डॉ. वेदप्रकाश सिंह
ओसाका विश्वविद्यालय
जापान में हिंदी भाषा आने से डेढ़ हज़ार साल पहले तत्कालीन सिद्धम लिपि और वर्तमान देवनागरी लिपि में व्यवहृत कुछ वर्ण आ चुके थे। अभी भी कोया सान नामक बौद्ध मत की एक तन्त्र शाखा के समाधि स्थलों के पत्थरों पर [ख] आदि पाँच नागरी वर्ण उत्कीर्ण हैं। जापान में मृतकों की समाधि बनाते हैं। उन पर बौद्ध रीति के अनुसार स्तूप जैसी आकृति वाली एक पट्टी लगाते हैं, इन्हें सोतोबा कहते हैं। इन पर भी आप ख, स, र, व, अ आदि वर्ण छपे हुए देख सकते हैं। बौद्ध धर्म के साथ जापान में नागरी से पूर्व की लिपियाँ और भाषाएँ भी आ चुकी थीं। ईसा की तीसरी से लगभग दसवीं शताब्दी तक भारत में संस्कृत को सिद्धम लिपि में लिखा जा रहा था। वही सिद्धम लिपि चीन होते हुए जापान पहुँची। आज भी जापान में संस्कृत को सिद्धम लिपि के माध्यम से पढ़ाया जाता है। सिद्धम को जापानी में बोनजी कहते हैं। इसी से माना जाता है कि जापान की दो लिपियाँ हिरागाना और काताकाना का उद्भव हुआ है।
1895 के आसपास भारत और जापान के बीच व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित होने के कारण हिंदी या कोई भी भारतीय भाषा बोलने वाले हिन्दुस्तानी जापान में उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में आने लगे थे।
यह सर्वविदित तथ्य है कि विदेशी भाषा के रूप में हिंदी सबसे पहले संभवतः कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज में पढ़ी-पढ़ाई जानी शुरू हुई थी। भारत के बाहर विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण का सबसे पुराना इतिहास फ्रांस और जर्मनी से जुड़ा है। हिंदी या कहें हिंदुस्तानी का पहला इतिहास लिखने वाले फ्रांसीसी विद्वान गार्सां द तासी (1794-1878) 1830 ई. में हिंदुस्तानी भाषा के स्थायी प्रोफेसर बनाए गए थे।[1]
इसके बाद जर्मनी के हमबोल्ट विश्वविद्यालय में गुजराती और हिंदुस्तानी का शिक्षण 1896 ई. के आसपास शुरू हुआ।[2]
फ्रांस और जर्मनी के बाद भारत से बाहर जापान के तोक्यो भाषा विद्यालय में हिंदी शिक्षण का आरंभ 1908 ई. में शुरू हुआ। यह परंपरा आज भी चल रही है। श्री नोनी एल. दत्त जी जापान में हिंदी पढ़ाने वाले पहले अध्यापक थे। उनके बारे में अब कोई अन्य जानकारी उपलब्ध नहीं है। केवल यह ज्ञात हो सका है कि वे योकोहामा शहर में रहते थे। शुरुआत में जापान में हिंदी पढ़ाने के लिए जिन अध्यापकों की सेवाएँ ली गईं वे मूलतः अध्यापक न होकर व्यापारी वर्ग से संबंधित थे। लेकिन ऐसा सिर्फ शुरुआती शिक्षकों के लिए ही कहा जा सकता है। तोक्यो में नोनी एल. दत्त जी के बाद प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी मौलाना बरकतुल्ला ‘भोपाली’ (1854-1927) जापान आए थे। बहुभाषाविद और गदर पार्टी से जुड़े क्रांतिकारी मौलाना बरकतुल्ला ‘भोपाली’ ने तोक्यो के भाषा विद्यालय में पाँच साल तक हिंदुस्तानी पढ़ाई।
जापान में जर्मनी की ही तरह हिंदी न पढ़ाकर शुरुआत में हिंदुस्तानी पढ़ाई जाती थी। लिपि भी अरबी-फारसी ही थी। जापान में यह स्थिति कमोबेश भारत की आजादी तक बनी रही। बाद में हिंदी और उर्दू अलग-अलग भाषाओं के रूप में पढ़ाई जाने लगीं।
