क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?

क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?

वहाँ, जहाँ प्रभुता ही प्रभुता,
हर क्षण है आनंद बरसता,
जीवन प्याला रहे छलकता,
दसों दिशाएँ, बहे सरसता।

क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?

जहाँ प्रेम, पर मोह नहीं है,
मैत्री है पर द्रोह नहीं है,
शक्ति है, पर शोर नहीं है,
युद्ध की कोई भोर नहीं है।

क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?

दुःख अौर पीड़ा नहीं सताते,
सर्दी-गर्मी एक से भाते ,
अभाव कभी नहीं तरसाते,
भय से मुक्त, सभी मिल गाते।

क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?
जहाँ सदा उन्मुक्त नृत्य हो,
ऊँचा-नीचा कोई न जाने,
मेरा-तेरा भेद नहीं है,
एक प्रकाश को सब पहचानें।

क्या तुम मेरे साथ चलोगे ?

चलना सरल बहुत है लेकिन,
जगत विषमता को ही चाहे,
मन की गाँठ को खोले नाहीं,
भूलभुलैया में पथ गाहे।
तुम तो मेरे साथ पढ़े हो,
शायद तुम यह राग समझ लो,
धुन इकतारे की सुनकर,
व्यर्थ है यूँ अनुराग समझ लो।
प्रश्न तुम्हारे सुने हैं मैंने,
उनके भी उत्तर देता हूँ,
भाड़ा कितना लगेगा रथ का?
सामग्री संग क्या लेता हूँ?
एक टका न भाड़ा देना,
मैं-मेरा को तजना होगा,
सारथी को करना मन अर्पित,
शाश्वत सत्य को भजना होगा।
क्या तुम इतना कर पाओगे?
शीघ्र ही पथ पर चल पाओगे?
सारा विश्व तुम्हारा होगा,
निश्छल मन में पल पाओगे?

क्या तुम मेरे साथ चलोगे?

***

-हरप्रीत सिंह पुरी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »