आ अब लौट चलें…

-रोहित कुमार हैप्पी

स्वर्ग पाने के बाद भी एक आत्मा नाखुश थी। भूलोक के लोग अकसर स्वर्ग पाने के लिए लालायित रहते हैं लेकिन इस आत्मा ने तो सबको अचंभे में डाल दिया। इसकी तो बस एक ही रट थी,’मुझे वापिस भेज दो।’

‘इसका क्या करें, महाराज? इसके सत्कर्मो  के कारण इसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई लेकिन यह यहाँ प्रसन्न नहीं।’

‘इसके साथ शांति से बातचीत करो और स्वर्ग के विधान के अनुसार यथासंभव निदान करो।’

‘महाराज की जय हो!’ कहकर ज्यों ही सेवक ने आज्ञा ली और दरबार से बाहर जाने लगा त्यों ही महाराज को जैसे कुछ याद हो आया, ‘..और सुनो! इसका निवारण शीघ्र कीजिए अन्यथा स्वर्ग में अराजकता फैल सकती है।’

‘जैसी महाराज की आज्ञा।‘ सेवक ने पुनः झुककर स्वर्ग के महाराजा को प्रणाम किया और दरबार से बाहर की ओर चल दिया।

(2)

‘नहीं, मुझे यहाँ नहीं रहना। मुझे वापस भेज दो।’ अशांत आत्मा ने आसमान सिर पर उठा रखा था, ‘मुझे अपने घर जाना है।’

जिस स्वर्ग को पाने के लिए मनुष्य पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, यज्ञ-अनुष्ठान, दान-पुण्य, तीर्थ यात्रा और इसके अतिरिक्त भी जाने क्या-क्या करता  है, उसी स्वर्ग को त्यागकर एक आत्मा भूलोक पर जाने की जिद्द पर अड़ी थी।

‘मुझे घर जाना है!’

‘तुम शांति रखो। थोड़ी देर में स्वर्ग के अधिकारी तुम्हारी समस्या का निदान करने आ रहे हैं।’ उस अशांत आत्मा के एक साथी ने ढांढस बंधाते हुए सांत्वना दी, ‘लो, वे आ ही गए,’ स्वर्ग के दूतों को वहाँ आया देखकर साथी आत्मा ने कहा।

‘कहिए, कैसे हालचाल हैं?’ स्वर्ग के एक दूत ने पूछा।

“ठीक हूँ पर मुझे वापस घर जाना है।’ अशांत आत्मा ने वही आलाप दोहराया।

‘स्वर्ग में आपको ऐसी क्या तकलीफ़ है? हर मनुष्य यहाँ आने को तरसता है।’ एक दूत ने समझाया।

“यहाँ स्थान पाना सरल नहीं। अच्छे कर्मो के फलस्वरूप ही कोई स्वर्ग पाता है।’ दूसरे स्वर्गदूत ने स्वर्ग की महत्ता बताई।

‘‘हाँ, लेकिन अपनों के बिना कैसा स्वर्ग? कैसा आनंद? मेरे लिए तो मेरा परिवार और अपना घर ही स्वर्ग के समान था। कृपया मुझे अपने घर भेज दीजिए।

‘परलोक सिधारने के बाद भी भला कोई वापिस लौटता है? आपको यहाँ अशांत रहने पर दण्ड भी दिया जा सकता है।’ तीसरे ने डराया। 

स्वर्गदूतों की बातों का उसपर रत्तीभर भी असर न हुआ। वह अपनी जिद्द पर अडिग रही, ‘मुझे घर जाना है।’

‘ठीक है। आपका यही निर्णय है तो हम महाराज से पुनः बात करते हैं।’ एक दूत ने कहा।

‘मुझपर कृपा करें।’ आत्मा कुछ आश्वस्त हुई।

‘ईश्वर आपका भला करें।’ दूतों ने विदा ली। 

(3)

‘महाराज की जय हो!’ स्वर्गदूतों ने दरबार में प्रगट होकर एक स्वर में महाराज को प्रणाम किया।

‘कहो, क्या समाचार है। समस्या का समाधान हुआ?’

