
कबूतरी, थारो कबूतर गूटर-गूटर-गू बोल्यो रे… (कितनी माँएं हैं मेरी)
–अर्चना पैन्यूली
गूटर गू… गूटर–गू…। वह उसे छेड़ रहा है…। इन दिनों उसकी गर्दन, सिर और छाती पर आकर्षक पंख विशेष रूप से उग आये हैं। उसका सम्पूर्ण रंगविन्यास ही बदल गया है। देखो तो जरा… पूंछ-पंख फैलाते हुए उसके चारों ओर मटक रहा है। उसने भी उसे जता दिया – नॉट गुड एनफ। और फुदक कर उससे दूर जाने लगी।
बड़ी नजाकत से अपनी टांगों को उठाकर वह उसकी तरफ बढ़ने लगा। अपने सिर को आगे-पीछे हिलाते हुए, इतराई सी चाल…। कुछ और विस्तृत प्रदर्शन…। अपने परों को उभार कर गीत गाने लगा है। तिनके, कंकड़ उसकी तरफ फेंक रहा है। मनमोहक नृत्य…। यह शायद उनका प्रजननकाल है…।
अंततः वह उसे अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हो ही गया। वह उसके आगोश में चली गयी। उसकी चोंच से अपनी चोंच मिला दी। उसने उसे अपने रंगबिरंगे पंखों में समेट लिया।
कुछ देर में दोनों अलग हो गये। प्रणयक्रीड़ा लुभावनी थी। दोनों खुश दिख रहे हैं। मैं मुस्कुरा गयी। मुझ बावली को भी कुछ सुझा, घर के अंदर से अनाज के दाने उठा लाई। उन्हें दाने दिखा कर ललचाने लगी। दोनों उड़ कर मेरे करीब, मेरी बालकनी की मुंडेर पर बैठ गये। दाने चुगने लगे। सौम्य, पंखदार, छोटी चोंच वाले पक्षी…। मैंने उनके रंगों पर गौर किया। कबूतर के शरीर में सात रंगों – स्लेटी, सफेद, हरा, बेंगनी, भूरा, काला और गुलाबी का अद्भुद मिश्रण था। कबूतरी के शरीर में सिर्फ तीन रंग – सफेद, स्लेटी और काला। नर मादा से अधिक सुंदर था।
“लो आज तुम्हारी शादी हो गयी… ।” मैंने मौक़ा देख कर कबूतर के गले में एक नीले रिबन का छल्ला बना कर डाल दिया और कबूतरी के गले में लाल रिबन का।
इंटरनेट पर पक्षी प्रजनन पढ़ रही हूँ। ये पक्षी एकसहचर होते हैं। जीवनकाल इनका छोटा होता है, किन्तु एक ही साथी को चुनकर जीवन प्रयन्त उसी के साथ मेटिंग करते हैं। बार-बार अपने साथी नहीं बदलते। मैं सहसा विशेष भावों से भर गयी। अपने पति का हाथ पकड़ते हुए भावुक स्वर में बोली, “आरुष…वादा करो कि हम हमेशा एक साथ रहेंगे, कभी जुदा नहीं होंगे। अगर गिले-शिकवे, लड़ाई-झगड़े हमारे बीच हुए भी तो हम उन्हें खत्म कर देंगे, मसल देंगें। मगर एक दूसरे का साथ कभी नहीं, कभी नहीं छोड़ेंगे।”
“कैसी बातें कर रही हो, पीहू? मैं कभी तुम्हें छोड़ने की सोच भी सकता हूँ…” कहते हुए उसने मुझे अपनी बांहों में कस कर पकड़ लिया। मेरे उभरे उदर को अनायास ही सहलाने लगा। शादी के तीन साल बाद हम माता-पिता बन रहे हैं। पलके भीग गई, कुछ नम सा हो गया।
पक्षियों की प्रजनन प्रणाली दो भागों से निर्मित है: अंडाशय और ओविडक्ट (डिंबवाहिनी)। अंडाशय विभिन्न आकार के अंगूरों के एक छोटे से गुच्छे की तरह लगता है। ये “अंगूर” दरअसल अंडे हैं, जो वास्तव में योल्क (पीली जर्दी) हैं। रिलीज होने वाला डिंब बड़ा दिखता है। एक या दो आधे आकार के होते हैं, कुछ और छोटे, और शेष डिम्ब तो बहुत छोटे होते हैं।
