(1) असहिष्णु
चुप थी गंगा सदियों से
तो बड़ी भली थी
लगी बोलने जब से
दुनिया है अचरज में।
कितना बड़ा अनर्थ
हो रहा है भूतल पर!
दासी देती है जवाब
जाने किस बल पर?
उसकी हिम्मत!
रवितनया पर आँख तरेरे
नरगिस का एहसान
बहुत है रक्त कमल पर।
रिश्ता लगी जोड़ने
जमुना मरुस्थलों से।
नहीं राम को गिनती वह
अपने पूर्वज में।
उसकी जिद है, उसके
कर में हो तलवारें।
हाथ जोड़कर खड़े रहें
दिन-रात पड़ोसी
वैष्णव जन की पीर
नीर बन गिरे नयन से
गंगा से फिर कभी
मिले ना कमला-कोसी
जैसे राज किया था
अब तक, राज करेंगे
गाय-गोपियाँ रहें न अब
वृंदावन-ब्रज में।
कुदरत का यह खेल
हार की जीत हो रही
छूट रहे हैं धीरे-धीरे
दाग हठीले
चमकी ज्वर से पीड़ित
होने लगे भेड़िए
भेड़ों के नाखून- दांत
उग गए नुकीले।
गंगो-जमन ताश का
जादू अब न चलेगा
रंग न जमुना का ही
दिखे तिरंगे ध्वज में।
स्वर्ग जीतने का सपना
लेकर वृत्रासुर
बीते कल की देहरी
बैठा ऊँघ रहा है।
आश्रम में दधीचि के
आकर इंद्र देवता
मंत्र संवलित धुआँ
यज्ञ का सूंघ रहा है
बीती रात, डरा है
कुनबा अंधकार का
ढूंढ़ रहा है खोट
नये उगते सूरज में।
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(2) इतना क्यों लिखते हो भाई?
इतना क्यों लिखते हो भाई?
सीखो तुलसी से कविताई।
कुछ पढ़ते, कुछ सुनते,
कुछ चिन्तन भी करते
भूसा के बोरों में कुछ दाना भी भरते
शब्दों को जोड़ना महज मजदूरी भर है
शब्दों से जो परे अर्थ है, उसको धरते।
इतना क्यों लिखते हो भाई
जो पर्वत हो जाए राई।
लम्बी है प्रक्रिया दूध से घी बनने की
लिखने से पहले आदत डालो सुनने की
बिना तपस्या के निकलेगी घास-फूस ही
कोशिश हो शब्दों में भावों को बुनने की
इतना क्यों लिखते हो भाई
जो अजीर्ण हो जाय मलाई।
पाठक समझ नहीं पाते, किसका, क्या पढ़ना
चिन्तनीय है खेतों में जंगल का बढ़ना
धरे हाथ पर हाथ सुनारों की बस्ती में
पीतल से लुहार का स्वर्णाभूषण गढ़ना
इतना क्यों लिखते हो भाई
ब्रह्मा हो या सदन कसाई।
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(3) आर्द्रा
घर की मकड़ी कोने दुबकी
वर्षा होगी क्या?
बाईं आंख दिशा की फड़की
वर्षा होगी क्या?
सुन्नर बाभिन बंजर जोते
इन्नर राजा हो
आंगन -आंगन छौना लोटे
इन्नर राजा हो
कितनी बार भगत गुहराए
देवी का चौरा
भरी जवानी जरई सूखी
इन्नर राजा हो
आगे नहीं खिसकता सूरज के
रथ का पहिया
भुइलोटन पुरवइया सिहकी
वर्षा होगी क्या?
छाती फटी कुआँ-पोखर की
धरती पड़ी दरार
एक पपीहा तीतरपाखी
घन को रहा पुकार
चील उड़े डैने फैलाये
जलते अम्बर में
सहमे-सहमे बाग -बगीचे
सहमे-से घर-द्वार
लाज तुम्ही रखना पियरी की
हे गंगा मैया
रेत नहा गौरैया चहकी
वर्षा होगी क्या?