‘नहीं, महाराज। हमने उसे बहुत समझाया-बुझाया, प्रलोभन दिए और दण्ड  का डर भी दिखाया लेकिन वह आत्मा टस से मस नहीं हुई।’ दूत निराश थे।

“बडी अजीब बात है।’ महाराज की भृकुटि तन गई, मस्तक पर तनाव की रेखाएं उभर आईं, ‘अच्छा, मैं अपने विशेष प्रतिनिधियों से परामर्श करके कोई मार्ग निकालता हूँ।’

“जैसी महाराज की आज्ञा।’ दूतों ने प्रणाम करके अवकाश लिया।

(4)

‘प्रणाम महाराज! आपने याद किया?’ स्वर्ग के विशेष प्रतिनिधि उपस्थित हुए।

‘हाँ, एक समस्या है।’

“आज्ञा दें, महाराज!’

‘हमारे यहाँ एक अशांत आत्मा है।’

‘स्वर्ग में अशांत…?’

‘हाँ, इसी से तो सब अचंभित हैं। तुम कोई समाधान निकालो। तुम दूतों से उसके बारे में जानकारी ले सकते हो और भूलोक से भी आवश्यकता हो तो जानकारी लो मगर शीघ्र ही इसका निदान करो।”

‘हो जाएगा, महाराज।’

“तभी तो तुम्हें बुलाया था। मुझे विश्वास है, तुम कोई मार्ग निकाल ही लोगे।’

‘जी, महाराज। मैं शीघ्र लौटता हूं। आज्ञा दीजिए।‘

(5)

‘महाराज की जय हो!’

‘आओ, आओ। क्या समाचार है?

‘महाराज, वैसे तो परलोक सिधारने के बाद किसी की वापसी संभव नहीं लेकिन स्वर्ग का यह भी विधान है कि यहाँ कोई दुखी या अशांत नहीं रह सकता।’

‘मतलब?’

‘मतलब यह कि उसकी अशांति के कारण उसे यहाँ भी रखना संभव नहीं लेकिन यदि उसे भूलोक भेज दें तो यह भी हमारी बहुत बडी असफलता होगी।’

‘फिर?’

‘महाराज, हम उसे एक शर्त पर भूलोक भेज सकते हैं। इससे दोनों तरफ की इज्जत बनी रहेगी।’

‘वह शर्त क्या है?’ महाराज ने सवाल किया तो विशेष प्रतिनिधि ने महाराज के समीप जाकर उनके कान में धीरे से उपाय बता दिया, जो किसी और को सुनाई नहीं दिया।

महाराज बहुत प्रसन्न हुए, ‘वाह-वाह! तुमसे यही उम्मीद थी। जाओ, अविलंब उस अशांत आत्मा के प्रस्थान का प्रबंध करो।’

(6)

“महाराज मान गए हैं। आप भूलोक में अपने घर जा सकती हैं।’ स्वर्गदूत ने अशांत आत्मा को समाचार सुनाया।

‘सच! वे मान गए? मैं कब जा सकती हूँ? क्या करना होगा? कैसे जाना है?’ उसने एक साथ कई प्रश्न कर डाले।

‘आपको कुछ नहीं करना है। हम सब प्रबंध कर देंगे।’

“आप बहुत दयालु हैं। आपने बहुत कृपा की।’ वह बहुत प्रसन्न थी।

‘आपको पता है, न कि अब आपका जीवन पहले जैसा नहीं होगा। आप सदेह न होंगी। केवल आपकी आत्मा जा रही है।’ दूत ने समझाया।

‘हाँ, लेकिन मैं अपने परिवार से मिल पाऊंगी न?‘

‘हाँ, आप उन्हें देख पाएंगी, सुन पाएंगी लेकिन संवाद नहीं कर पाएंगी क्योंक वे आपको देख-सुन नहीं पाएंगे। हाँ, यदि किसी को आपसे गहरा लगाव होगा तो उसे आपकी उपस्थिति का एहसास शायद हो सकता है।’

‘मुझे मंजूर है।’

“अच्छा, लेकिन एक शर्त है। यदि तुम वहाँ एक पल के लिए भी दुखी हुई तो तुरंत तुम्हें लौटना होगा। तुम्हारे दुखी होते ही तुम्हें तुरंत वापस लिवा लिया जाएगा।’