एक दिन में सबसे बड़ा डिम्ब अंडाशय से मुक्त हो ओविडक्ट में आ जाता है और डिंब के इस रिलीज को ओव्यूलेशन कहते है। ओविडक्ट – एक मुढ़ी हुई नलिका, पाँच प्रमुख भागों में विभक्त है, सबसे अंतिम फूले हुये भाग को गर्भाशय कहा जा सकता है। ओविडक्ट में ग्रंथियों का स्राव अंडे के अन्य भाग बनाते हैं – एल्ब्यूमिन (अंडे की सफ़ेदी ) और खोल।
मादा पक्षी में गर्भाशय और योनि के जंक्शन पर स्थित स्पर्म स्टोरेज ट्यूब में विशेष खाँचे होते हैं, जहाँ स्पर्म एक महीने तक जीवित रह सकते हैं।
एक पीली जर्दी को पूर्ण विकसित अंडे में तब्दील होने में और उस अंडे को देने में एक मादा पक्षी को आम तौर पर 25 से 26 घंटे लगते हैं। लगभग 30 से 75 मिनट के बाद, अंडाशय अगला डिंब रिलीज़ करता है।
मैं उन्हें घोंसले बनाते हुए देख रही हूँ। मेरी ही बालकनी के एक कोने की आड़ में ही वे घासफूस इकठ्ठा कर रहे हैं। मेरा उन्हें पहनाया लाल और नीला छल्ला अभी भी उनकी गर्दनों में मौजूद हैं। अगर एक मादा पक्षी नर पक्षी से संसर्ग करती है तो उसके अंडे निषेषित होंगे, नहीं करती तो नहीं होंगे। मादा के अंदर अण्डों की यात्रा जारी रहती है। चाहे वे निषेचित हुए या नहीं, उन्हें उसके शरीर से बाहर निकलना ही है। अंतर यह है कि अनिषेचित अण्डों से औलाद नहीं उत्पन्न होगी।
मगर लगता है उसकी अंडवाहिनी में डिम्ब निषेचित हो रहे हैं। तभी तो वे घोंसले बनाने में जुट गये हैं। एक घोंसले में सारे अंडे नहीं, मैं उन्हें दो-तीन घोंसले बनाते हुए देख रही हूँ, एक दूसरे के आसपास ही। एक घोंसला मेरी बालकनी के तल में ही बन रहा है।
संतानों की रक्षा करना हर प्राणी का धर्म है। वह नीड़ बना रही है। मैं अपने बच्चों के लिए कक्ष तैयार कर रही हूँ। नवां महीना चल रहा है। डाक्टर ने बताया है कि जुड़वां है। प्रथम बार माँ बन रही हूँ, शायद वह भी।
तीन कमरों का छोटा सा घर है हमारा। दो बच्चे आने वाले हैं। एक बेडरूम से लगी बालकनी बंद करवा कर नर्सरी में तब्दील कर दी है। आरुष ने फेसबुक पर मुझे विज्ञापन दिखाया कि कोई अपनी डबल पराम बेच रहा है। पराम की सुंदर सी पिक्चर भी लगा रखी है। हमें पराम पसंद आ गई। तुरंत उस दम्पत्ति से सम्पर्क किया। उनका घर हमारे घर से काफी दूर है, फिर भी हम जोश में उनके घर पराम खरीदने चले गये। बड़ी सी डबल पराम सस्ती मिल गई। उनके जुड़वां बड़े हो गये थे, उनके किसी काम की नहीं रह गई थी।
पराम लेकर हम घर आये। गेलरी में खड़ी करके मैं बालकनी में गई। घोंसले धीरे-धीरे तैयार हो रहे हैं – गर्म, वातानुकूलित। लंबे पंखों वाले उड़ाकू पक्षी पता नहीं कहाँ-कहाँ से घास, डंठल, टहनियां उठा कर ला रहे हैं। प्रतिदिन अनगिनित चक्कर लगाते हैं।
“पीहू… अरे भई कहाँ हो? सुपरमार्कट में बेबी डायपर की सैल लगी हुई। ले आऊँ?”
“ले आओ।”
आरुष दस पैकेट खरीद लाया। “अरे इतने सारे….” मैं चौंकी।
“जुड़वां हो रहे हैं। कब खत्म होंगे पता ही नहीं चलेगा।”
“बेबी फूड चार्ट, बेबी फूड डाइट, बेबी फूड रेसिपी… की कोई जानकारी ली तुमने?” आरुष मुझसे पूछ रहा है। मगर मैं उन्हें खाना खिलाने में मस्त हूँ। बीज, दाने, अनाज, मेवे एवं दालें वे बड़े शौक से खाते हैं। आरुष खीज जाता है, “कहीं इन कपोतों को तुम पालतू मत बना देना… ।”
` मैं आरुष की बातों पर ध्यान नहीं देती। बस कबूतर और कबूतरी की गतिविधियों को देखती रहती हूँ। घोंसले बनाने में वे मशगूल हैं। केवल काबर्निक सामग्री – घासफूस, पत्ती, डंठल, चिड़ियों के पर इत्यादि का ही प्रयोग हो रहा है।
आरुष मुझे व्हाट्सऐप पर एक पोस्ट पढ़ कर सुना रहा है – ‘घोंसले बनाने में वे यूँ हुए मशगूल कि उड़ने को पंख भी है, यह भी गये भूल…। ‘
मैं ठठ्ठा कर हंस पड़ी, प्रतिवाद किया, “पक्षी कभी उड़ना नहीं भूलते, वह तो हम इंसानों के कभी फ़ालतू में पर निकल आते हैं, और कभी परों के होते हुए भी उड़ना नहीं जानते।
छह दिन लगे उन्हें एक घोंसले के निर्माण में। कबूतर सामग्री को इकट्ठा करने में सहायता करता है लेकिन घोंसले का असली निर्माण कबूतरी करती है। मेरे घर में भी यही हाल है। आरुष मुझे चीजें खरीद-खरीद कर देता रहता है और मैं बच्चे की नर्सरी सजाती हूँ। घर में पराम, पालना, बेबी अलार्म, दूध की बोतले, डायपर आ चुके हैं। दीवारों पर नन्हें बच्चों के केलेंडर भी टंग चुके हैं।
जैसे-जैसे एग योल्क (पीली जर्दी) ओविडक्ट ट्यूब से गुजरता है, ट्यूब की दीवारें सफेद प्रोटीन द्रव का छिड़काव करती हैं, जोकि जर्दी को घेरने लगता है। यात्रा के अंतिम चरण में, ट्यूब के निचले भाग में दीवारें कैल्शियम यौगिकों का छिड़काव करती हैं। अण्डों की बाह्य झिल्ली पर केल्सियम भरने लगता है, जोकि अंडे का खोल बनाता है। शुरू में यह खोल नरम रहता है, धीरे-धीरे कड़ा हो और अंडाकार हो जाता है। अगर मादा पक्षी को अपने आहार से केल्शियम प्रयाप्त मात्रा में प्राप्त नहीं होता उसकी हड्डियों से केल्शियम खींचा जाता है। बेचारी कबूतरी ! आप कल्पना कर सकते हैं कि एक अंडे का निर्माण एक पक्षी माँ के लिए कितना जबरदस्त काम है !
