कौतूहल

पर्वत के इस पार मैं सोचूँ

पर्वत के उस पार क्या होगा ?

शायद उधर झील हो सुंदर

कमल-पुष्प खिलते हों भीतर,

सूर्य की किरणें चमकें जल पर

जैसे सूर्य हो जल के अंदर।

शायद उधर भी सुंदर तितली

ऐसे उड़ती हो फूलों पर,

जैसे इधर वह सुंदर बाला

धरे गुलाब अपने बालों पर।

शायद झरने बहते कल-कल

पर्वत के गर्भ से निकल,

नीचे वन में यूँ गिर जाते

जैसे भुजाओ में समाए बल।

शायद उधर हो मरुस्थल

एक बूँद भी मिलता न जल,

चारों ओर हो यूँ वीरानी

जैसे समय खो गया प्रतिपल।

शायद बीहड़ वन हो वहाँ पर

जहाँ हिंस्त्र जंतु हों विचरते,

भय की घाटी में हर क्षण

डाकू-ख़ूनी जहाँ ठहरते।

या फिर शासक क्रूर वहाँ का

परदेसी को बंदी बना ले,

असभ्य समाज के सदस्यगण

मुझको अपना भक्ष्य बना लें।

तो क्या पथ से हट जाऊँ मैं ?

भय से यहीं ठिठक जाऊँ मैं ?

अपनी यात्रा को विराम दे

उल्टे पाँवों मुड़ जाऊँ मैं ?

नहीं, नहीं, मैं रुक ना पाऊँ

भय के अगे झुक ना पाऊँ।

यात्रा पूर्ण हो, धर्म हो मेरा

अधर्म में मैं सुख ना पाऊँ।

मेरे पूर्वज ऋषि रहे हैं

मनु का वंशज क्यों भय खाए ?

आत्मा के भीतर भी खोजे

ब्रह्मांड में ब्रह्म को पाए।

पर्वत के उस पार मैं जाऊँ

नहीं जानता क्या उस पार।

जिसने पर्वत की रचना की

उसका अंश है मेरी धार।

पर्वत के इस पार मैं सोचूँ

पर्वत के उस पार क्या होगा ?

***

-हरप्रीत सिंह पुरी

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