तोक्यो के अलावा जापान में हिंदी शिक्षण का दूसरा बड़ा केंद्र ओसाका बना। 1921 ई. में ओसाका भाषा विद्यालय की स्थापना हुई। उसके एक वर्ष बाद 1922 ई. से ओसाका में हिंदुस्तानी का शिक्षण आरंभ हुआ। श्री महादेव लाल सराफ़ जी (1902-1971) यहाँ पहले शिक्षक नियुक्त हुए। वे भारतीय भेषज विद्या के पिता कहे जाते हैं। उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भेषज अथवा फार्मसी विभाग की स्थापना की थी। उनका जन्म बिहार के भागलपुर में हुआ था। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने तत्कालीन प्रिन्सिपल का विरोध किया तो उन्हें कॉलेज से निकाल दिया और वे फिर चीन, जापान और अमेरिका गए।
जापान में हिंदी शिक्षण के आरंभ होने का मूल कारण व्यापार था। जापान तत्कालीन भारत से कपास आदि चीजों का आयात करने लगा था। भारत के उद्योगपति आर डी टाटा (1856-1926) उनके चचेरे भाई जमशेदजी टाटा (1839-1904) और जापान के उद्योगपति शिबुसावा एईचि (1840-1931) के बीच व्यापार का समझौता 1895 ई. के लगभग हो चुका था। दोनों देशों के बीच (बंबई और कोबे के बीच) जलमार्ग से आवागमन होने लगा था। बहुत सारे भारतीय व्यापारी जापान आकर बसने लगे। इसी परिदृश्य में जापान में हिंदी शिक्षण का आरंभ होता है।
भारतीय शिक्षकों और कुछ ही समय बाद जापानी शिक्षकों ने जापान में हिंदी शिक्षण को आसान और व्यापक बनाने का भगीरथ प्रयास किया। भाषा शिक्षण के लिए शुरुआत में होने वाली समस्याओं के लिए जापानी में पाठ्य पुस्तकें, द्विभाषी शब्दकोश, अध्ययन सामग्री और बड़ी मात्रा में हिंदी साहित्य का जापानी में अनुवाद, नए समय के अनुसार शिक्षण सामग्री का निर्माण जापान में खूब हुआ है।
तोक्यो और ओसाका विदेशी भाषा विद्यालयों और जापान के दो प्रमुख केंद्रों तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़ तथा ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी/हिंदुस्तानी पढ़ाने वाले कुछ प्रमुख जापानी शिक्षकों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-
श्री एइजो सावा (1896-1978) तोक्यो विदेशी भाषा विद्यालय से स्नातक करने वाले और हिंदुस्तानी शिक्षण को अपने कार्यों से बेहतर बनाने वाले पहले प्रमुख विद्वान थे। उन्होंने 1920 में तोक्यो विदेशी भाषा विद्यालय से स्नातक की उपाधि ली। और फिर 1923 में वे ओसाका में हिंदुस्तानी विभाग के रीडर बनकर आ गए। लगभग अड़तीस साल अध्यापन करने के बाद 1961 में वे सेवानिवृत्त हुए। 1948 में उन्होंने ‘हिंदी प्रवेशिका’ नामक किताब प्रकाशित कारवाई। यह जापान में देवनागरी में छपी पहली पुस्तक है। वे अपनी उर्दू कक्षा में प्रेमचंद की कृति ‘मैदान ए समर’ पढ़ाते थे और हिंदी की कक्षा में ‘कर्मभूमि’ पढ़ाते थे।
श्री रेइचि गामो जी (1901-1977) हिंदुस्तानी भाषा विभाग तोक्यो में 1925 में अध्यापक बनकर आए। 39 वर्ष पढ़ाने के बाद 1964 में वे सेवानिवृत्त हुए। वे जब भारत में अध्ययन के लिए गए हुए थे उसी दौरान 18 अक्टूबर 1936 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया में आयोजित प्रेमचंद की शोकसभा में शामिल हुए थे। उन्होंने 1938 में ‘हिंदुस्तानी ग्रामर’ नामक किताब लिखी थी।
श्री क्यूया दोई जी (1916-1983) ने तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फ़ॉरेन स्टडीज़ में 1946 से लेकर 1979 तक लगभग 34 साल तक अध्यापन कार्य किया और हिंदी का स्वतंत्र विभाग भी स्थापित किया। हिंदी में उनकी सेवाओं के लिए ‘विश्व हिंदी सम्मान’ से सम्मानित किया गया। जापान में हिंदी के किसी विद्वान को भारत सरकार द्वारा दिया गया यह पहला सम्मान था। अभी तक यह सम्मान आठ जापानी विद्वानों को मिल चुका है। जिनके नाम हैं- श्री क्यूया दोई जी, श्री कात्सुरो कोगा जी, श्री तोमिओ मिज़ोकामि जी, श्री तोशियो तनाका जी, श्री ताकेशी फूजिइ जी, श्री हिदेआकि इशिदा जी, श्री अकिरा ताकाहाशि जी और श्री मिकि यूइचिरो जी। श्री क्यूया दोई जी ने ‘हिंदी-जापानी शब्दकोश’ और ‘हिंदी प्रचार पुस्तिका’ लिखी। आचार्य विनोबा के कहने पर देवनागरी में ‘जापानी भाषा प्रवेश’ लिखी थी। उन्होंने गोदान का जापानी में अनुवाद किया। प्रेमचंद के साथ-साथ जैनेन्द्र, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा आदि की कृतियों का अनुवाद किया। ‘हिंदी क्रिया विशेषण’ और ‘हिंदी में ‘ह’ पर लेख लिखे। 1983 में दोई जी का निधन हो गया। ये तीनों ही विद्वान जापान में हिंदी/हिंदुस्तानी शिक्षण की नींव मजबूत करने वाले पुरोधा थे।
इनके बाद श्री कात्सुरो कोगा जी, श्री तोशियो तनाका जी, श्री तोमिओ मिज़ोकामि जी, श्री कजुहिको माचिदा, श्री अकिरा ताकाहाशि जी, श्री ताकेशी फूजिइ जी, श्री हिदेआकि इशिदा, श्री योशिफुमी मिजुनो जी, श्रीमती हिरोको नागासाकी जी, सुश्री मिकि निशिओका जी और श्रीमती चिहिरो कोइसो जी आदि के नाम बेहद उल्लेखनीय हैं।
श्री कात्सुरो कोगा जी ने अपनी चलीस वर्षों की मेहनत के बाद हिंदी-जापानी शब्दकोश के क्षेत्र में बहुत बड़ा कार्य किया। उनका शब्दकोश हिंदी के साथ किसी भी अन्य भाषा का सबसे बड़ा कोश है। इसमें लगभग अस्सी हजार शब्द शामिल हैं। और अगर सभी उदाहरणों के शब्दों को भी गिन लिया जाए तो यह संख्या दो लाख के पास पहुँचती है। उन्होंने हिंदी लोकोक्तियों पर भी कई महत्त्वपूर्ण लेख लिखे हैं।
श्री तोशियो तनाका जी ने अनुवाद के जरिए विपुल कार्य किया है। हिंदी साहित्य को जापानी पाठकों तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य उन्होंने किया है। गांधी जी की आत्मकथा का मूल गुजराती से जापानी भाषा में अनुवाद किया है।
श्री तोमिओ मिज़ोकामि जी ने रामायण, फिल्मी गीतों और नाटकों के जरिए जापान में हिंदी शिक्षण को रोचक और प्रभावी बनाने का कार्य किया है। वे इस समय भी सक्रिय रूप से हिंदी की सेवा कर रहे हैं। उनके कार्यों के लिए भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उन्हें 2018 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया है।
श्री अकिरा ताकाहाशि जी ने अपने गुरु श्री कात्सुरो कोगा जी के साथ मिलकर हिंदी जापानी शब्दकोश निर्माण का कार्य किया था। साथ ही उन्होंने ‘मुल्ला वजही कृत ‘सबरस’ की दक्खिनी हिंदी का भाषा विश्लेषण’ किया। 1983 में उनकी यह किताब भारत में सम्भावना प्रकाशन से प्रकाशित है। किसी जापानी अध्यापक की भारत में प्रकाशित यह पहली किताब है। इस समय आप मराठी भाषा पर काम कर रहे हैं और जापानी-मराठी शब्दकोश के निर्माण में दतचित्त होकर लगे हैं।
उपर्युक्त इन हिंदी विद्वानों के अलावा अनेक विद्वान और हैं, जो अध्यापन, लेखन, अनुवाद, सम्पादन, फिल्मों के उपशीर्षक देकर हिंदी का जापान में प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। तोक्यो और ओसाका में लगभग पचास से अधिक भारतीय अध्यापकों ने पिछले एक सौ तेरह सालों में हजारों जापानी विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई है।