“यह क्यों एवियन रिप्रोडक्शन पढ़ती रहती हो?” आरुष मुझ पर चिल्ला रहा है। “फ़ालतू का जुनून तुम्हें सवार हो गया है। एवियन रिप्रोडक्शन नहीं, ह्यूमन रिप्रोडक्शन के बारे में जानो। ह्यूमन बेबी हेल्थ केयर की किताबें पढ़ो। प्रेगनेंसी पर कितने सारे एप्प बन चुके हैं, उन्हें डाउनलोड करो। गर्भावस्था की अच्छी जानकारी मिलेगी। तुम्हें उस कबूतरी के नहीं, अपने बच्चे पालने हैं। बेबी फूड डाइट की कोई जानकारी ली तुमने? ”
“ठहरों, जरा..” मैंने आरुष को चुप करवाया। मेरे कानों में कुछ गूँज रहा है। उनकी करलव की आवाजें….. इस करलव में चहचाहट नहीं, एक दर्द है। मैं भाग कर बाहर बालकनी में आती हूँ, पीछे-पीछे आरुष। बेचारे वे दोनों विलाप कर रहे हैं। मेरी पाकिस्तानी पड़ोसन, जिसकी बाथरूम की खिड़की में भी वे एक घोंसला बना रहे थे, ने घोंसला उजाड़ दिया है। तहस-नहस घोंसला खिड़की के नीचे मैदान पर पड़ा है। तिनका-तिनका इकठ्ठा करके वे अपने घोंसलें निर्मित कर रहे थे, और उस जालिम ने उजाड़ दिया उनका घरोंदा – उनके बच्चों का शरण स्थल। कितना कष्टदायक है उनके लिए यह।
“जरूरी थोड़े ही है कि ये वही कबूतर हैं जो हमारी बालकनी में घोंसला बना रहे हैं… । कबूतरों की टोली में तुम कैसे पहचानोगी कि ये वही कबूतर हैं?” आरुष कह रहा है।
“ये वही कबूतर है… बेचारे दो-तीन जगह अपने घोंसले बना रहे थे, ” मैं बोली।
“बाहरी आकृति से तुम नहीं पहचान सकती उन्हें? ” आरुष ने तर्क किया। “यह कोई दूसरा जोड़ा है।”
उनकी गर्दनों में डाले मेरे रिबन कभी के निकल चुके हैं। मगर मैं उन्हें बिना रिबनों के भी पहचानने लगी हूँ। उनके रंगों का विन्यास, उनकी चाल और उड़ान मुझे समझ में आने लगी है।
मुझे बहुत ही दुःख हुआ। मैं अपनी पड़ोसन से लड़ने के लिए जाने लगी कि आरुष ने मुझे पकड़ लिया। “यह क्या फितुर तुम्हारे दीमाग में छा गया है? हर परिंदे को समझती हो यह तुम्हारे ही कबूतर हैं। और फिर यह उन लोगों का निजी मामला है…। हमें हस्तक्षेप करने जरूरत नहीं है।
पड़ोसन हम दोनों को बालकनी में खड़े देख कर अपने घर से बाहर निकल आयी। झुंझलाहट से बोली, “इन कबूतरों ने तंग कर दिया। बाथरूम की खिड़की पर घोंसला बनाने लगे हैं। कुछ भी बालकनी में सुखाने के लिए डालो तो चुग जाते हैं… । मैंने गमलों में धनिया, मैथी उगाने के लिए बीज डाले। ये सब चुग गये… नाश हो इनका… । “
“अब पक्षी अनाज-दाने तो चुगेंगे ही…। अपना पेट तो उन्हें भरना ही है। क्या तुम भूखी रहती हो?” मैं पड़ोसन से बोली कि आरुष ने मेरा हाथ दबा दिया। मुझे खामोश रहने का संकेत किया। मगर मैं जारी रही, “हम इंसान भी तो पेड़-पौधों से सब्जी-फल नोच कर खाते हैं। बकरे, मछलियों को मार कर उनका मांस खाते हैं।”
“तुम इतनी भावुक क्यों बन रही हो?” पड़ोसन अचरज से गुर्राई।
“प्रेग्नेंट है…” आरुष बीच में बोला।
“ओह…”
आरुष ने मुझे बालकनी से अंदर खींच लिया। मैं लाचार हो खामोश हो गई। खैर मुझे यह इत्मीनान था कि मेरी बालकनी में बना उनका घोंसला सही सलामत है… ।
वह मांसल दिखने लगी है। उड़ने में भी उसे दिक्कत हो रही है। सम्भवतः विकसित अण्डों से उसका शरीर भारी हो गया होगा। आरुष से बोली, “कबूतरी मुझे थोड़ी भारी दिखने लगी है।”
आरुष हंस पड़ा। मुझे निहारते हुए, अर्थपूर्ण मुस्कान से बोला, “मुझे तो तुम दिन पर दिन भारी नजर आ रही हो…।”
“मैं भी प्रेग्नेंट, वह भी प्रेंग्नेंट…” मैं अलमस्तता से बोली। गुनगुनाने लगी, “कबूतरी… ओ कबूतरी… थारो कबूतरो बाग़ मा गूटर-गूटर-गू बोल्यो रे…?
