चदरिया झीनी रे झीनी

-अदिति अरोरा

मैं अपने परिवार के साथ आजकल लंदन प्रवास पर हूँ। हमारा घर थेम्स नदी के समीप निर्मित एक बहुमंज़िली इमारत की छटी मंज़िल पर है। २७ वर्ष सिंगापुर में ग्यारहवीं मंज़िल पर रहने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे अब धरती माँ के थोड़ा समीप आ गई हूँ। वर्षा की बूंदों से भीगती सौंधी मृदा की सुगंध अब मेरे श्वासों तक पहुँचने लगी है।

वैसे तो पूरा घर ही आधुनिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण, आरामदायक और सुंदर है परंतु पारदर्शी काँच से बनी बालकनी, इस घर का सबसे विशेष स्थान है। बालकनी के बिलकुल नीचे रेल की पटरियाँ, उन पर आती-जाती मालगाड़ियों की धीमी-धीमी ध्वनि, प्रतिदिन उगते हुए रक्तिम सूर्य के अलौकिक दर्शन, मधुर स्वर में चहचहाती, उड़ती श्वेत सीगल चिड़ियाओं के झुंड, संध्या के समय गुलाबी-नारंगी आकाश, शांत रात्रि में चांदी के थाल सा चमकता पूर्णिमा का चन्द्र, सब कुछ जैसे मुझे उस अनंत से जोड़े रखता है। घर के काम-काज से निवृत्त हो मुझे जब भी खाली समय मिलता है अपनी चाय लेकर माँ प्रकृति की गोद में आकर बैठ जाती हूँ। लंदन के ठंडे मौसम में, सहलाती गुनगुनी धूप में बैठकर चाय पीने का कुछ अलग ही आनंद है। वृक्षों के ऊपर फुदकती गिलहरियाँ, खुले आकाश में स्वछंद अठखेलियाँ करते पक्षी, कभी-कभी बालकनी की मुंडेर पर आकर बैठने वाला कौआ, सब जैसे मेरे अपने से हो गए हैं।

हमारे घर के सामने एक और बहुमंज़िली आवासीय इमारत का निर्माण कार्य चल रहा है। घर की बालकनी से इस इमारत का धीरे-धीरे होता विकास एकदम स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। नौ माह पूर्व जब हम इस घर में आए थे तब सामने की यह भूमि पूर्णतया रिक्त थी, फिर देखते-देखते टीन की चादरों से इसकी सीमा रेखा बनाई जाने लगी और इमारत के नाम की तख्ती लटका दी गई, Hill Apartments.

शीघ्र ही मिट्टी खोदने का कार्य शुरू हो गया। बड़ी-बड़ी क्रेन और मजदूरों का आवागमन दिखाई देने लगा और इमारत की नींव भरी जाने लगी। घर के सामने का यह निर्जन स्थान इन सब गतिविधियों से सजीव हो उठा। कुछ ही दिनों में एक सुदृढ़ और समतल आधार बन कर तैयार हो गया और इस पर खड़े होने वाली बहुमंज़िली इमारत का ढाँचा बनना भी आरंभ हो गया। धातु के सरियों और बड़े-बड़े पत्थरों से बीम और स्तंभ बनाए जाने लगे। धीरे-धीरे ढाँचे के अंदर मकानों का विभाजन दृष्टिगत होने लगा, उनके अंदर कमरे, खिड़कियाँ और गलियारे दिखाई पड़ने लगे। पहले एक मंज़िल बनी फिर उसके ऊपर दूसरी फिर तीसरी और देखते-देखते पिछले नौ माह में अठारह मंज़िल की इस इमारत का ढाँचा पूर्णतया तैयार हो चुका है। आजकल इस पर सीमेंट की चिनाई चल रही है और इस लोहे के सरियों और पत्थरों से बने जटिल से ढाँचे ने एक सुंदर इमारत का रूप ले लिया है।

चाय की चुस्कियाँ लेते-लेते मैं इस इमारत में खो जाती हूँ। जल्दी ही शायद इसमें बने घर सजीव हो उठेंगे। लोग इनको खरीदकर इनके स्वामी बन जायेंगे, उन पर अलग-अलग नामों की तख्तियाँ लग जाएंगी, अपनी पसंद की वस्तुओं से इनको भर लिया जाएगा, कोई शायद अल्प अवधि के लिए रहेगा और कोई लंबी अवधि के लिए इनका स्वामी बन जायेगा। नौ महीने में तैयार इस इमारत की चमचमाती बेदाग दीवारों पर इधर-उधर दाग-धब्बे, कीलों के गढ्ढे दिखाई देने लगेंगे।

मन में यह विचार आते ही संत कबीरदास जी की रचना स्मृति पटल पर उभर आई..

झीनी झीनी बीनी चदरिया
झीनी रे झीनी

साँई को सियत मास दस लागे,
ठोक ठोक कै बीनी चदरिया

सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया

दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया

कबीरदास जी कैसे कुछ ही पंक्तियों में सम्पूर्ण जीवन का दर्शन करा देते हैं। मेरे सामने बनती यह इमारत भी जैसे यही कह रही है।

यह देह, मानव का एक निवास स्थान नहीं तो और क्या है ?

नौ-दस मास इसे बनने में लगते हैं, वह रचनाकार कैसे एक-एक कोशिका और अस्थियों को ईंटों की भाँति जोड़कर भीतरी ढाँचे का निर्माण करता है। फिर उस पर त्वचा रूपी कोमल चादर की चिनाई कर उसको सुंदर मुखौटा दे देता है और फिर इस पर अलग-अलग नामों की तख्तियाँ लग जाती हैं। कोई अल्प अवधि के लिए तो कोई लंबी अवधि के लिए इस देह रूपी मकान का स्वामी बन जाता है। यह साफ-सुथरा, बेदाग निवास स्थान पसंद ना पसंद से भरने लगता है और धीरे-धीरे मानव अपने विकारों के पराधीन हो इसे मैला कर डालता है।

कबीरदास जी जीवन की यथार्थता और उसकी क्षणभंगुरता को कभी झीनी चदरिया से तो कभी पानी के बुलबुले से और कभी डाली से टूटे पत्ते से समझाने का प्रयास करते हैं
कहते हैं-

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।।

पत्ता टूटा डाल से, ले गई पवन उड़ाय।
अब के बिछड़े न मिलें, दूर पड़े हैं जाय॥

सच ही तो है यह देह रूपी मकान, यह निवास स्थान सदा के लिए नहीं। इसको अपना समझकर बैठ जाना एक मूर्खता है जबकि एक किरायेदार की भाँति एक दिन इसको खाली करके जाना ही होगा। अच्छा होगा कि मानव पूर्ण जागरूक होकर इसका प्रयोग करे और बिना मैला करे समय आने पर संत कबीरदास जी की तरह ज्यों का त्यों उस मालिक को वापस कर दे।

इन सब विचारों में खोई हुई थी कि अचानक वर्षा की बूंदों ने जैसे मुझे इमारत से बाहर निकाला। बाहर आई तो देखा मजदूर आज का कार्य समाप्त कर चुके थे, क्रेन को भी विश्राम दे दिया गया था। मैं भी अपना चाय का खाली प्याला उठाकर अंदर आ गई परंतु मन में अभी भी कबीरदास जी का भजन चलता जा रहा है

झीनी झीनी बीनी चदरिया
झीनी रे झीनी

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