परिवर्तन ही सृष्टि के चालक हैं। कई सदियाँ बोल रही थीं, परिवर्तन की कहानी कह रही थीं और हमारे जैसे सैलानियों का समूह जो अपने शहर यानी मॉस्को को बेहतर जानना चाहता है बड़े ग़ौर से गाइड की बातें सुन रहा था। उसकी कहानियाँ कुछ डेढ़ सौ बरस के दायरे में बँधी हुई थीं और वह दायरा था उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों से वर्तमान तक का। इस डेढ़ शताब्दी में दुनिया कुछ ऐसी बुनियादी तब्दीलियों से गुज़री है कि मॉस्को की मालया निकीत्स्काया और स्पिरिदोनव्का सड़कों के संगम पर बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में बनी एक इमारत को देख ख़यालों और विचारों का एक बवंडर मन में उठा; विरोधाभास, वैषम्य जैसे शब्द दिमाग़ में कोहराम मचाने लगे।
सड़क के एक किनारे पर सदियों पुराना पीले रंग का वैभवपूर्ण गिरजाघर उसके ठीक सामने आधुनिक वास्तुशिल्प का प्रतिनिधित्व करता श्वेत एवं नीलाभ रंगों का भवन और बीच से गुज़रती सड़क (मालया निकीत्स्काया यानी छोटी निकीत्स्काया) पर आधुनिकतम वाहनों का त्वरित गति से आना और निकल जाना – ये बातें वर्णन में निश्चित रूप से विरोधाभासी लगती हैं। लेकिन मॉस्को के केंद्र में आधुनिकता और प्राचीनता इस ढंग से ढली हुई दीखती हैं कि हर दृश्य पेंटिंग के लिए एक परफ़ेक्ट फ़्रेम लगता है।
गिरजाघर वह, जिसमें अलिकसान्दर पूश्किन और नतालिया गंचारोवा की शादी हुई थी। यह विवाह प्रज्ञा और सौन्दर्य का अद्भुत मिलन था। दस साल के उनके प्रेम-जीवन में ख़ुशियाँ, उत्साह और उमंग पूरी तरह से ईर्ष्या, जलन एवं स्पर्धा के साथ गुँथे रहे थे और उनका जीवन रूस में चर्चा का मुख्य विषय रहा था। अंततः द्वन्द्व युद्ध में उस का दुखद समापन हुआ। देश का महानतम कवि अपने प्रेम की मर्यादा बचाते-बचाते ईर्ष्या एवं अफ़वाहों के हाथों धराशायी हो गया, एक प्रखर लेखनी चिरनिद्रा में सो गई।
भवन वह, जिसमें सर्वहारा वर्ग पर आजीवन कलम चलाने वाले मक्सीम गोरिकी ने जीवन के अंतिम वर्ष गुज़ारे थे। बावजूद इसके कि उन्होंने स्तालिन से लाख बार इस बात की गुज़ारिश की थी कि मेरे और मेरे परिवार के लिए कुछ कमरों का फ़्लैट ही पर्याप्त होगा, उन्हें आलीशान भवन रहने के लिए मिला था। जिस लेखक की लेखनी रूसी साम्राज्य में फैली विद्रूपताओं पर निर्भय दौड़ी थी, वह कैसे नए सोवियत समाज, उसकी परिचालन अक्षमता पर न चलती, सो चली। कहते हैं कि सम्राट को और बाद में सोवियत शासन के आला नेताओं को उनका यह रवय्या पसंद न आता था, नतीजतन गोरिकी ने अपने जीवन का लम्बा समय देश-निष्कासन में बिताया। हालाँकि अपनी रचनाओं के चलते वे सारी दुनिया में बहुत जल्दी प्रसिद्धि पा गए थे और समृद्धि भी हिस्से आई थी; लेकिन लम्बे समय तक यूरोप में अपने बड़े परिवार के साथ रहने के बाद पैसों की तंगी उन्हें सताने लगी। इधर स्तालिन का स्वदेश लौट आने का निमंत्रण भी था, अतः साल 1932 में वे सोवियत संघ लौट आए और मृत्यु (1936 ई.) तक वहीं रहे। मक्सीम गोरिकी का फ़ासिस्टी इटली से रूस लौट आना स्तालिन और सोवियत शासन के लिए एक बड़ी वैचारिक जीत थी जिसका इनाम भी गोरिकी को भरपूर मिला। देश लौटने पर उनका भव्य स्वागत हुआ था – मॉस्को की सबसे महत्त्वपूर्ण सड़क, केंद्रीय पार्क, साहित्य संस्थान, मॉस्को आर्ट थिएटर, नीझ्नी नोवगरद शहर तथा कई अन्य मुख्य जगहों यहाँ तक की मुख्य विमान तुपल्येव ए-20 एनटी को गोरिकी का नाम दिया गया और रहने के लिए उन्हें मिला वह भवन, जिसका ऊपर ज़िक्र हुआ है।