आरुष भी गाने लगा, “पपीहा घर मा पीहू-पीहू बोल्यो रे…।”
मैंने आरुष की तरफ देखा। हम दोनों बेसाख्ता हंस पड़े।
और एक सुबह मैंने उसे खामोश अपने घोंसले में बैठे देखा। वह भी आसपास मंडरा रहा है। उसकी रखवाली कर कर रहा है। विकिपीडिया से जानकरी मिली थी कि नर स्वयं अंडे नहीं दे सकता, किंतु संतानप्रेम की अभिलाषा से वह किसी तरह मादा को रिझाकर जोड़ा बाँध लेता है, मादा से अंडे दिलवा लेता है। फिर बड़ी चाव से उसकी सेवा करता है, ताकि औलाद पैदा हो और दुनिया मे उसका नाम व निशान बाक़ी रहे। सन्तान पैदा करके अपने वंश को आगे बढ़ाना…यह लक्ष्य हर जीव का होता है।
मैं बड़ी देर तक उन्हें देखती रही। फिर बालकनी से हट गई, इस इरादे से कि शायद उसे कुछ पलों की खामोशी चाहिए…उसे डिस्टर्ब न करूं। इंटरनेट पर पढ़ने बैठ जाती हूँ… ओविडक्ट का अंतिम भाग योनि है, जो लगभग चार-पांच इंच लम्बी है। योनि अंडे के गठन में हिस्सा नहीं लेती लेकिन अंडे के विसर्जन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ठोस मांसपेशियों से बनी है जो अंडे को पक्षी के शरीर से बाहर निकालने में मदद करती है।
एक अंडा एक दिन में। एक-एक करके उसने कुल तीन अंडे दिए – चमकदार सफेद। भ्रूण अभी विकसित होने हैं। पक्षी व सरीसर्पों के अंडे बाहर दिए जाते हैं और भ्रूण का विकास बाहर ही अंडे के भीतर होता है। अंडे आत्मनिहित होते हैं, कोई बाहरी पोषक तत्वों की आवश्यकता नहीं है। मगर जब चूजें निकलेंगे तो उन्हें खाना चाहिए होगा।
बहरहाल अंडों की संख्या जब पूरी हो हुई तो उनका सेना प्रारंभ हुआ। अपने पंख फुला कर वे अण्डों पर बैठ जाते हैं। अपने पंखों से उन्हें गरम रखते, उनकी रक्षा करते हैं। दोनों बारी बारी से अण्डों को अपनी पूरी लगन व तत्परता के साथ सेते। कबूतरी अंडे सेने का कार्य अधिक करती है, कबूतर थोड़ा कम।
मगर कबूतर उसके लिए भोजन जुटाता है। एक दिन मैंने देखा, कबूतरी अपने पर फुला कर अण्डों पर बैठी है, और कबूतर अपनी चोंच से उसकी चोंच में दाने डाल रहा है।
“आरुष… आरुष….” मैंने अपने पति को पुकारा।
आरुष बाहर बालकनी में आया। “देखो, कैसे अपनी जीवन संगिनि को खाना खिला रहा है !” आरुष भी चकित हुआ। “अरे वाह…” किलकारी सी मारते हुए मुझे अपनी बांहों में भर लिया।
“सन्तानप्रेम, शिशुपालन तो हमें इनसे सीखना चाहिए,” मैं बोली।
उस शाम जब मैं इंटरनेट पर पक्षी प्रजनन पढ़ने में तल्लीन थी, आरुष मुझे डिस्टर्ब किये बगैर चुपचाप किचन में खाना बनाने लगा। डाइनिंग टेबल पर खाना सजा कर मुझे पुकारा।
“पीहू…।”
मैं बेडरूम से किचन में आयी। मेरी पसंद के व्यंजन मेज पर सलीके से लगे महक रहे हैं। “वाऊ…अरे, आरुष… यह सब कब किया?”
