माँ की मृत्यु हुए क़रीब दो वर्ष बीत गए थे। एक दिन माँ की बहुत याद आ रही थी सोचा कि भाई-भाभी से भी मिल आऊँगी और भैया भी बीमार चल रहे हैं उन्हें भी देख आऊँगी। पति से कहकर अपना टिकट कराया और माँ के घर चली गई। भाई-भाभी ने बड़े प्यार से स्वागत किया और जिस कमरे में माँ की चारपाई होती थी वहीं मेरे सोने का प्रबंध कर दिया। मैंने कमरे को सब ओर से देखा – माँ-पिताजी की तस्वीर सामने की दीवार पर लगी हुई थी और दोनों की तस्वीरों पर फूलों का हार लगा हुआ था। मैंने माँ और पिताजी की तस्वीर को प्रणाम किया, लगा दोनों ही मुस्कराकर मेरा स्वागत कर रहे हैं। हृदय में ख़ुशी तो हुई परन्तु माँ नहीं थीं, वह बहुत बड़ी कमी थी। एक ख़ालीपन उस कमरे में छाया हुआ था।

मेरी आँखों के सामने वह पुराना दृश्य घूम गया जहाँ माँ की चारपाई होती थी। उसके साथ ही एक छोटी सी मेज़ हुआ करती थी। माँ ने एक बार पिताजी के साथ जाकर मेले से दो रुपए में ख़रीदा था और उस मेज़ का नाम भी दो रुपए वाली मेज़ रख दिया था। जब भी माँ को अपनी दवाई की ज़रूरत होती तो कहतीं थीं, ज़रा मेरी दवाई तो ले आ, वहीं दो रुपए वाली मेज़ पर रखी है। हम सभी भाई बहन खूब हँसते थे और माँ से कहते कि अब आप इसका नाम बदल कर पुरानी छोटी मेज़ रख लें, परन्तु माँ को तो दो रुपए वाली मेज़ कहना ही अच्छा लगता था। हम सब भी उसके आदी हो गए थे।

चारपाई के पास ही माँ ने पिताजी से कहकर एक खूँटी लगवाई थी क्योंकि रात को सोने से पहले माँ के पास एक तुलसी की माला थी, वह जपा करतीं थीं और उसे वे अपने हाथ से सिली हुई एक छोटी सी थैली में रखतीं थीं। सोते समय उसे खूँटी पर लटका दिया करतीं थीं; उन्हें पसंद नहीं था कि माला बिस्तर पर रखी जाए। एक स्कार्फ़ जिसे माँ ने सर्दी के दिनों में धूप में बैठ कर बनाया था, सोने से पहले वे हमेशा उसे तकिये के नीचे रख दिया करती थीं और सुबह उठकर पहन लिया करती थीं। एक-एक कर सभी बातें मेरे मस्तिष्क में चलचित्र की तरह घूम रही थीं। परन्तु अब दृश्य बदल गया था। कमरे में जिस चारपाई पर माँ सोती थीं उसकी जगह पर आधुनिक पलंग आ गया था। ज़मीन पर रखी मेज़ की जगह पर सुंदर से ग़लीचे पर बड़ा सा फूलदान रखा था। मैंने पलंग पर बैठ कर लम्बी साँस ली और एकटक दीवार पर लगी माँ-पिताजी की तस्वीर को देखती रही। अपना पर्स टाँगने के लिए खूँटी देखी वह भी नहीं थी। उसका निशाँ भी मिटा दिया गया था, दीवारों पर हरे रंग की जगह पर हलके पीले रंग की छटा बिखर रही थी।

किसी तरह मैंने अपना सामान सूटकेस पर ही रख दिया और माँ-पिताजी की यादों में खो गई। पता न चला कब आँख लग गई और सुबह के पाँच बजे पास वाली मस्जिद की अज़ान से मेरी आँख खुल गई। अज़ान सुनकर माँ हमेशा कहा करतीं थीं कि .. “लो सुबह हो गई है, अपने अपने कामों में लग जाओ”। आज यह कहने वाली माँ इस संसार में नहीं थी। केवल यादें ही शेष रह गयीं थीं।

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सविता अग्रवाल सवि’

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