अनुवाद के साथ मेरा राब्ता कुछ दस साल पहले हुआ, जब मैंने रेडियो रूस में बतौर अनुवादक और उद्घोषक काम शुरू किया था। बावजूद इसके कि हिंदी और रूसी भाषाएँ मुझे ठीक से आती थीं, शुरूआत में हर रूसी शब्द का समतुल्य हिंदी शब्द तलाशना एक बड़ा काम होता था। यह उस दौर की बात है जब डिजिटल अनुवाद इतना लोकप्रिय और सटीक नहीं होता था। बहरहाल अभ्यास से कोई भी कला सीखी जा सकती है, ख़बरों और रूस से जुड़ी स्टोरीज़ का अनुवाद करने में मेरा आत्मविश्वास बहुत धीमी गति से ही सही लेकिन बढ़ने लगा। ख़बरों और तकनीकी टेक्स्ट्स का अनुवाद इसलिए भी आसान होता है क्योंकि उनकी एक विशिष्ट शब्दावली और शैली होती है, जिसे सीखना भी एक तकनीकी काम होता है। कुछ नियम, कुछ शब्द और शब्दों के संयोजन के कुछ निर्धारित तरीक़े सीख लेने पर ऐसा अनुवाद किया जा सकता है। अनुवाद के क्षेत्र में मैं जितना अधिक प्रवेश करती गयी एक बात निरंतर स्पष्ट होती गयी कि अनुवाद के लिए रचनात्मकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना बहुत ज़रूरी है।
कुछ साल पहले मैंने साहित्यिक अनुवाद के क्षेत्र में क़दम रखा, यह दुनिया औपचारिक एवं वैज्ञानिक पाठों के अनुवाद की दुनिया से काफ़ी अलग लगी। वैसे तो किसी भी अनुवाद के माध्यम से हम मूल भाषा के सामजिक ढाँचे, लोगों की सोच, वहाँ की संस्कृति, उस भाषा में पाई जाने वाली विविधता एवं उसकी बोलियों आदि को अनुवाद की भाषा में प्रस्तुत करते हैं और यह काम अपने आप में चुनौती भरा होता है। लेकिन जैसे ही हम साहित्यिक अनुवाद के दायरे में प्रवेश करते हैं, पाठ में अभिधा के साथ-साथ भाषा के आलंकारिक, लाक्षणिक इत्यादि पहलू जुड़ जाते हैं। मूल पाठ में सबसे पहले भाषा के इन पहलुओं को पहचानना होता है और फिर उनका यथोचित अनुवाद करना। रूसी से हिंदी और हिंदी से रूसी के साहित्यिक अनुवाद के समय मुझे जिन पहलुओं ने ख़ासी चुनौती प्रस्तुत की, उनमें से
- आलंकारिक एवं अन्य साहित्यिक उपकरण
- पाठ में निहित ध्वनि और लय बनाए रखना (गद्य की तुलना में पद्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण)
- उन शब्दों का अनुवाद कैसे दिया जाए जिनका कोई समतुल्य शब्द अनुवाद की भाषा में न हो
- यौगिक शब्दों का अनुवाद
- सांस्कृतिक बारीकियों, ऐतिहासिक तथ्यों, देश की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी
- आलंकारिक एवं अन्य साहित्यिक उपकरण
साहित्यिक उपकरणों का इस्तेमाल – जैसे मुहावरे, कहावतें एवं लाक्षणिक वाक्यांश, व्यंग्योक्तियाँ, कटाक्ष इत्यादि – हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में करते हैं, लेकिन इसके बावजूद अनुवादक के लिए वे कठिनाइयाँ पैदा करते हैं। अगर हम हिंदी के वाक्यांश – दुकान बढ़ाना – को देखें तो कई बार हिन्दीभाषी भी इसे समझने में चकमा खा सकता है। कुछ हिंदी क्षेत्रों में यह मान्यता चली आ रही है कि दुकान बंद करना कहना अपशकुन होता है उससे कारोबार ठप्प हो सकता है, ऐसी स्थितियों में लोग दुकान बढ़ाना/उठाना वाक्यांश का प्रयोग करते हैं। लोक मान्यता और उसके चलते प्रचलन में आए वाक्यांशों को अच्छी तरह समझे बिना बोलचाल की भाषा का अनुवाद भी मुश्किल हो जाता है। मुहावरे, कहावतें. लोकोक्तियाँ भाषा को सजीव और स्वाभाविक बनाते हैं। अगर इनकी पहचान न हो पाए और उनमें निहित लाक्षणिक अर्थ न दिया जाए तो अनुवाद निश्चित रूप से मूल पाठ से अलग हो जाता है।
नरेश सक्सेना की ‘कविताएँ’ शीर्षक से कविता में ये पंक्तियाँ हैं:
जैसे युद्ध में काम आए
सैनिक की वर्दी और शस्त्रों के साथ
खून में डूबी मिलती है उसके बच्चे की तस्वीर
क्या कोई पंक्ति डूबेगी ख़ून में?