तोक्यो विदेशी भाषा विद्यालय और वर्तमान में तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फोरेन स्टडीज़ में हिंदी पढ़ाने वाले लगभग तैंतीस भारतीय शिक्षकों के नाम निम्नलिखित हैं- श्री नोनी एल. दत्त जी (1908-1909), श्री मौलाना बरकतउल्ला भोपाली जी (1909-1914), श्री देवलीलाल सिंह जी (1914-1916), श्री हरिहरनाथ तोरल अटल जी (1916-1921), श्री एच. डी. चतर जी (1922 दो महीने तक), श्री हेनरी ड्रैमंड जी (1922-1924) श्री केशोराम सब्बरवाल जी (1924-1925), श्री विशम्भर दत्त जी (1924-1925) श्री अतरसेन जैन जी (1926-1929), श्री केशोराम सब्बरवाल जी (1930 दो सत्र के लिए), श्री बदरुल इस्लाम फैज़ली जी (1930-1932), श्री केशोराम सब्बरवाल जी (1932 चार महीनों के लिए), श्री मोहम्मद नूरुल हसन बरलास जी (1933-1949 बीच के कुछ समय भारत चले गए थे), श्रीमती कमला रत्नम जी (1949-? 1952 अंशकालिक और अवैतनिक), श्री कृपालु सिंह शेखावत जी (1952 ?- 1954), श्री सत्यप्रकाश गांधी जी (1954- ? 1976), श्रीमती खन्ना जी (कुछ कक्षाएँ, अवैतनिक), श्री एम. एस. झवेरी जी (1969- ?, अंशकालिक शिक्षक), श्री श्यामसुंदर जोशी उर्फ़ श्यामू संन्यासी जी (1976-1979), श्रीमती इंदु जैन जी (1979-1981 भारत से जापान आकर हिंदी पढ़ाने वालीं पहली शिक्षिका), श्रीमती राज बुद्धिराजा जी (1981-1983), बद्रीनाथ कपूर जी (1983-1986), श्रीमती इंदुजा अवस्थी जी (1986-1988), श्रीमती निशा कुकरेजा जी (1988-1990), श्री लक्ष्मीधर मालवीय जी (1990-1991), श्री सत्यप्रकाश मिश्र जी (1 अप्रैल 1991- 31 मई 1991), श्रीमती सरस्वती भल्ला जी (1991-1992), श्रीमती मंजुला दास जी (1992-1994), श्रीमती मीरा श्रीवास्तव जी (1994-1996), श्री कृष्णदत्त शर्मा जी (1996-1999), श्री कृष्ण दत्त पालीवाल जी (1999-2002), श्री सुरेश ऋतुपर्ण जी (2002-2012), श्री रामप्रकाश द्विवेदी जी (2012-2017), श्रीमती ऋचा मिश्रा जी (2017-2018), श्री श्याम सुंदर पाण्डेय जी (2019-2021), श्रीमती इंदिरा भट्ट जी (2021 चार महीनों के लिए), श्री सूरज प्रकाश जी (2021-2024), श्री ऋषिकेश मिश्र जी (2024- अब तक)
ओसाका विदेशी भाषा विद्यालय और वर्तमान में ओसाका विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में शुरुआत से लेकर अब तक लगभग सत्रह भारतीय अध्यापकों ने अपनी सेवाएँ दी हैं। उनके नाम निम्नलिखित हैं-
श्री महादेव लाल सराफ़ जी (1 अप्रैल 1922 से 31 दिसंबर 1922 तक), श्री करीम जी (6 जनवरी 1923-31 मार्च 1928), श्री अतर सेन जैन जी (1 अप्रैल 1929-31 मार्च 1934), श्री मदनलाल जैन जी (15 मई 1934-31 मार्च 1938), श्री संत राम वर्मा जी (7 अप्रैल 1938-1 मार्च 1962), श्री राधे श्याम खेतान जी (अप्रैल 1962- मार्च 1963), श्री जगदीश दवे जी (अप्रैल 1963-मार्च 1965), उमेश वर्मा (1965-1966), श्री लक्ष्मीधर मालवीय जी (अप्रैल 1966-1970, अगस्त 1973- मार्च 1990) श्रीमती सुजाता कुलश्रेष्ठ जी (अप्रैल 1990-मार्च 1992), श्री गिरीश बक्शी जी (अप्रैल 1992-1994), (यहाँ तक की जानकारी ‘ओसाका विश्वविद्यालय का इतिहास’ नामक जापानी में प्रकाशित किताब से) श्री हरजेंद्र चौधरी जी (1994-1996), श्री धर्मपाल गांधी जी (1996-1998), श्री अश्वनी कुमार श्रीवास्तव जी (1998-2000), श्री अरुण चतुर्वेदी जी (2000-2002), श्रीमती गीता शर्मा जी (2002-2005), सुश्री यासमीन सुलताना नकवी जी (2005-2010), श्री हरजेंद्र चौधरी जी (2010-2012), श्री चैतन्य प्रकाश योगी जी (2012-2017)
जापान में हिंदी के दो प्रमुख केंद्र तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज और ओसाका यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज हैं। इन दो सरकारी विश्वविद्यालयों के अलावा तोक्यो के ही आसपास लगभग पन्द्रह जगहों पर हिंदी किसी न किसी स्तर या रूप में पढ़ाई जाती है। जिनमें एक अनुमान के अनुसार हर साल दो सौ विद्यार्थी दाखिला लेते हैं। कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों के नाम निम्नलिखित हैं- तोकाई विश्वविद्यालय, दाइतो-बुनका विश्वविद्यालय, एशिया विश्वविद्यालय, ताकुशोकु विश्वविद्यालय, तोक्यो विश्वविद्यालय आदि। जापान से हिंदी में प्रकाशित होने वाली दो पत्रिकाएँ भी निकलीं। पहली पत्रिका का नाम ‘ज्वालामुखी’ था। इस पत्रिका के सम्पादक योशिआकि सुज़ुकि समेत सभी लोग जापानी थे। 1980 से लेकर 1986 तक यह वार्षिक पत्रिका निकलती रही। दूसरी पत्रिका सुश्री यास्मीन सुल्ताना नकवी जी निकालती थीं। उनकी पत्रिका का नाम ‘साकुरा की बयार’ था। इस पत्रिका में जापान और भारत दोनों देशों के लेखक होते थे। जापान में अनेक अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक कार्यक्रम भी आयोजित किए गए। 29-30 जुलाई 2006 को पहला अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन तोक्यो में आयोजित किया गया। इसके बाद अनेक कार्यक्रम आयोजित किये गए। हर साल दस जनवरी को या उसके आसपास तोक्यो और ओसाका में दूतावास और कोंसुलेट जनरल द्वारा हिंदी दिवस का भी आयोजन किया जाता है। इस आयोजन में तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज और ओसाका यूनिवर्सिटी ऑफ़ फॉरेन स्टडीज के शिक्षक और विद्यार्थी भाग लेते हैं और नाटक का भी मंचन करते हैं।
हिंदी नाट्य मंचन की सुदीर्घ परम्परा भी जापान के इन दो विश्वविद्यालयों में रही है। तोक्यो में 1921 में सबसे पहले ‘बुद्ध’ शीर्षक नाटक के मंचन की जानकारी मिलती है। उसके बाद अगले साल 1922 में ‘राजा-रानी’ नामक नाटक का मंचन हुआ। 1928 में ‘कर्बला’ शीर्षक नाटक खेला गया तो 1931 में ‘डाकघर’ के मंचन का जिक्र मिलता है। 1933 में ‘प्रतिज्ञा’ नामक नाटक मंचित किया गया। यह परम्परा कई बार बीच में रुक गई। लेकिन वर्तमान समय में दोनों विश्वविद्यालयों में यह परम्परा चल रही है।
नाटक के सिलसिले में श्री तोमियो मिज़ोकामी जी का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उन्होंने शौकिया विद्यार्थियों को साथ लेकर जापान ही नहीं दुनिया भर में दस साल में सौ नाट्य प्रस्तुतियाँ कीं। 2001 में जापान में भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के समक्ष ओसाका में भी एक नाटक का मंचन करवाने का अविस्मरणीय अनुभव प्राप्त किया।
हिंदी फ़िल्में दुनियाभर की तरह जापान में भी बहुत लोकप्रिय हैं। जापानी उपशीर्षकों की मदद से जापानी दर्शक अब हिंदी समेत अनेक भारतीय भाषाओँ की फिल्मों का आनंद लेते हैं। इस क्षेत्र में श्रीमती तामाकि मात्सुओका जी का विशिष्ट स्थान है। इसी प्रकार का एक माध्यम एनएचके भी है। जापान का सरकारी प्रसार माध्यम है। एनएचके पर हिंदी में भी सेवाएँ उपलब्ध हैं। जापान में हिंदी में समाचार के साथ-साथ हिंदी में जापानी सिखाने के लिए यह भारतीय श्रोताओं के बीच लोकप्रिय है। जापान में विद्यार्थियों को भी मानक हिंदी के उच्चारण सुनने का अच्छा माध्यम प्रस्तुत करता है।
कई बार दाखिला लेते समय कुछ विद्यार्थी यह सवाल पूछते हैं कि भारत में अधिकतर लोग अब अंग्रेजी ही बोलने लगे हैं तो हिंदी पढ़ने का क्या लाभ है?
यह सच है कि हिंदी को इस समय अंग्रेजी भाषा और रोमन लिपि से काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। लेकिन सच यह है कि भारत की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली और एकमात्र सम्पर्क भाषा हिंदी ही है। अंग्रेजी के कारण हिंदी का शब्द भण्डार और वाक्यों का अंग्रेजी तरीका शामिल होता जा रहा है लेकिन इस संक्रमण दौर के बाद भी हिंदी भारत की प्रमुख भाषा रहेगी। इसलिए भारत को अच्छे से जानने वालों के लिए या कम्पनियों के लिए हिंदी की उपयोगिता बनी ही रहेगी। इसलिए जापान में हिंदी का भविष्य किसी प्रकार से कमजोर नजर नहीं आता है।
हिंदी सीखकर कुछ जापानी विद्यार्थी अपने यूट्यूब चैनल भी चला रहे हैं। उनमें से सबसे लोकप्रिय ओसाका विश्वविद्यालय मायो हितोमी हैं। साथ ही कोहेई भी काफी प्रसिद्ध जापानी यूट्यूबर हैं। इन युवाओं के कारण भी न केवल जापान बल्कि भारत में भी हिंदी जानने वाले लोग इन्हें खूब देखते-सुनते हैं।
जापानी भाषा में कई बार ऐसे शब्द सुनाई देते हैं जो हिंदी में भी हैं। जैसे ओसेवा यह शब्द सेवा का ही जापानी रूप है। जैसे कुश यह हिंदी कुश या घास के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है। हिंदी शब्द तोरण के लिए तोरी शब्द जापानी में इस्तेमाल होता है। एक अंदाजे के अनुसार जापानी भाषा में ऐसे दो सौ शब्द हैं जो संस्कृत से आए हैं और वे हिंदी में भी प्रचलित हैं। वैसे हिंदी में रिक्शा शब्द मूलतः जापानी रिकि+शा का हिंदी रूप है।
अभी कुछ दिन पहले ओसाका शहर में एक बहुत बड़ी दुकान में घूमते हुए हिंदी में उद्घोषणा सुनी। वहाँ पर विश्व की अनेक भाषाओं में ग्राहकों को जानकारी दी जा रही थी। उनमें हिंदी की उपस्थिति सुनकर अच्छा लगा। ओसाका विश्वविद्यालय के मिनोह परिसर की एक दुकान का नाम ‘शांति’ है। और उसे देवनागरी लिपि में ही लिखा गया है। यह सब देखकर लगता है कि हिंदी की उपस्थित जापान में लगातार बढ़ रही है।
इस प्रकार हम लोग देख सकते हैं कि जापानी समाज में हिंदी की व्याप्ति कितनी और कैसी है? इस व्याप्ति के आधार को भी जानने की कोशिश इस लेख में की गई।
[1] किशोर गौरव, हिन्दुस्तानी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 12
[2] https://www.iaaw.hu-berlin.de/en/region/southasia/South/history
3. इस लेख की अधिकतर सामग्री डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण जी की किताब ‘जापान में हिंदी शिक्षण की परम्परा’ से ली गई है। डॉ. तोमिओ मिज़ोकामि जी और डॉ. हिरोको नागासाकी जी ने इस सम्बन्ध में मदद की है।