‘मुझे मंजूर है, …मुझे सब मंजूर है।’ कितनी जद्दोजहद के बाद उसे इस शर्त के साथ, अपने घर जाने की इजाजत मिली थी।

(7)

वो जैसे उड़ चली। झट से अगले ही पल वह भूलोक पर अपने घर के द्वार पर थी। यहाँ पल भर में कैसे पहुंची, उसे ख़ुद नहीं पता पर वह पहुँच गई थी। उसकी खुशी का ठिकाना न था। उसे अपने पति का ख़्याल आया। सुनील तो उसे देखकर कहीं खुशी से पागल न हो जाए! उसके बेटे ‘विराज’ का जाने क्या हाल होगा? तभी उसे आभास हुआ कि अब वह सदेह नहीं और उसके घर के सदस्य तो शायद उसे देख ही न पाएँ। उसने अपनी छत की ओर देखा, महानगर में जगह की कमी रहती है लेकिन उसने तो अपनी बगिया अपनी छत पर ही बनाई हुई थी। कितने सुंदर-सुंदर पौधे और सब्जियाँ लगाई हुई थी। उसने छत पर नज़र घुमाई, ‘यह क्या?’ बगिया अब सूख चुकी थी। 

उसका प्यारा पिल्ला वह तो हरदम उसके पीछे-पीछे घूमता रहता था। वह कहाँ है?

अपने पति और बेटे को देखने के लिए उसका मन बेताब था। घर का दरवाजा बंद था लेकिन उसे भला इसकी क्या परवाह और उसे कौन रोक सकता था? अगले ही पल वह अंदर प्रवेश कर चुकी थी।

“ये मेरे घर में नई-नवेली कौन है? शायद ‘विराज’ ने शादी कर ली होगी? … लेकिन इस औरत की उम्र तो काफी लग रही है!” 

‘तुम तैयार हो डार्लिंग?’ ग़ुसलख़ाने से निकलते हुए सुनील की आवाज़ तो वह पल भर में पहचान गई।

सुनील ने दूसरी शादी कर ली थी। वह जीवन में बड़ी रफ्तार से आगे बढ़ चुका था। उसकी तंद्रा टूटी, उसे याद आया उसे कोरोना से गुजरे शायद एक साल हो चला था। सुनील और उनकी नई-नवेली अटखेलियाँ कर रहे थे।

“अब क्या करूँ?”

“भौं-भौं….’ पिल्ला दरवाजे पर टकटकी लगाए जैसे उसे ही देख रहा था।

‘इसे क्या हुआ? विराज…विराज, जरा इसे देख।‘ सुनील ने उस नई-नवेली दिखने वाली महिला के पास बैठे-बैठे अपने बेटे को आवाज लगाई लेकिन विराज तो जैसे वहाँ था ही नहीं।

‘वह शायद अपने फ्रेंड्स से चैट कर रहा होगा। आप ही इसे दूसरे कमरे में बांध दीजिए न?‘ महिला ने सुनील को कहा।

‘जैसा सरकार का हुक्म।‘ सुनील झट से उठ खड़ा हुआ।

‘जैसा सरकार का हुक्म।‘ सुनील का तकिया कलाम था। वह पहले बात-बात पर उसे भी तो ऐसा ही कहा करता था। हाँ, सुनील की सरकार ज़रूर बदल गई थी। पहले वह उसकी ‘सरकार’ हुआ करती थी और अब यह नई औरत!

सुनील ने पिल्ले को दूसरे कमरे में बंद कर दिया।

पिल्ला अब भी भौंके जा रहा था। आत्मा ने झट से उसी कमरे में प्रवेश किया पिल्ला भौं-भौं करना छोड़ ऊँह-ऊँह करने लगा और फिर जिसे उसके पाँवों में लौटते हुए जीभ से फर्श चाटता हुआ कलाबाजियाँ खाने लगा। ठीक वैसे ही जैसे जब वह ऑफिस से घर लौटती थी तो वह उछल-उछल कर अपनी जीभ से उसके पाँव चाटते हुए शोर मचाया करता था। वह कमरे में जिस ओर भी गई पिल्ला उसके पीछे-पीछे, जैसे वह उसे देखकर उसका पीछा करते हुए शोर मचा रहा हो। कहते हैं जानवरों में अदृश्य को भी देखने की क्षमता होती है। क्या पिल्ले को उसकी उपस्थिति का एहसास हो गया था?