इन पंक्तियों में वाक्यांश काम आए को अगर मुहावरे की तरह देखा जाए तो इसका अर्थ होगा वीरगति को प्राप्त होना, लेकिन काम आने का आम अर्थ भी यहाँ लगाया जा सकता है जो इन पंक्तियों में निहित भाव के साथ न्याय नहीं कर पाएगा।
अब बढ़ते हैं व्यंग्योक्ति और कटाक्ष की तरफ़। इनको पहचानने और अनुवादित भाषा में इनका अनुवाद देने के लिए दोनों ही भाषाओं और संस्कृतियों की अच्छी समझ की ज़रूरत होती है। कुछ बातें और अभिव्यक्तियाँ किसी समाज विशेष में मान्य नहीं होती हैं, उनका प्रयोग व्यंग्योक्ति और कटाक्ष की तरह करना भी मान्य नहीं हो सकता है। इसलिए अनुवादक को मान्य सांस्कृतिक दायरों में रहकर ही अपनी बात कहनी होती है।
नरेश जी की ही एक और कविता ‘रंग’ देखते हैं
रंग
सुबह उठकर देखा तो आकाश
लाल, पीले, सिन्दूरी और गेरुए रंगों से रंग गया था
मज़ा आ गया ‘आकाश हिन्दू हो गया है’
पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा
‘अभी तो और मज़ा आएगा’ मैंने कहा
बारिश आने दीजिये
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।
इस कविता में कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसका अनुवाद कोई कठिनाई खड़ी करे, लेकिन शब्दों में छिपे कटाक्ष और व्यंग्योक्ति को समझे बिना कविता का अनुवाद सपाट और नीरस हो जाएगा।
साहित्य में अलंकारों के प्रयोग को भी नरेश जी की कविता ‘गिरना’ की पंक्तियों में देखते हैं:
गिरना हो तो घर में गिरो
बाहर मत गिरो
घर से यहाँ तात्पर्य निश्चित रूप से ईंट-गारे से बने मकान से नहीं है और बाहर से तात्पर्य सड़क आदि जगहों से नहीं है। शब्द आसान होने के बावजूद आलंकारिक भाषा में कही बातों के रस और भाव को अनुवाद में बरकरार रखने के लिए थोड़े पापड तो अनुवादक को बेलने ही पड़ते हैं।
II. पाठ में निहित ध्वनि और लय को बरक़रार रखना
इसके लिए फिर नरेश जी की ही कविता ‘एक वृक्ष भी बचा रहे’ देखते हैं –
एक वृक्ष भी बचा रहे
अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ
एक वृक्ष जायेगा
अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर
साथ जाएगा एक वृक्ष
अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझसे पहले
‘कितनी लकड़ी लगेगी’
श्मशान की टालवाला पूछेगा
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में।
इस रचना की ध्वनि गंभीर है, बात दो-टूक तरीक़े से कही गई है। अनुवाद तभी पूर्णतः सफल हो पाता है जब उसमें मूल रचना की ध्वनि और शैली बने रह पाते हैं।
III. उन शब्दों का अनुवाद कैसे दिया जाए जिनका कोई समतुल्य शब्द अनुवाद की भाषा में न हो
