अर्थ

जिस प्रकार अति तीव्र गति से
परिभ्रमण करते चक्र की गति
दृष्टव्य नहीं होती
एवं यह मिथ्याभास हो जाता है
कि वह स्थिर है, जड़ है,
ऐसा ही तुम्हारे जीवन का कर्मरथ है, मित्र।
वीणा की झंकार , मुरली का स्वर
कोटि-कोटि जनमानस को
धन्य कर देता है ,
यह सत्य
वाद्य को ज्ञात ही नहीं होता।
वाद्यवादक की महिमा है
कि वाद्य झंकृत होता है
एवं सृष्टि को आह्लादित कर देता है।
वाद्य का आनंद तो
झंकृत होने में ही निहित है।
वह क्यों झंकृत है
एवं इस झंकार,
इस स्वर का
लाभार्जन कौन करता है,
यह प्रश्न उसकी सम्प्रभु शक्ति से परे हैं।
इसलिये, बंधु !
अपने दैदीप्यमान अस्तित्व को
अर्थहीन न समझ बैठना।
जिस प्रकाश-पुंज ने
तुम्हारे शरीर खंड को
अखंड दीप-ज्योति से
प्रकाशित किया है,
उसके नियोजन में
वह भटके हुए यात्री हैं
जिनके संकट का एकमात्र सहारा
यह दीप-ज्योति ही है।
भला नदी कहाँ जानती है
कि वह किस प्यासे की प्यास
बुझाने को बह रही है।
उसकी नियति, उसका धर्म, उसका आनंद
तो बहते चले जाने में है।
फिर यह भी तो सत्य है कि
कभी कभी एक छोटा सा उल्का-पिंड
बड़े बड़े गृह-नक्षत्रों की
गति एवं दिशा में
परिवर्तन का कारण बन जाता है।

***

-हरप्रीत सिंह पुरी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »