीं रायन, कुछ बातें खराब और अच्छी नहीं होती। हम इंसानों का उनके प्रति बस एक नजरिया होता है, परिपेक्ष्य होता है। मैं, रायन, तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं – मर्द, औरत और गे या लेस्बियन।“
“तो?”
“मैं गे हूँ…।” खटाक से दिल में एक झटका सा लगा। मैं अवाक् रह गया।
समलैंगिको के विषय में मैं काफी कुछ सुन चुका था। गे मतलब दो औरतें साथ रह रही हैं या दो मर्द। यह भी जानता था बच्चे के निर्माण के लिये तो स्त्री पुरुष का होना अनिवार्य है। दो औरतें मिलकर बच्चा पैदा नहीं कर सकतीं।
“मैं कैसे पैदा हुआ?”
“स्पर्म बैंक से स्पर्म लिये थे मैंने – आर्टिफिसियल इनसेमिनेशन,” माँ अपना वक्तव्य जारी करते हुए बोली। “तुम फाइटर थे। तुरंत ही मेरे गर्भ में आ गये…।”
“मेरे डैड कौन है?”
“कभी मिली नहीं उनसे। पर डाक्टर ने बताया था कि वह हाफ ब्रिटिश और हाफ इंडियन था…। उसकी माँ इंडियन व पिता ब्रिटिश थे। समझ में आ गया तुम्हारा रंग गेंहुवा क्यों है? इंडियन जीनोम के निशाँ हैं तुम्हारे जिस्म में…। ”
मैं गुस्से से भर गया। कोक मैंने फेंक दिया और जंगल में भाग गया, बहुत दूर…। एक पेड़ का सहारा लेकर सुबकता रहा।
माँ मुझे ढूंढते हुए मेरे पीछे आई। मुझे अपने से चिपकाते हुए बोली, “रायन…. आई एम सॉरी!”
मैंने उन्हें परे झटक दिया। “मैं जानती हूँ मैंने सामाजिक धारा के विपरीत प्रवाह में तैरने की कोशिश की। पर मैंने कुदरत के साथ कोई खिलवाड़ नहीं किया, बेटे। समझो, सृष्टि का हर जीव – मादा व नर मिलकर अपने वंश को आगे बढ़ाते हैं…। बच्चे का अपने पिता के साथ रहना एक सामाजिक दस्तूर है, कुदरती नहीं। सृष्टि की दृष्टि से निषेचन और गर्भावस्था की स्थापना के लिये पुरुष का योगदान मात्र एक शुक्राणु है। जहाँ मादा गर्भ धारण करती है, नर की भूमिका वहाँ खतम हो जाती है…। तुम्हें मालूम होगा, जानवरों की सिर्फ माँएं होती हैं…।”
“मैं जानवर नहीं हूँ….।” मैं चीखा तो घने जंगल में मेरी आवाज गूँजने लगी। क्रोध में मैं अपना सिर पेड़ के तने पर पटकने लगा ।
“अरे रायन, नहीं…” माँ अधीरता से बोली। अश्रु बूँदे उनके कपोलों पर ढुलकने लगी।
मुझे अपने पास खींच कर माँ मेरे बालों में अपनी लम्बी उंगलियाँ फिराती हुई बोली, “बेटा, प्राणिजगत में हम सभी जानवर हैं। पति-पत्नी, घर व माता-पिता… ये सरंचनायें बनावटी है। कुदरत ने ऐसा कुछ नहीं बनाया। बच्चे पैदा करने के लिये नारी को पुरुष से सिर्फ स्पर्म चाहिए, वह कहीं से ले सकती है। और मैंने वही किया…। असामान्य यौनप्रवृत्ति कोई आधुनिक या पश्चिमी बात नहीं है। हजारों वर्षों से भी पुरानी दुनिया की तमाम संस्कृतियों में विभिन्न यौनप्रवतियों की कई कथाएँ और उदाहरण पाए जाते हैं। हमारे पुराणों में ऐसे जन्मों की चर्चाएँ हैं। हमारे कई भगवानों का जन्म ऐसे ही हो रखा है। पता है, यीशु मसीह का जन्म एक कुँवारी माता के गर्भ से हुआ था।”
“मैं भगवान नहीं हूँ। न ही किसी पौराणिक कथा का कोई तिलिस्मी चरित्र हूँ। मैं एक सामाजिक प्राणी हूँ। एक बच्चे को डैड चाहिए…” मैं चिल्लाया।
“हूँ ! तुम्हारे कितने दोस्त अपने पिता के साथ रह रहे हैं?” माँ ने तल्खी से पूछा।
माँ सच कह रही थी। मेरे कुछ दोस्तों की माँए तलाकशुदा थी, और जो अपने पतियों के साथ रह रही थी, उनकी उनसे जबरदस्त खटपट चल रही थी। एक बार मेरा दोस्त जेम्स मेरे घर में एक हफ्ते के लिए इसलिए टिका था कि उसके माता-पिता को अपना डिवोर्स डिस्कस करना था। वे नहीं चाहते थे, जेम्स के सामने वे अपना डिवोर्स डिस्कस करें। फिलिप के पिता की हत्या हुई थी, और कातिल उसकी माँ को ठहराया जा रहा था। उसकी माँ जेल में थी और फिलिप यूथ होस्टल में पल रहा था। मेरे दोस्त कहते थे, अच्छा है कि मेरी माँ एक सिंगल मदर है। घर में किच-किच नहीं है। उनके घरों में उनके माता-पिता के बीच हर वक्त ऐसा मन-मुटाव व तकरार चलती रहती है कि उनका घर, घर नहीं युद्ध का अखाड़ा लगता है। लेकिन एक समलैंगिक माँ की औलाद होने का कष्ट कोई समझ सकता है भला …।
मेरे जीवन में पिता का न होना, इस रिक्तता को क्या कोई भर सकता था ! भावानात्मक दृष्टिकोण से यह पहलू बिलकुल सूना था।
ख़ुशी-ख़ुशी में कनेरी द्वीप गया था। क्षुब्ध मन से वापस अपने घर कोपनहेगन लौटा। अपने जीवन के इस कटु सत्य से अगर मैं अनजान ही रहता तो बेहतर था। घर में शान्ति-बहाल के लिये मैंने अपनी माँ की समलैंगिकता स्वीकार कर ली। पर मेरे चारों तरफ एक समाज था जहाँ समलैंगिकता अभी भी स्वीकार्य नहीं थी।
“ऐ चल साले गे…” मेरे क्लास के बच्चे गाली देते हैं जब उनकी किसी से भिड़न्त हो जाती है।
समलैंगिक, होमोसेक्सुअल, बांध, गे, लेसबियन… मैं जानता था ये शब्द शर्मनाक माने जाते हैं । मेरी माँ भी समझती थी, और वह औरत भी जिसके साथ वह ऊपरी मंजिल में कमरा शेयर करती थी। किसी–किसी रात को वह आती थी और सुबह होते ही चली जाती थी। मुझे वह बहुत रहस्यमय सी लगती थी। हालांकि मुझसे उसकी मुलाक़ातें बहुत कम होती थी, पर मैं अब समझ गया था, रात के अंधियारे में वह हमारे घर क्यों आती है।
इससे पहले मेरी माँ ने इतने खुल कर अपनी कामुकता किसी को नहीं बताई। मेरे नाना–नानी ने भी मुझसे माँ की कामुकता के बारे में कभी कोई जिक्र नहीं किया। मेरे मामा ने भी नहीं । कितनी बार हम मिलते हैं, एक साथ बैठ कर खाना खाते हैं, सैर करते हैं, यात्राओं पर रवाना होते हैं। मामा के बच्चों के साथ मैं खेलता हूँ, मगर कोई मेरी माँ के अकेलेपन पर बात नहीं करता। कोई मेरे पिता के विषय में नहीं पूछता। बस यही कहते हैं – मेरी माँ एक सिंगल मदर है। माँ की समलैंगिकता पर कोई टिप्पणी नहीं करते। वे माँ से दरअसल ज्यादा बातें ही नहीं करते। उस दशक में डेनमार्क जैसे खुले वातावरण में भी यह शब्द वर्जनीय था।
न चाहते हुए भी मैं माँ से अक्सर लड़ पड़ता। जब भी कभी माँ से किसी बात पर अनबन होती, तुरंत मैं उन पर ताना मारता, “बच्चा भी तुम किसी अनाथालय से ले लेती। मुझे नौ महीने तक अपनी कोख में उठाने का कष्ट क्यों उठाया?
माँ दुखी भाव से अपनी आँखे बंद कर लेती। अधीरता से मुझसे पूछती, “अनाथालय का बच्चा क्या मेरा बच्चा होता? मैं खुद का बच्चा चाहती थी। मेरे युग्मक से विकसित हुआ, मेरे डीएनए- क्रोमोसोम से निर्मित हुआ, मेरे रक्त से सींचा हुआ, जिसे मैं प्रसव-वेदना सहन कर जन्म दूँ, अपना दूध पिलाऊँ। जिसे मैं पकडूं तो अपनी हथेलियों में अपनी हड्डियां महसूस करूं। जिसकी त्वचा में मैं अपनी गंध सुंघू । तुम मेरे हृदय हो जो मेरे शरीर से बाहर धड़क रहा है…।” कहते-कहते माँ वात्सल्य से अभिभूत होकर मुझे एकदम पास खींच लेती और आलिंगन में कस लेती। मेरे सिर को और कानों को पटापट चूमने लगती ।
धीरे-धीरे मैंने परिस्थतियों से समझौता कर लिया। सोचने लगा, मेरी माँ चाहे जैसी भी है, मेरी माँ है। उस इंसान से आखिर कैसे बगावत कर सकते हैं, जो हमें इस जगत में लाया, हमें हमारा शरीर, वजूद व अस्तित्व प्रदान किया !
मैं अपने जीवन के सकारात्मक पहलुओं पर गौर करता। मेरी माँ एक लंबी, छरछरी व पढ़ी-लिखी महिला है। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करती है। मेहनतकश है। आफिस में एक कर्मशील, कर्तव्यपरायण व जिम्मेदार कर्मचारी मानी जाती है। रूप और पहनावा उनका सधा हुआ रहता है। वह बाल ब्लीच नहीं करती, त्वचा पर टैटू नहीं गुद्वाती, कोई अतिरंजित व्यवहार नहीं, कोई भड़कीली पोशाक नहीं। समाज उनकी कद्र करता है।
वह एक समर्पित माँ है। एक सुपरमदर है। मेरे लिये कपड़े खरीदती है, मेरे कपड़े धोती है। एक महंगे स्कूल में मेरी शिक्षा का व्यय वहन कर रही है। मेरे स्कूल की सभी मीटिंग्स में जाती है। उन्होंने मुझे सिर्फ प्रेम किया। सबसे बड़ी बात, वह ईमानदार है। मेरे सम्मुख हमेशा पारदर्शी रही – स्पष्ट, धवल, निर्मल।
माँ ने मुझे बताया था कि उन्होंने मेरे लिये पिता का चुनाव किया था। मेरे निर्माण के लिये उन्होंने एक बौद्धिक, शिक्षाविद् व्यक्ति के शुक्राणु लिये थे। वह मेरे व्यक्तित्व में एक अच्छी छाप भरना चाहती थी। कभी-कभी मातृत्व की ताकत सामाजिक एवं प्राकृतिक कानूनों से भी अधिक होती है।
अपने जीवन की सभी विसंगतियों व विडम्बनाओं के मध्य मैं अक्सर खामोश बैठा अपनी उत्पत्ति के विषय सोचा करता। हूँ…। मेरी धमनियों में तीन राष्ट्रों – इंडियन, ब्रिटिश व डेनिश रक्त प्रवाहित हो रहा है। निःसंदेह मैं मनोहर छवि का हूँ, दिमाग से भी बुद्धिमान हूँ। पढ़ने में हमेशा अव्वल रहा हूँ।
टीना ऐसे ही मेरी तरफ आकर्षित नहीं हुई थी…! कहती थी – मैं ‘हॉट’ हूँ। मेरी त्वचा का लालिमायुक्त गेंहुआ रंग उसे विशेषतौर पर भाया था। टीना मूलतः वियतनामी थी, लेकिन जब वह तीन साल की थी तो उसे एक डेनिश दम्पत्ति ने वियतनाम के एक अनाथालय से कानूनन गोद ले लिया था। उसके डेनिश मातापिता कोपनहेगन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। टीना उनकी एकमात्र औलाद थी। टीना और मैं एक साथ मनोविज्ञान में मास्टर कर रहे थे।
माँ कितनी खुश हुई थी, जब मैंने उन्हें टीना के बारे में बताया था। उनकी आँखे छलक आई थी। “कब मिलवा रहा है मुझे अपनी गर्लफ्रेंड से?” अक्सर मुझसे पूछा करती, शब्द ‘गर्लफ्रेंड’ पर जोर देते हुए।
“माँ टीना वियतनामी है – चपटी नाक, चिंकी आँखें, छोटी कद-काठी… । “
“कोई बात नहीं। लड़की तो है न?” माँ ने मुझे बीच में ही टोका।
उन्हें इससे कोई मतलब नहीं था टीना वियतनामी है या अनाथालय से गोद ली हुई सन्तान है, वह एक लड़की है बस इतना ही उनके लिए काफी था।
भावुक स्वर में माँ बोली थी, “पता है रायन… रोज रात को सोने से पहले हाथ बाँध कर भगवान से प्रार्थना किया करती हूँ कि तू मेरी तरह ‘गे’ नहीं निकले। किसी लड़की को तू चाहे। तेरी एक पत्नी हो और बच्चे हो…। तू खुल कर समाज में रह सके। ”
गे और लेस्बियन… यह विषय हमेशा हास्य के रूप में लिया जाता है। मुझे जब पता चला था कि मेरी खुद की माँ गे है, मैं भले ही माँ से लड़ा-झगड़ा था, मगर गुपचुप मैंने इस विषय पर खोज की। आखिर लोग गे क्यों होते हैं?
गे होने के कारण पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन वैज्ञानिक मानते हैं कि गर्भ में होने वाली हॉर्मोनल गड़बड़ी और वातावरण के प्रभाव के कारण ऐसे लक्षण देखे जाते हैं, और यह केवल इंसानो में ही नहीं बल्कि जानवरों में भी देखा जाता है। ‘नौ महीने गर्भ में…’ मैंने यह डाक्यूमेंट्री फिल्म कई बार देखी, जिसमें भ्रूण की विकास प्रक्रिया के दौरान अनोखी गड़बड़ियों के विषय में बताया गया था। एक गड़बड़ी – कन्या भ्रूण के मस्तिष्क में गलती से नर-सेक्स हार्मोन टेस्टोस्टेरोन दुगुनी मात्रा में प्रवाहित हो जाता है जिससे वह शारीरिक तौर पर लड़की होते हुए भी मानसिक तौर पर खुद को लड़का समझती है।
मेरी माँ के साथ भी शायद यही हुआ… ।
“आप गे क्यों बनी?” माँ से मैंने पूछा था।
“मैं शुरू से गे नहीं थी। मुझे पुरुषों से भरपूर प्यार नहीं मिला। प्यार को मैं खोजने लगी तो पुरुषों से ज्यादा महिलाओं को अपने करीब महसूस किया। मेरा महिलाओं की तरफ आकर्षण बढ़ने लगा। मगर रायन, मैं नहीं चाहती हूँ कि तेरे मन में भी वे भावनाएं भरे जो मेरे मन में भरी। इसलिए मैं तुझे बहुत प्यार करती हूँ…। ”
समलैंगिकता आनुवंशिक नहीं है। मुझे अपने जीवन में स्त्रियों से भरपूर प्यार मिला – अपनी माँ से, अपनी नानी से, अपनी पत्नी से, और मेरी नन्ही बेटी भी मुझे बेहद चाहती है। आज मेरा एक भरा-पूरा परिवार है। एक पत्नी और तीन बच्चे, जिन पर मुझसे अधिक मेरी माँ को फख्र है।
माँ बूढ़ी हो चली है। मेरे पास बेल्जियम आती रहती है। किताब मेरी पूरी हो चुकी है। टीना मेरी पुस्तक की पहली पाठक, समीक्षक, आलोचक है। बहुत सालों तक मैंने टीना को अपनी माँ की समलैंगिकता के विषय में कुछ नहीं बताया था। बस यह कहता रहा – मेरी माँ एक सिंगल मदर है। उसने कई बार मुझसे पूछा भी, “रायन, तुम्हारी माँ इतने सालों से अकेले क्यों रह रही है? उन्होंने कोई दूसरा हमसफर क्यों नहीं तलाशा?”
टीना के प्रश्न पर मैं मनन किया करता था। वह सोचती थी कि मेरे पिता मर चुके हैं या फिर जब मैं बहुत छोटा था, माँ से उनका सेपरेशन हो चुका था।
एक दिन बोला भी: “मेरी माँ बिन ब्याही माँ है…।”
“मतलब… उन्होंने कभी शादी नहीं की?”
“शादी करने की उन्होंने कभी सोची ही नहीं।“
“कोई बॉयफ्रेंड?”
“ऊँ हूँ… कभी कोई बॉयफ्रेंड भी नहीं रहा।”
“क्या मतलब?”
“छोड़ों इसे… मैं भी सब कुछ कहाँ जानता हूँ माँ के बारे में…?” मैं उसे टालता गया। फिर उस दिन नहीं टाल सका।
“माँ गे है…।”
टीना मेरा चेहरा ताकती रह गयी, विस्मय से बुदबुदाई, “यह किताब – लोग गे क्यों होते हैं…की लिखने की प्रेरणा तुम्हें अपनी माँ से ही मिली…। “
मैंने सहमती में गर्दन हिलाई। माँ शरीर से एक औरत मगर उनके मस्तिष्क में कैद है आदमी… ।”
“तुम्हारे पिता?”
“कभी नहीं मिला उनसे। उनके अस्तित्व से हमेशा अनभिज्ञ रहा।
“ओह नो रायन.. सो सॉरी…। तुम्हारी स्थिति तो मेरी स्थिति से भी दर्दनाक है… ” टीना मुझे अपने आगोश में भरते हुए, हमदर्दी जताते हुए बोली।
“मुझे कोई अफ़सोस नहीं,” मैं उसे परे हटाते हुए बोला। “बस इतना जानता हूँ – मैं कैथरीन स्मिथ का बेटा रायन स्मिथ हूँ। मेरी माँ एक सुपरमदर है। माँ ने इतना प्यार-दुलार दिया कि पिता की कमी अखरी ही नहीं…।”
टीना मेरा हाथ पकड़ते हुए बोली, “माँ हकीकत है, पिता एक विश्वास…।”
कितना कुछ बदल गया अब समाज में…! समलैंगिक, होमोसेक्सुअल, गे, लेस्बियन ये शब्द आजकल आम हो गए हैं। आज समलैंगिक खुद की पहचान सरेआम बताने में नहीं शर्माते। पिछले दो दशकों में यौन अभिविन्यास का कलंक पश्चिमी जगत में नाटकीय रूप से थम गया है। दो गे औरते आज यूरोपीय समाज में खुले आम रह सकती हैं। परस्पर शादी कर सकती हैं…। बच्चे पैदा कर सकती हैं। मेरी माँ को कितना लुकछुप कर रहना पड़ता था। दो महिलाओं के बीच भावानात्मक व यौन संबधों को तब सामान्य रूप से नहीं लिया जा सकता था।
उम्र की घड़ियाँ बीतती चली गयी…। आज मैं पैंतीस साल का और माँ सड़सठ की है। दो वर्ष पूर्व माँ अपनी नौकरी से रिटायर हो चुकी है। अकेली बेसहारा महिलाओं के लिये एक एनजीओ चलाती है। समय ने हम माँ-बेटे के रिश्ते को प्रगाढ़ ही किया।
अपनी किताब – क्यों होते हैं लोग गे? का लोकापर्ण मैंने माँ के हाथों करवाया। तीस-पैंतीस लोगों का जनसमूह इकठ्ठा हो गया था। मीडिया भी पहुंचा। टीना ने जलपान का इंतजाम किया। सच कहूँ तो मुझे अपनी माँ पर गर्व है। माँ का आँचल अगर सलामत है तो जन्नत क्या है!
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