ऊपर दी कविता की इन पंक्तियों में कुछ शब्द हमारी संस्कृति और भाषा के हैं, जैसे श्मशान और सात मन।
श्मशान की टालवाला पूछेगा
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
दोनों ही शब्द रूसी भाषा में नहीं हैं। चूँकि मन यहाँ वज़न की इकाई है तो उसे अनुवाद की भाषा की इकाई में दिया जा सकता है। लेकिन श्मशान जैसे शब्दों को ज्यों का त्यों देकर उनका विवरण फ़ुटनोट में देना मेरे हिसाब से इस समस्या का एक अच्छा समाधान होता है। इस तरह से मूल भाषा की संस्कृति में गहराई से पैठ कर चुके कुछ शब्दों को अनुवाद की भाषा के पाठक भी जान जाते हैं और धीरे-धीरे वे शब्द उनकी शब्दावली का हिस्सा हो जाते हैं।
- यौगिक शब्दों का अनुवाद
कुछ यौगिक शब्दों के अर्थ उन शब्दों के अर्थ जोड़ कर बन जाते हैं, जिनसे वे गठित हुए होते हैं, जैसे राष्ट्राध्यक्ष या फलाहार। लेकिन दीपशिखा और हिमांशु जैसे शब्दों के घटक शब्दों के अर्थों को जोड़कर इनका अर्थ नहीं बनता। जैसे दीप और शिखा जुड़ कर अर्थ लौ नहीं देते और हिम तथा अंशु जुड़कर अर्थ चन्द्रमा नहीं देते। इस प्रकार के यौगिक अर्थों का अनुवाद करते समय ख़ासी सतर्कता बरतनी होती है और शब्दकोश में अर्थ जाँच लेने से ग़लत अनुवाद की सम्भावना घट जाती है।
- सांस्कृतिक बारीकियों, ऐतिहासिक तथ्यों, देश की महत्त्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी
इसके लिए आइए स्व. राम वाधवा की कविता अजमेर या अयोध्या देखते हैं –
अजमेर या अयोध्या
अजमेर या अयोध्या, दोनों में फ़र्क़ ही क्या,
जो खुदा का घर बनाए वो खुशखू सवाब पाए |
बाबर की खुशनशीनी को गुमगश्तगी बताकर
न सलीब पर चढ़ाओ, न गुनाह यह उठाओ !
एक बना लो बाबरी मंदिर और राम मसजिद बनवाओ
बचपन से ही स्कूल मदरसों में दाबे सोहबत सिखलाओ
मोमिन जब मंदिर से निकले और पुजारी मसजिद जाए
तब बन जाए दुनिया जन्नत, स्वर्ग यहीं धरती पर आए।
इसमें इस्तेमाल किए गए शब्दयुग्मों बाबरी मंदिर और राम मस्जिद से कवि का क्या तात्पर्य है कोई भी भारतीय फ़ौरन समझ जाएगा लेकिन अनुवाद की भाषा के पाठकों का परिचय किसी तरह से इसमें निहित ऐतिहासिक तथ्यों, घटनाओं और कुछ बारीकियों से ज़रूर कराना पड़ेगा, वरना रचना में छिपा मर्म पाठकों तक नहीं पहुँच पाएगा। इसका फैसला हर अनुवादक ख़ुद करता है, एक समाधान फ़ुटनोट हो सकता है।
साहित्यिक अनुवाद कई प्रश्न खड़े करता है जिनके रचनात्मक उत्तर तलाशने होते हैं। प्रश्न सुलझाने और उत्तर तलाशने के यह प्रक्रिया चुनौतीपूर्ण होने के साथ-साथ अत्यंत आनंददायक और संतोषजनक भी होती है।
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–प्रगति टिपणीस