उसने एक बार फिर से कमरे के दूसरे छोर की ओर रूख किया तो पिल्ला ऊँह-ऊँह करता, उस ओर आकर उछल-कूद करने लगा। उसे पूरा विश्वास हो गया था कि पिल्ले को उसकी मौजूदगी का एहसास हो गया है। ‘कुत्ता आदमी का सबसे वफादार साथी होता है’ इस बात का उसे प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया था।

उसने एक बार अपने घर की ओर देखा। उसकी बनाई पेंटिग्स कहाँ गई? अरे! वे सब एक कोने वाले स्टोर में पड़ी थीं। साथ वाले कमरे में बेटा शायद अपने मित्रों से बातचीत में व्यस्त था। पति और बेटे दोनों को उसकी मौजूदगी का एहसास नहीं था। उसे अपने पति और बेटे की कितनी फिक्र थी। उसका बेटा तो जैसे उसकी जान था। ‘चलो अच्छा है। वह अपने मित्रों के साथ व्यस्त है। बेचारे ने अपनी माँ तो खोई ही, शायद बाप भी एक किस्म से खो ही दिया।‘ वह बेटे के करीब गई। बेटे को कोई एहसास नहीं हुआ। हिम्मत करके उसने अपने बेटे का सिर सहलाया लेकिन विराज को जैसे कोई एहसास नहीं हुआ। ’21-22 बरस का हो गया लेकिन अभी भी उसकी गोद में सिर रखकर लेट जाया करता था। फिर उसका हाथ पकड़ कर अपने माथे पर रख लेता तो वह उसका सिर कितनी देर तक सहलाती रहती।‘ ऐसे कई दृश्य चलचित्र की भांति उसे याद आने लगे। उसने एक बार फिर उसके सिर पर हाथ फेरा। शायद उसे आभास हो जाए पर वह शायद किसी बहुत ही ख़ास से बात कर रहा था। ‘चलो, अब इसकी इतनी चिंता नहीं!’ वह बैठक में आ गई।

उसका पति और उसकी नई-नवेली दुल्हन शायद बैठक से उठकर अपने कमरे में जा चुके थे। उसने एक बार उधर झाँका लेकिन उसका सात जन्मों तक साथ देने का वचन भरने वाला पति तो जैसे सात महीनों में ही पराया हो चुका था। अभी तो साल भी नहीं गुजरा था। उसने सोचा, अब बाहर की और चले। दूसरे कमरे में पिल्ला फिर से भौंकने लगा था, ‘भौं-भौं, भौं-भौं।‘ वह एक बार फिर वहाँ गई तो पिल्ला फिर से उछल-कूद करने लगा। वह धम्म से वहीं पलंग पर बैठ गई। पिल्ला पूंछ हिला-हिलाकर शोर कर रहा था लेकिन उसके लिए जैसे वक्त ठहर-सा गया था। वह खिन्न थी, दुखी थी। उसने एक बार फिर से नज़रे उठाकर अपने घर की ओर देखा। उसे अपना घर निरा मकान लग रहा था। …जब घरवाले विमुख हो जाएँ तो कोई भी घर केवल मकान ही तो रह जाता है!        

उसे ताज्जुब हो रहा था और उससे अधिक दुख। उसके दुखी होते ही दो दूत उसके अगल-बगल प्रगट हो चुके थे। वे उसे वापिस ले जाने के लिए आ चुके थे। “…एक शर्त है। यदि तुम वहाँ एक पल के लिए भी दुखी हुई तो तुरंत तुम्हें लौटना होगा। तुम्हारे दुखी होते ही तुम्हें तुरंत वापस लिवा लिया जाएगा।”

उसकी भटकन समाप्त हो चुकी थी।

सामने पड़ोसी के अपार्टमैंट का दरवाजा खुला था। सिटिंग रूम में टीवी पर एक ‘श्वेत-श्याम’ फिल्म चल रही थी। पर्दे पर राजकपूर, ‘आ अब लौट चले…’ गाना गा रहा था।

‘चलें?’ दूतों ने इशारा करते हुए कहा।

वह चुपचाप उनके साथ परलोक की यात्रा पर चल दी।

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