यह भवन स्तिपान रिबुशींस्की ने अपनी रिहाइश के लिए बनवाया था। वे एक उद्यमी, परोपकारी और उस समय के बड़े रईसों में थे। उनके परिवार की तीन पीढ़ियों ने एक ग़रीब किसान से रईसी के उच्चतम पायदान तक पहुँचने के लिए जी तोड़ मेहनत की थी। उनके पूर्वजों ने सूती कपड़ा उद्यम से अपना कारोबार शुरू किया था और अक्टूबर क्रांति तक इस परिवार ने एक बहुत बड़ी सूती-कपड़ा मिल स्थापित कर ली थी जिसमें लगभग तीन हज़ार लोग काम करते थे, उनका एक बैंक था और लकड़ी का कारोबार भी बहुत फैला हुआ था।
स्तिपान रिबुशींस्की ने अपनी हवेली के निर्माण का ज़िम्मा उस समय के प्रख्यात वास्तुशिल्पी फ़ियोदर शेख़्तेल को सौंपा था और शेख़्तेल उनकी उम्मीद पर पूरी तरह से खरे उतरे थे। तैयार हवेली को पहली बार देखने पर स्तिपान रिबुशींस्की के मुँह से विस्मय और उत्साह से निकला था कि ऐसी इमारत तो पूरे यूरोप में नहीं है।
रिबुशींस्की परिवार केवल व्यापार से ही जुड़ा न था बल्कि बीसवीं सदी की शुरुआत में रूस में बड़े पैमाने पर हो रहे सामजिक-राजनीतिक परिवर्तनों में भी उनका दख़ल था, ख़ासतौर से स्तिपान के बड़े भाई पावेल रिबुशींस्की का। क्रान्ति पगने के माहौल में ये उद्यमियों का प्रतिनिधित्व करते रहे और प्रतिरोध का एक बड़ा नाम थे। इन्होंने अख़बार ऊत्रा रस्सी (रूस कि सुबह) निकालना शुरू किया था। ज़ाहिर सी बात है कि यह अख़बार उद्यमियों के हित में आवाज़ बुलंद करता था। साल 1918 में इसे सोवियत-विरोधी बता कर बंद कर दिया गया था। रिबुशींस्की परिवार क्रांति के बाद के वर्षों में सतत दबाव महसूस करता रहा और 1920 तक इसके लगभग सभी सदस्य रूस से इस उम्मीद में पलायन कर गए थे कि क्रांति के बाद के उथल-पुथल के दौर के समाप्त होने पर वे स्वदेश लौट आएँगे, पर ऐसा न हुआ।
स्तिपान रिबुशींस्की अपनी हवेली में सन् 1903 से 1917 तक रहे और क्रांति के बाद इटली चले गए थे और तभी इस का राष्ट्रीयकरण हो गया था। गोरिकी की रिहाइश बनने के पहले इसमें कई अन्य राजकीय संस्थान भी कार्यरत रहे थे। गोरिकी की देश-विदेश में फैली ख्याति को ध्यान में रखते हुए देश वापसी पर शासन उन्हें सोने के उस सिंहासन में बंदी बनाने से अधिक कुछ नहीं कर पाया। मक्सीम गोरिकी यह समझते थे कि वह घर उन्हें उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने और लेखनी की धार को कम करने के उद्देश्य से दिया गया है। यह तथ्य भी इस अर्थ में विरोधाभास को समोए हुए है कि एक समय ऐसा भी रहा था कि मक्सीम गोरिकी का पेत्रोग्राद का फ़्लैट और उससे पहले के अन्य घर क्रांतिकारियों और बल्शेविकों के दफ़्तर ही बन गए थे। पर अब वे बलशेविकों द्वारा नज़रबंद थे। गोरिकी का दमनकारियों से सदा छत्तीस का आंकड़ा रहा। उनकी लेखनी और मुखर बोलों के चलते न केवल आख़िरी दिनों में बल्कि क्रांति के फ़ौरन बाद से ही बल्शेविक उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानने लगे थे, लेकिन उनका विरोधी स्वर कभी मंद न हुआ। गोरिकी को इस हवेली के अलावा एक दाचा (गाँव का मकान) भी शहर के शोरशराबे और चहलक़दमी से दूर गोर्की नामक गाँव में दिया गया था, जिसमें ही लेखक ने अंतिम साँस ली थी।
इस हवेली के निर्माता और वास्तुशिल्पी फ़्योदर शेख़्तेल आजीवन रईसों और सौदागरों के लिए इमारतें बनाते रहे। उनका उठना-बैठना भी मालदार लोगों में होता था और वे स्वयं भी बहुत समृद्ध थे। लेकिन जीवन के अंतिम समय में सिर पर छत का बंदोबस्त करने के लिए भी उन्हें पापड़ बेलने पड़े थे। क्रांति के बाद के दिनों में कारोबारी और रईस ख़ानदान एक-एक करके देश छोड़कर जाने पर मजबूर हो गए थे यानी वे सभी चले गए थे जिनके लिए शेख़्तेल काम किया करते थे। जल्दी ही शेख़्तेल के लिए काम तलाशना एक मुश्किल बात हो गई और हालात इतने बिगड़े कि गुज़ारे