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(4) अख़बार
अपराधों के ज़िला बुलेटिन
हुए सभी अख़बार
सत्यकथाएँ पढ़ते-सुनते
देश हुआ बीमार।
पत्रकार की क़लमें अब
फ़ौलादी कहाँ रहीं
अलख जगानेवाली आज
मुनादी कहाँ रही ?
मात कर रहे टीवी चैनल
अब मछली बाज़ार।
फ़िल्मों से, किरकिट से,
नेताओं से हैं आबाद
ताँगेवाले लिख लेते हैं
अब इनके संवाद
सच से क्या ये अन्धे
कर पाएँगे आँखें चार ?
मिशन नहीं, गन्दा पेशा यह
करता मालामाल
झटके से गुज़री लड़की को
फिर-फिर करें हलाल
सौ-सौ अपराधों पर भारी
इनका अत्याचार।
त्याग-तपस्या करने पर
गुमनामी पाओगे
एक करो अपराध
सुर्खियों में छा जाओगे
सूनापन कट जाएगा
बंगला होगा गुलजार।
पैसे की, सत्ता की
जो दीवानी पीढ़ी है
उसे पता है, कहाँ लगी
संसद की सीढ़ी है
और अपाहिज जनता
उसको मान रही अवतार।
कालिदास के लिए
नकली सूरज वाले
माढव्यों का दिन है
कालिदास के लिए
सृजन-पथ बड़ा कठिन है।
कमल झील पर कब्जा है
अब सेवारों का
मन्त्रों के घर पर
अधिकार हुआ नारों का
जब-तब निकला करता
अफवाहों का जिन है।
मरी धूप में धूम मचाती
सर्द हवाएं
घुटने मोड़ नहीं पाती हैं
वृद्ध दिशाएं
पात झरे नीमों के,
कीकर हुआ गझिन है।
कहने लगे, सुहाने हैं ये
ढोल दूर के
ठगे-ठगे से वन हैं
चंदन के, कपूर के
कितना बेकल आज
रसप्रिये, मन तुम बिन है!
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(5)इंद्रधनु कँपने लगा
एक प्रतिमा के क्षणिक संसर्ग से
आज मेरा मन स्वयं देवल बना
मैं अचानक रंक से राजा हुआ
छत्र -चामर जब कोई आँचल बना।
मैं अजानी प्यास मरुथल की लिए
हाँफता पहुँचा नदी के द्वार पर
रक्तचंदन की छुअन अंकित हुई
तलहथी की छाप-सी दीवार पर
तुम बनी मेरे अधर की बाँसुरी
मैं तुम्हारे नैन का काजल बना।
यह तुम्हारा रूप, जिसकी आब से
घाटियों में फूल बिजली के खिले
इंद्रधनु कँपने लगा कंदील-सा
जब कभी ये होठ सावन के हिले
खिलखिलाहट-सी लिपट एकांत में
चांदनी देती मुझे पागल बना।
तुम मिले जब से नशीले दिन हुए
नीड़ में खग-से सपन रहने लगे
मैं तुम्हें देखा किया अपलक नयन
देवता मुझको सभी कहने लगे
जब कभी मैं धूप में जलने लगा
कोई साया प्यार का बादल बना।
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(6) कोंपलों-सी नर्म बाँहें
ये तुम्हारी कोंपलों-सी नर्म बाँहें
और मेरे गुलमुहर के दिन
आज कुछ अनहोनियाँ करके रहेंगे
प्यार के ये मनचले पल-छिन।
बांधता जब विंध्य सिर पर लाल पगड़ी
वारुणी देता नदी में घोल
धुंध के मारे हुए दिनमान को तब
चाहिए दो-चार मीठे बोल
खेत की सरसों हमारे नाम भेजे
रोज पीली चिट्ठियाँ अनगिन।
बौर की खुशबू हवा में लड़खड़ाए
चरमराएँ बंदिशें पल में
क्यों ना आओ हम गिनें मिलकर लहरियाँ
फेक कंकड़ झील के जल में
गुनगुनाकर ‘गीतगोविंदम्’ अधर पर
जिंदगी का हम चुकाएँ रिन।
एक बौराया हुआ मन, चंद भूलें
और गदराया हुआ यौवन
घेरकर इन मोह की विज्ञप्तियों से
वारते हम मृत्यु को जीवन
रोप लें हम आज चंदन वृक्ष, वरना
बख़्शती कब उम्र की नागिन!