“क्या करें…? हम इंसानों को अब पक्षियों से प्रेरणा लेनी पड़ रही है। अब आगे चल कर कहीं कीट-पतंगों और कीड़े-मकोड़ों से न कुछ सीखना पड़े…” आरुष ने जुमला मारा।
मैंने आगे बढ़ कर अपने पति को चूम लिया। “वह पति ही क्या जो पत्नी पर न मरमिटे,” चुहल की।
“वह पत्नी ही क्या जो पति के चरणों की दासी न बन सके….” आरुष शरारत से बोलने लगा कि मैंने उसके कान ऐंठ लिए। “क्या कहा…? क्या कहा…?”
“मैंने कहा…. कि वह पत्नी ही क्या जो पति के दिल की महारानी न बन सके…” आरुष अपने वाक्य का सम्पादन करते हुए बोला।
“हाँ यह चलेगा… ।”
अंडा-सेवन-काल करीब दो-ढाई हफ्ते रहा। कबूतरी का ध्यान अंडे सेने में कुछ ऐसा लग जाता कि यदि उसे मेवे दिखाकर भी ललचाओ, वह अण्डों पर से हटती नहीं। कबूतर तो फिर भी ललचा जाता। अण्डों को छोड़ कर खाने के लिए आ जाता। पर मादा उन्हें सेती रहती। जब कभी कबूतरी को लगता कि कबूतर अंडा सेने का कार्य एकाग्रता से नहीं कर रहा तो वह उसे हटा कर स्वयं अण्डों पर बैठ जाती।
लगभग ढाई हफ्तों उपरांत अंडे फूटने लगे। चूजे अपनी चोंच से अंडे के खोल पर प्रहार करके अंडे के बीचों-बीच, एक दरार बना कर बाहर निकल आये। एक तरल पदार्थ से भीगे हुए, जो हवा लगने से शीघ्र ही सूख गये। निरीह सी अवस्था, स्वयं भोजन चुगने में असमर्थ तथा उड़ने से भी लाचार।
कबूतर का रोल अब खत्म हो गया था। वह अब इतना नहीं दिखता था। मगर माता की जिम्मेदारी अभी खत्म नहीं हुई। वह अपने बच्चों के लिए आहार तलाशने में लगी रहती। जिस तत्परता से वह अपने अंडे सेते थी, उसी तत्परता से अपनी संतान का पालन-पोषण एवं रक्षण भी कर रही है। आहार की तलाश के लिए लंबा और प्रकाशमान दिन उसे प्राप्त है और वसंत ऋतु में फूलों में लगनेवाले वानस्पतिक कीटों की प्रचुरता है। शिशु घोंसले में ही अपने शैशव के दिन बिता रहे हैं।
थोड़े बड़े हुए तो अपनी माता के संग बाहर निकलने लगे। बड़ा प्यारा दृश्य… आगे-आगे माता और पीछे-पीछे तीन नन्हें, मुलायम, गोलमटोल चूजे अपने छोटे-छोटे पैरों पर चल रहें… । मातृत्व, वात्सल्य, ममता और मासूमियत की जीती-जागती तस्वीर…।
ये तीनों अंडे तो मेरी बालकनी में ही दिए हैं, बाकी घोंसलों का उन्होंने क्या किया? अरे हाँ, मैंने इंटरनेट में पढ़ा है कि कबूतर साल में तीन से चार बार प्रजनन करते हैं। शायद जल्दी ही उन्हें फिर से घोंसलों की जरूरत पड़ जाए। अपना इंतजाम पक्का रखते हैं। मेरी और उसके बीच अब सांकेतिक भाषा चलने लगी है। हम एक दूसरे के मनोभावों को समझने लगे हैं। मैंने अपने पेट पर हाथ रखते हुए, उंगलियाँ उठा कर उसे संकेत किया – दो। गर्भ में उछल-कूद करने लगे हैं
और उसी रात में मुझे दर्द शुरू हो गया। मैंने आरुष को जगाया। थैली फट चुकी है, एमनियोटिक द्रव रिस रहा है। हम अस्पताल जाने की तैयारी करने लगे। जल्दी-जल्दी में मैं उनके लिए बालकनी में खाना रखना नहीं भूली।
छह दिन बाद मैं दो शिशुओं को लेकर, मातृत्व के गुदगुदे अहसास से भरी घर लौटी। बच्चों को पालने में लेटा कर सबसे पहले बालकनी का बंद दरवाजा खोला। बाहर सन्नाटा…। वह कहीं नहीं दिखी। घोंसला खाली, उजाड़ सा। “वह कहाँ गई? उसके बच्चे कहाँ हैं?” मैंने आरुष से पूछा।
“मुझे मालूम नहीं। जब से तुम हॉस्पिटल गई, मैंने तो बालकनी का दरवाजा खोला तक भी नहीं।”
मैं निराशा से भर गई। मैं उसे अपने दोनों पुत्र दिखाना चाहती हूँ। अपने पुत्रों को थामे मैं अपने घर के आगे पसरे बाग़ में आ गयी। इधर-उधर, दूर-दूर तक नजरें फेर कर निहारने लगी। कहाँ चली गई वह…? कहाँ चली गई?