के लिए उन्हें अपने संग्रह की ग़ैरमामूली चीज़ों को बेचना शुरू करना पड़ा। उन चीज़ों को किसी समय में बड़े शौक़ से उन्होंने इकठ्ठा किया था। लेकिन रईसों के देश छोड़ देने के बाद और तथाकथित अय्याशी की चीज़ों पर सोवियत सरकार की तिरछी नज़र होने के कारण उन बेशक़ीमती चीज़ों के लिए उन्हें ग्राहक भी बमुश्किल मिलते थे। क्रांति के फ़ौरन बाद जब उनके लिए वास्तुशिल्प से जुड़ा कोई काम नहीं बचा तो उन्होंने जीवनयापन के लिए वास्तुकला तथा कला सम्बन्धी अन्य विषयों पर व्याख्यान देने शुरू किए थे, बतौर अध्यापक भी काम किया था। एक तो कैंसर की बीमारी, दूसरे देश में हुआ इतना बड़ा फेरबदल – इन दोनों का उन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा था, उनका पूरा जीवन उलटपलट गया था। यह वह समय था जब अव्वल दर्जे के विशेषज्ञों को अपने लिए मामूली काम तलाशने पड़ रहे थे। ऐसा आमतौर पर हर संक्रमण काल में होता है लेकिन उसकी तीव्रता हुए फेरबदल पर निर्भर करती है। और रूस तो एक बड़ी राजनीतिक क्रांति से गुज़रा था उसका फ़ौरी असर कुछ लोगों पर बहुत बुरा पड़ा, बड़े-बड़े जागीरदारों को बेघर होना पड़ा। बावजूद तमाम कोशिशों के शेख़्तेल के आख़िरी दिन मुफ़लिसी, बेज़ारी और बीमारी में गुज़रे थे।
कोई भी दृश्य अधिक प्रभावकारी तब लगता है जब उसमें विरोधाभास प्रत्यक्ष और तीक्ष्ण होते हैं। कैनवस पर किसी दृश्य को उतारते समय प्रकाश और छाया पर विशेष ध्यान देना होता है और उनके बीच के फ़र्क को बल देकर रेखांकित करना होता है। जीवन की कूची से बनी तस्वीरों में विरोधाभासों का अभाव नहीं होता, न ही इस कूची को उन्हें उभारने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं।
विरोधाभास कब हमें खटकते हैं और कब वे हमारे लिए स्वाभाविक हो जाते हैं? यह एक मुश्किल सवाल है – लम्बे समय तक अंधकार में रहने के बाद अचानक प्रकाश के सम्पर्क में आने पर आँखें चौंधिया जाती हैं, कुछ क्षणों के लिए वे देखने का अपना एकमात्र कर्तव्य निभा नहीं पाती हैं। लेकिन कुछ पल बीतने पर प्रकाश का अभ्यस्त होकर वे पूरे विश्वास से खुल जाती हैं और उनका दृष्टिक्षेत्र सतत विस्तृत होता जाता है। यानी मुख्य बात होती है अभ्यस्त होने की। एक बार किसी बात या वस्तु को यदि हमारी चेतना स्वीकार ले तो कितनी भी विपरीतता उसमें सन्निहित क्यों न हो, वह हमें मान्य हो जाती है। किसी वस्तु से परिचय और उसको स्वीकार करने के बीच की अवधि ही हमारे धैर्य, समझ-कौशल, हमारी प्रतिरोध-क्षमता, ज्ञान-सामर्थ्य की परिचायक होती है। इन क्षमताओं का ग्रहण और परिमार्जन जीवन की कार्यशालाओं में अदृश्य ढंग से होता रहता है।
पीले गिरजाघर के बाहर खड़े हमारे गाइड के मुख से निकलती संपन्नता और विपन्नता, दमन और संघर्ष, स्वतंत्रता और मानसिक घुटन, प्रेम एवं दाह, वैभव और दरिद्रता, सृजनशीलता एवं अकर्मण्यता की तमाम कहानियाँ हमारे मानसपटल पर किसी फ़िल्म की रील की तरह समानांतर चल रही थीं। प्रत्येक कहानी अपने आप में प्रश्नों का बवंडर उठाने के लिए पर्याप्त थी पर उसमें निहित ऐतिहासिक तथ्य इस हद तक सर्व-स्वीकार्य हो चुके हैं कि उनके आधार पर किसी हलचल या उत्तेजना की अपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन अगर ऐसे कई तथ्यों से यकायक सामना हो जाए और अपने इर्दगिर्द का समाज भी विरोधाभासों की खान लगे तो यह सवाल पूरी शिद्दत से सिर उठाता है कि मानवता को अभी और कितनी मंज़िलें पार करनी होंगी ताकि न ही विषमताओं की ऐसी तीव्रता रहे और न ही किसी को उनका अभ्यस्त बनना पड़े।
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–प्रगति टिपणीस