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(7)जाल फेंक रे मछेरे
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो।
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चंदा के इर्द-गिर्द में मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो।
गूंजती गुफाओं में पिछली सौगंध है
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग -पग पर लहरें जब बाँध रही छाँह हो।
कुंकुम -सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है
यों ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो।
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(8)गीत लिखो
दाना -पानी देनेवाले गीत लिखो
लिखा शत्रु है जहां, मिटाकर मीत लिखो
ज्योति-विमुख तम की कविता क्यों लिखते हो
मरते दम तक तुम सांसों की जीत लिखो।
दीन-दुखी का दर्द भला तुम क्या जानो
जाड़े, बारिश में बेघर रहकर देखो
जिनका तुमपर है कोई एहसान नहीं
उनकी तीखी बातें भी सहकर देखो
बीते कल और आनेवाले कल के बीच
सिर्फ आज की बातों में संगीत लिखो।
हो स्वच्छंद बजाओ तुम अपनी ढपली
तुम कवियों के कवि, गालिब के ताऊ हो
पद-पैसा है, लूटो तुम सम्मान सभी
वैसे, नदी किनारे के तुम झाऊ हो
जब समाज के सुर में सुर है मिला नहीं,
क्या मतलब है गोबर या नवनीत लिखो।
तुम्हें मुबारक हो लैंटाना की झाड़ी
हम तो तुलसी चौरे की पूजा करते
आम और महुआ बियाह हमने देखा
घूंघट में निकली वाणी डरते-डरते
पगडंडी से राजमार्ग तक जाने को
पुरखों वाली नयी-नवेली रीत लिखो।
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(9) लौट आओ
गिर रहे पत्ते चिनारों के, छतों पर
सेब के बागान की किस्मत जगेगी
लौट आओ, जंग से भागे परेबो
मंदिरों की मूरतें हँसने लगेंगी ।
लौट आओ,तुम जहाँ भी हो, तुम्हारी
है जरूरत आज फिर से वादियों को
याद करती हैं सुबक कर रोज केसर-
क्यारियाँ अपने पुराने साथियों को
काँच के बिखरे हुए टुकड़े सहेजो
गीत की फसलें नयी इनसे उगेंगी।
जेब में बीरान घर की चाभियाँ ले
तुम चले थे जंगखोरों को हराने
याद करती आज भी भुतहा हवेली
जीतकर भी हारते क्यों, राम जाने
लौट आओ, सब्ज बचपन को दुलारो
खाइयाँ मन और मौसम की भरेंगी।
जो गढे सूरज सुबह से शाम तक, क्यों
एक अँजुरी धूप को वह नस्ल तरसे!
सोखकर पानी सभी बूढ़ी नदी का
व्योमवासी मेघ पर्वत पार बरसे
लौट आओ तुम कि फिर सीली हवाएँ
चोटियों पर बर्फ़ के फाहे धरेंगी।
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(10) सुखद है
मिलना तो है दूर,
सुखद है मिलने की तैयारी ।
एक मिलन की रात
विरह की सौ रातों पर भारी।
बिना नींद की रातों में
जो गीत पनपते हैं
मन के भीतर बादल के
पन्नों पर छपते हैं
विरहानल सालता सभी को
नर हो या हो नारी।
फूलों से लद गयी डालियाँ
मुझे चिढ़ाती हैं
फल की प्रत्याशा में जब
वे हाथ बढ़ाती हैं
जीत गयी धारा को राधा,
लोकलाज से हारी।
कभी-कभी ही होठों पर
अनजान हँसी खिलती
बड़े भाग से बाँहों को
चाहोंवाली मिलती
जी भर जेठ तपाता, तब
आती सावन की बारी।
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-बुद्धिनाथ मिश्र