सहसा वह मुझे दिखी – अकेले ही। पंख उभार कर बड़े इत्मीनान से एक चट्टान पर अकेले बैठी हुई। उसके चूजे कहाँ गये? मुझे हैरत हुई। मैं उसके निकट गई। वह मुझे देख कर डर कर उड़ कर भागी नहीं। मुझे पहचानती है। मैंने उसे अपने बच्चे दिखाये। उसने पूँछ हिलाकर किलकारी भरी। मैंने उससे पूछा – उसके चूजे कहां गये।
उसने अपने पंख ऊपर किये तो पंखों तले तीन नन्हें चूजें दिखने लगे – निरीह से हमें ताक रहे। एक चूजा तनिक बाहर भी निकला, फिर तुरंत ही माँ के पंखों तले रेंग कर छुप गया।
आरुष मेरी टोह में मेरे पीछे-पीछे आ गया था। मुझे फटकारने लगा, “क्या नवजात शिशुओं को लिए बाहर घूम रही हो? अभी इनकी गर्भनाल भी नहीं सूखी है। जिन परिंदों के पीछे तुम इतनी लगी रहती हो उन्हीं से ही कुछ सबक लेलो… ये भी अपने बच्चों को यूँही खुली हवा में नहीं छोड़ते, जब तक वे खुली हवा में रहने लायक न हो जाए…। “
पति की फटकार मैंने चुपचाप खाली। घर लौट आयी। थकान भी महसूस हो रही है। बच्चों को पालने में लेटा कर मैं खुद भी बिस्तर पर बेजान सी लेट गई।
“क्या खाना चाहती हो” आरुष मुझसे पूछ रहा है।
“कुछ भी बना दो…” मैं नयन मूंदे-मूँदे बोली।
“मम्मी ने कहा था कि तुम्हें सूजी की खीर सुबह-शाम दोनों टाइम खिलाऊँ…। तरल पदार्थों के सेवन से बच्चों के लिए दूध अच्छी मात्रा में बनेगा।”
मेरी माँ और सास में से कोई भी हमारे पास मेरी डिलीवरी पर नहीं आ पाया। बस फोन पर ही उनसे सलाह-निर्देश मिलते रहें। विदेश में काम करके मानाकि हमें नए अवसर और अनुभव मिले, मगर इस बात का भी जबर्दस्त मलाल रहा कि हम परिवार से दूर रहें, यहाँ तक कि विशेष अवसरों पर भी सम्मिलित होना नहीं हो पाया।
“सूजी बना दूँ?” आरुष पूछ रहा।
“ठीक हो, बना दो,” मैं बोली।
घोंसला उन्होंने त्याग दिया है। अब वे घोंसलों पर लौटते नहीं हैं। चूजे बड़े भी हो गये हैं। घोंसले में नहीं समा सकते। किन्तु मैं उसे कभी किसी पठार पर, कभी बाग़ में या किसी पेड़ की छाँव तले पंख उभारे बैठे देखती, चूजे अपनी माँ के पंख तले।
कुछ दिनों तक चूजे अपनी माँ के पिच्छलग्गू बने रहें, जहाँ माता, वहाँ चूजे, फिर बड़े हो आत्मनिर्भर हो गये। इधर-उधर उड़ गये। वह अपने कृतव्यबोध से मुक्त हो गई, किन्तु मुझे अपने चूजो को पालना है…।
मैं बहुत रोमांचित हो गई थी जब पता चला था कि मैं जुड़वां बच्चों की माँ बनने वाली हूँ। मैं और आरुष हमेशा दो बच्चें चाहते थे, और सिर्फ एक गर्भावस्था में दो बच्चे मिल रहे हैं। वाह…! लेकिन अब पता चल रहा है कि दो बच्चों की देखभाल क्या होता है। हरेक घंटे उन्हें दूध पिलाओ। एक की नैपी बदलो, फिर दूसरे की…। एक की डकार निकालो, फिर दूसरे की…। जब रोते हैं तो चुप ही नहीं होते। और जब वे सोते हैं हम उनके लिए बोतलें तैयार करते हैं, फार्मूला फीड तैयार करते हैं, लॉन्ड्री करते हैं। चौबीस घंटे हम दोनों इतना अधिक व्यस्त रहते हैं कि पूरी नींद भी हमें नसीब नहीं। मगर जीवन का यह ख़ास और पुरस्कृत अनुभव है। हम अपनी पूरी लगन और तत्परता से अपने प्यारे बच्चों को पाल रहे हैं।
देखते ही देखते तीन महीने गुजर गये। बालकनी में कपड़े फैला रही हूँ। सहसा मेरे कानों में गूँजा – गुटर गू… गुटर–गू…। मैंने पलट कर बाग़ की तरफ देखा – अरे वाह वह उसे फिर रिझा रहा है…। इतनी जल्दी फिर…! मैं विस्मय से भर गयी। चोंच, आँखों, टाँगों के कुछ भागों और पैरों को छोड़कर उसका सारा शरीर चमकदार परों से आच्छादित हो रखा है…। नाच, उड़ान, पंख-पूँछ के कुछ दिलचस्प डिसप्ले कर रहा है…। लेकिन इस बार उसे आकर्षित करने में उसे अधिक समय नहीं लगा। वह तुरंत उसके आगोश में सिमट गई। उसकी चोंच से अपनी चोंच मिला दी।
“आरुष….।” वह बाहर आता है। उसे नजारा दिखाते हुए कहती हूँ, “देख वह उसके ऊपर चढ़ा है, अपने स्पर्म उसके क्लोअका में डाल रहा है। वह फिर से माँ बनेगी। एक अंतर है हममें… हम अपने बच्चों को पाल रहे हैं तो उनसे आशाएं-अपेक्षाएं भी रख रहे हैं कि बुढ़ापे में हमारी सेवा करेंगे, हमारे किए उपकारों का प्रतिफल कृतज्ञतापूर्वक चुकायेंगे…। लेकिन उन्हें अपने बच्चों से कुछ आशा-अपेक्षा नहीं। वे घोंसला बनाते हैं, अंडे सेते है, अन्य जीवों से बचाते है… सब बगैर स्वार्थ के। आरुष, हमारे बीच इन परिंदों को लेकर खूब हंसी-मजाक हुआ, जिरह-तकरार हुई। अब एक शिक्षा लेते हैं इनसे… हम अपने बच्चों का भरण-पोषण बहुत अच्छे से करेंगे। उन्हें खूब पढ़ाएंगे-लिखाएंगे, नेक इंसान बनायेंगे। मगर उनसे कोई भी अपेक्षा नहीं रखेंगे। बिना किसी शर्त के उन्हें प्यार करेंगे। उनका पालन-पोषण निस्वार्थ होगा।”
कुछ थम सा गया हमारे बीच। आरुष की मुखमुद्रा गम्भीर हो गयी। एक क्षण बाद उसके मुख से उभरा – ठीक है, मेरी जान…। मस्ती से गुनगुनाने लगा – कबूतरी, थारो कबूतर गूटर-गूटर गो बोल्यो रे…?
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